यह विश्वास कमजोर पड़ रहा है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की ऊंची वृद्धि दर से रोजगार का सृजन होता है। हमारी जीडीपी वृद्धि दर ऊंची रही है लेकिन रोजगार सृजन में अपेक्षित वृद्धि देखने को नहीं मिली। अब हमें रोजगार पैदा करने पर ध्यान देना होगा और जीडीपी वृद्धि दर उसका नतीजा हो सकती है।
इसके लिए हमें अपनी मानसिकता में बुनियादी बदलाव करना होगा। हमें वॉशिंगटन सहमति से आगे बढ़ना होगा जिसे हमने 1991 के आर्थिक सुधारों के साथ अपनाया था। उसके मुताबिक राज्य को वृहद आर्थिक बुनियादी तत्त्वों के रखरखाव में अपनी भूमिका सीमित करनी चाहिए, उसे बेहतर भौतिक और सामाजिक अधोसंरचना मुहैया करानी चाहिए और कारोबारी सुगमता में सुधार करना चाहिए।
ऐसे में मुक्त बाजार अपना काम करेगा। चीन से तुलना करने पर पता चलता है कि इस रवैये की सीमा क्या है। सन 1991 में हम प्रति व्यक्ति आय और तकनीक के मामले में बराबरी की स्थिति में थे। अब वह हमसे पांच गुना बड़ा है। बाजार की ताकतों को अकेले छोड़ने के बजाय चीन की सरकार ने औद्योगीकरण को गति दी और निर्यात में कामयाबी हासिल करते हुए चीन को दुनिया की फैक्टरी बना दिया।
चीन ने सबक लिया और दक्षिण कोरिया और जापान की नीतियों का अनुसरण किया जो पहले उन देशों को कामयाबी दिला चुकी थीं। अब भारत को रोजगार तैयार करने पर अधिक जोर देना होगा। परंतु इसके लिए पहले हमें यह मानना होगा कि सरकार बेहतर नीतियां बना सकती है और उनका क्रियान्वयन करके निजी क्षेत्र का निवेश आकर्षित करते हुए जरूरी रोजगार तैयार कर सकती है।
सन 1991 तक हमारा प्रदर्शन कमजोर था और उस समय तक हम केंद्रीकृत नियोजन और अर्थव्यवस्था के सूक्ष्म प्रबंधन की सरकार की क्षमता पर भरोसा करते थे। सन 1991 के सुधारों के बाद हमने यह स्वीकार कर लिया था कि राज्य को इच्छित परिणाम पाने के लिए बाजार की ताकतों को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए, जिससे हम अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर सके।
सफलता के लिए वृहद स्तर पर दो नीतिगत सुधारों की जरूरत है लेकिन केवल ये ही पर्याप्त नहीं हैं। पहला, वास्तविक विनिमय दर जिसे उतनी तवज्जो नहीं मिलती है जितनी मिलनी चाहिए। दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों के बीच इस बात को लेकर सहमति रही है कि वास्तविक विनिमय दर में इजाफे का घरेलू मूल्यवर्धन और रोजगार सृजन पर विपरीत प्रभाव हुआ है।
हमारे देश में वास्तविक विनिमय दर में इजाफा हुआ है जबकि उत्पादकता और निर्यात में इजाफा नहीं हुआ है जबकि वे मुद्रा को मजबूत बनाने वाले कारक हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि विदेशों से धन भेजा गया और हमारे शेयर बाजारों में भारी पूंजी निवेश हुआ। हमारी नीति यह रही है कि बाजार को विनिमय दर निर्धारित करने दी जाए। हमें इसका नुकसान हुआ है। अब वक्त आ गया है कि रिजर्व बैंक को बाजार में हस्तक्षेप करने दिया जाए ताकि वास्तविक विनिमय दर में इजाफा रोका जा सके। पूर्वी एशियाई देशों ने तेज औद्योगीकरण के लिए कृत्रिम ढंग से मुद्रा अवमूल्यन किया।
दूसरा है कारोबार की लागत कम करना। एक गरीब, विकासशील अर्थव्यवस्था जो संसाधनों की कमी से जूझती रही है, उसने सुधारों के पहले के दौर में क्रॉस सब्सिडी और ‘विलासिता’ की वस्तुओं पर ऊंची दरों पर कर का रास्ता अपनाया और इस प्रकार मूल्य निर्धारण किया। एक खुली अर्थव्यवस्था में पुरानी विसंगतियां लागत के मोर्चे पर नुकसान की स्थिति निर्मित कर देती हैं जो किसी एक कंपनी के नियंत्रण के बाहर होती हैं। हमारे यहां लॉजिस्टिक की लागत प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में 50 फीसदी तक अधिक है।
