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पहचान की राजनीति से ही भविष्य के मुद्दे साधने की जुगत में सोरेन

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 12:36 AM IST

वर्ष 2019 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) से करारी हार का सामना करना पड़ा। झामुमो ने राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस और अन्य छोटे दलों के साथ गठबंधन किया था। भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुबर दास अपनी सीट भी नहीं जीत सके। राज्य की 81 सदस्यीय विधानसभा में अकेले झामुमो के पास 30 सीट हैं। अगर भाजपा अपनी 25 सीट के साथ सरकार बनाने की जुगत भी लगाए तो इसके लिए पर्याप्त दलबदल संभव नहीं है। राज्य में ऐसा दूसरी बार होगा जब कोई सरकार अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करेगी।
राज्य के मुख्यमंत्री और झामुमो नेता हेमंत सोरेन ने हाल ही में कुछ ऐसे कदम उठाए हैं जो भ्रमित करने वाले हैं। पिछले चुनाव प्रचार के दौरान सोरेन ने सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने का वादा किया था। यह वादा अभी तक लंबित है। इसके बजाय सरकार ने पिछले महीने एक कानून पारित किया जिसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि सरकारी और निजी क्षेत्रों की नौकरियों में 75 प्रतिशत आरक्षण स्थानीय लोगों के लिए होगा। इन नौकरियों की वेतन सीमा 30,000 रुपये प्रतिमाह है। इस आय सीमा और इससे कम वेतन पर राज्य से बाहर के उम्मीदवारों के लिए केवल 25 प्रतिशत रिक्तियां ही होंगी। इस पर कोई भी एतराज नहीं जता रहा है क्योंकि निजी क्षेत्र का भी कहना है कि वे इन रिक्तियों को स्थानीय लोगों के माध्यम से भर रहे हैं।
झारखंड में पहचान की एक मजबूत भावना है। पहले सबको एकजुट करने वाला कारक, ‘विदेशी’ (दिकु), गैर-आदिवासी ही था। प्रारंभ में झारखंड के आदिवासियों ने मुगल वंश और अंग्रेजों द्वारा अपनी समृद्ध भूमि और जंगलों पर कब्जा करने के प्रयासों का पुरजोर तरीके से विरोध किया। लेकिन आदिवासी उस वक्त हाशिये पर थे जब हिंदू व्यापारी और मुस्लिम किसान यहां आए। इसके बाद ही यहां कानून-व्यवस्था और आधुनिक प्रशासन की स्थापना हुई। ब्रितानी हुकूमत और उससे जुड़े तंत्र ने इन आदिवासियों को कंगाल बनाने की प्रक्रिया आसान कर दी। प्रशासन का कामकाज दिकुओं द्वारा देखा जाता था और आदिवासी कागजी मुद्रा से वाकिफ  ही नहीं थे। उनके गांव, मुख्य रूप से मुस्लिम जमींदारों के हाथों में चले गए जो जंगल में अपनी पहुंच बनाने के साथ ही वहां रहने वाले समुदायों का इस्तेमाल सस्ते श्रमिकों के रूप में करना चाहते थे। स्वतंत्र भारत ने इन समुदायों के लिए जो भी पेशकश की वह उनकी बेहतरी के लिए बहुत कम था। हालांकि मिशनरी यहां रह गए और आदिवासियों ने हिंदू धर्म और देवताओं के अपने संस्करण को नष्ट करने के प्रयासों का विरोध करना जारी रखा जो जीवित आदिवासी नेताओं के आदर्श पर आधारित थे। इनके अंदर यह अहसास बढ़ता गया कि जब तक उनकी पहचान को विशिष्ट तौर पर मान्यता नहीं दी जाती तब तक उनकी स्थिति में सुधार नहीं होगा और इसके लिए उन्हें स्वशासन और अपने प्रांत की आवश्यकता थी। झामुमो की शुरुआत 1973 में एक युवा शिबू सोरेन ने की थी। राज्य में बाहरी लोगों यानी दिकु की मौजूदगी केे साथ ही आदिवासी पहचान को भी जोड़कर रखा गया। लेकिन धीरे-धीरे, युवा आदिवासियों ने महसूस किया कि दिकु का विरोध करने की तुलना में उनका साथ देना अधिक लाभदायक था। इस तरह के सहयोग का एक नतीजा मधु कोड़ा और खदान पट्टा घोटाला था।
लेकिन अब एक और खतरा मंडरा रहा है और यह झारखंड में भाजपा का बढ़ता दावा है। पार्टी के पास मैदान में उतारने के लिए नेता के तौर पर राज्य में एक विश्वसनीय चेहरा भले ही न हो लेकिन यह विचार अपने आप में ही अहम है कि आप हिंदू और आदिवासी दोनों हो सकते हैं और यह जोर पकड़ रहा है।
आदिवासियों के बीच विभाजन के साथ, झामुमो को एक व्यापक पहचान की अधिक आवश्यकता है जो एक ऐसे व्यक्ति के प्रति उपयुक्त है जो न तो हिंदू है, न ही मुस्लिम बल्कि झारखंडी है।  झारखंड विधानसभा में ‘नमाज कक्ष’ बनाने का विवाद उसी कवायद का हिस्सा है। सरकार ने पिछले महीने घोषणा की थी कि मुस्लिम विधायकों को एक अलग कमरा आवंटित किया जाएगा ताकि वे उस आवंटित जगह में नमाज पढ़ सकें। यह कदम इस तथ्य को मान्यता देने से भी जुड़ा था कि झारखंड में मुसलमान राज्य की व्यापक पहचान का हिस्सा बन गए हैं और उनके साथ झारखंडी के तौर पर और मुस्लिम होने के नाते भी वैसा ही बरताव होना चाहिए और अकेले झामुमो ही उनके हितों की रक्षा सुनिश्चित कर सकती है।
इस कदम का भाजपा ने जमकर विरोध किया और उनकी पार्टी के विधायकों ने मांग की थी कि उन्हें हनुमान चालीसा पढऩे के लिए एक अलग कमरा दिया जाए। इसका मुसलमानों पर गहरा असर हो सकता है। फिलहाल झारखंड विधानसभा के चार मुस्लिम विधायकों में से दो कांग्रेस और दो झामुमो के हैं। राजमहल विधानसभा सीट पर जहां मुस्लिम आबादी अच्छी है वहां दो मुस्लिम उम्मीदवारों को हार का मुंह देखना पड़ा और भाजपा को जीत मिल गई क्योंकि मुस्लिम समुदाय के मतों में विभाजन हो गया। सोरेन और झामुमो को स्पष्ट रूप से इसी बात की चिंता है क्योंकि ऐसा ही कुछ अन्य जगहों पर भी हो सकता है।
अकेले मुस्लिम पहचान को बढ़ावा देने में अपने खतरे हैं। हालांकि झामुमो ऐसा नहीं करने जा रही है। हाल ही में, जब मुस्लिम समुदाय ने पैगंबर की तस्वीर को पाठ्यपुस्तक में शामिल किए जाने का विरोध किया तब सरकार ने सार्वजनिक रूप से माफी मांगी। पुस्तक के इस अध्याय को तुरंत हटा दिया गया।
आने वाले दिनों में हिंदू, मुस्लिम या आदिवासी से एक नई राजनीतिक दूरी बरतने की उम्मीद की जा सकती है और उसकी जगह रांची से ‘मुझे झारखंडी होने पर गर्व है’ जैसे संदेश को बढ़ावा दिया जा सकता है। यही हेमंत सोरेन की भविष्य की राजनीति का नुस्खा होने जा रहा है।

First Published : October 1, 2021 | 11:30 PM IST