आदर्श स्थिति में डीजल को वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी के न्यूनतम या मध्यम स्लैब में होना चाहिए लेकिन इस पर जीएसटी की उच्चतम दर से भी करीब दोगुना कर लगता है। कारोबारी लागत कम करना कारोबारी सुगमता से अधिक बड़ी प्राथमिकता है।
उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना इस बात को स्वीकार करने का परिणाम है कि हमारी उच्च लागत को बजट सहायता से कम करने की आवश्यकता है। चूंकि हर प्रकार के उत्पादन को पीएलआई की मदद नहीं मिल सकती है इसलिए ऐसे निर्णय लेने की आवश्यकता है जो कारोबारी सुगमता की लागत कम कर सकें। असल संकट कम करने के लिए निजी निवेश जुटाकर रोजगार तैयार करने होंगे क्योंकि सरकारी रिक्तियों की पूर्ति से बात नहीं बनेगी।
हमें बेहतर क्षेत्रवार नीतियों की आवश्यकता होगी। सबसे पहले हमें विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में श्रम आधारित उद्योगों की पहचान करनी होगी क्योंकि हमें इन क्षेत्रों में वैश्विक बाजारों के प्रमुख कारोबारियों की तुलना में वेतन के मामले में बढ़त हासिल है। हमें प्रतिस्पर्धी बढ़त की पुरानी मान्यता को त्यागना होगा। समकालीन उच्च तकनीक वाली विश्व अर्थव्यवस्था में कंपनियां प्रतिस्पर्धी बढ़त हासिल करना चाहती हैं।
सरकारें इस काम में कंपनियों की मदद कर सकती हैं। वे उन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जुटाने में भी मदद कर सकती हैं जहां बड़ी तादाद में नौकरियां निर्मित की जा सकती हैं। ऐसा करने के लिए क्षेत्रवार विशिष्ट नीतिगत उपाय तैयार करने होंगे और ऐसा बाजार के कारोबारियों के साथ सहयोग के साथ करना होगा। उदाहरण के लिए स्मार्ट फोन के लिए पीएलआई के परिणामस्वरूप ऐपल ने भारत को वैश्विक बाजारों के लिए फोन निर्माण का केंद्र बनाया। महज कुछ ही वर्षों में 1,50,000 रोजगार तैयार हुए। ऐपल का उदाहरण हमें हमारी संभावनाओं से अवगत कराता है।
ऐसे उपायों को अपनाना होगा जो अगले दो-तीन वर्षों में परिणाम देना शुरू कर दें। इनके लिए विशिष्ट क्षेत्रों का चयन करना होगा। जो उपाय वस्त्र निर्यात में कारगर होंगे वे पर्यटन की जरूरतों से अलग होंगे। दिल्ली का ताजमहल होटल निजी-सार्वजनिक भागीदारी का एक अच्छा नमूना है जहां नई दिल्ली नगरपालिका परिषद और दिल्ली विकास प्राधिकरण ने जमीन और इमारत का ढांचा दिया जबकि टाटा ने लंबी अवधि के राजस्व साझेदारी समझौते के साथ इसे पूरा किया। यह तब हुआ जब निजी-सार्वजनिक भागीदारी का कोई नाम भी नहीं जानता था। यह दोनों के लिए लाभदायक रहा।
शुरुआत में कुछ क्षेत्रों को चुनना सही रहेगा। उसके बाद नीतिगत उपायों को सही करें और जरूरी संसाधनों की मदद से आगे बढ़ें। संसाधनों का बहुत अधिक वितरण करना सही नहीं होगा। शुरुआती कामयाबी के बाद राज्य में यह क्षमता और आत्मविश्वास विकसित होगा कि वह अधिक क्षेत्रों के साथ आगे बढ़ सके।
घरेलू बाजार और निर्यात में सफलता को साथ चलना होगा क्योंकि हम वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। संरक्षणवादी और बंद अर्थव्यवस्था की ओर लौटना न तो वांछित है और न ही यह कोई विकल्प है। रोजगार तैयार करने वाले उत्पादकों के पक्ष में राजनीतिक-आर्थिक बदलाव आवश्यक है। उनके हितों को व्यापारियों और उपभोक्ताओं के हितों पर प्राथमिकता देकर ही रोजगार सृजन में कामयाबी पाई जा सकती है।
(लेखक भारत सरकार के सचिव, डीआईपीपी, रह चुके हैं)