मैंने चार महीने पहले लिखा था कि भारत की वृहद आर्थिक चुनौतियां गहरा गई हैं। वजह- अमेरिका और यूरोपीय देशों में महंगाई तेजी से बढ़ी है, जिससे मौद्रिक नीतियां सख्त हो रही हैं। चीन में कोविड संक्रमण के प्रसार पर अंकुश के लिए लॉकडाउन लगाए जाने से आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हुई हैं।
यूक्रेन युद्ध (उस समय सात सप्ताह हुए थे) से रूस के खिलाफ अभूतपूर्व आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए हैं, जिससे तेल, गैस, गेहूं तथा अन्य जिंसों की कीमतों में बढ़ोतरी और आपूर्ति श्रृंखलाओं में अहम अवरोध पैदा हो रहे हैं। मैंने वित्त वर्ष 2022-23 में अहम वृहद आर्थिक संकेतकों में संभावित उठापटक समेत भारत के लिए कुछ वृहद आर्थिक नतीजों का खाका पेश किया था और सरकार तथा भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की तरफ से कुछ वांछित नीतिगत पहलों का उल्लेख किया था। चार महीने बाद इन मुद्दों पर फिर से विचार करना और जायजा लेना समीचीन होगा।
यह साफ नजर आ रहा है कि अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और राजनीतिक माहौल विवादों, आर्थिक अवरोधों और अत्यधिक अनिश्चितताओं से भरा हुआ है। यूक्रेन युद्ध कमजोर पड़े बिना लगातार जारी है। इसी तरह चीन के प्रमुख शहरों में छिटपुट लॉकडाउन और प्रमुख केंद्रीय बैंकों की तरफ से मौद्रिक नीतियों में सख्ती भी जारी है। पिछले सप्ताह ताइवान स्ट्रेट में तनाव बढ़ना भी ठीक नहीं होगा। हालांकि इससे बचा जा सकता था। ये नकारात्मक प्रभाव वैश्विक आर्थिक वृद्धि और महंगाई पर साफ नजर आने लगे हैं। आईएमएफ ने एक पखवाड़े पहले वैश्विक आर्थिक परिदृश्य (डब्ल्यूईओ) के अपने जुलाई के अपडेट में अनुमान जताया है कि वैश्विक आर्थिक वृद्धि 2021 में 6.1 फीसदी के मुकाबले तेजी से फिसलकर 2022 में 3.2 फीसदी और 2023 में 2.9 फीसदी रहेगी। अमेरिका, चीन और यूरोप में अत्यधिक मंदी रहेगी। इससे भी चिंताजनक बात यह है कि वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में कहा गया है, ‘परिदृश्य में गिरावट के अत्यधिक जोखिम हैं। यह एक ‘वैकल्पिक तर्कसंगत परिदृश्य’ पेश करता है, जिसके अनुमान के मुताबिक वैश्विक वृद्धि 2022 में 2.6 फीसदी और 2023 में महज 2 फीसदी रहेगी। इससे वैश्विक वृद्धि 1970 के बाद की सबसे कम दशमक होगी। लगभग सभी देशों में महंगाई बढ़ी है और बहुत से विकासशील देशों में बाह्य वित्तीय दबाव बढ़े हैं।
इस साल अप्रैल में मैंने भारतीय अर्थव्यवस्था का नुकसान कम करने के लिए सरकार और आरबीआई (मानक आईएमएफ शब्दावली में संयुक्त रूप से अथॉरिटीज कहा जाता है) की तरफ से कुछ नीतिगत पहलों का सुझाव दिया था। इनमें राजकोषीय घाटे को बजट लक्ष्य तक सीमित रखने के कदम उठाना, नीतिगत रीपो दर में तत्काल बढ़ोतरी करना तथा अत्यधिक नरम मौद्रिक नीति को तेजी से सामान्य बनाना, उतार-चढ़ाव को नियंत्रित रखते हुए रुपये में गिरावट होने देना, सार्वजनिक निवेश योजनाओं का लगातार क्रियान्वयन, भविष्य में हमारी कारोबारी संभावनाएं बढ़ाने और हमारे निर्यात एवं संबंधित निवेश एवं उत्पादकता में टिकाऊ गतिशीलता बहाल करने के लिए समीपवर्ती, वृहद क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौता और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) में हमारे पर्यवेक्षक के दर्जे को सदस्यता में तब्दील करना और कम-कुशल रोजगार के विस्तार को बढ़ावा देने के कदम उठाना शामिल हैं।
यह सुखद है कि पिछले कुछ महीनों के दौरान इन मोर्चों पर काफी प्रगति हुई है। उर्वरक सब्सिडी और कुछ अन्य व्यय प्रतिबद्धताओं में बढ़ोतरी हुई है, जिनसे नहीं बचा जा सकता था। लेकिन इसके बावजूद सरकार ने बजट में निर्धारित राजकोषीय घाटे की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए राजस्व संसाधन बढ़ाने की दिशा में काम किया है। इन उपायों में से एक तेल क्षेत्र में अप्रत्याशित लाभ एवं निर्यात पर हाल में कर लगाना शामिल है।
हालांकि तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें घटने के साथ इसमें चरणबद्ध तरीके से कमी की गई है। इसके अलावा जीएसटी परिषद ने छूट में कमी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की दरों को तर्कसंगत बनाने जैसे कदम उठाए हैं और इस प्रमुख कर के प्रशासन को सुधारने के लिए प्रयास लगातार जारी हैं। मौद्रिक क्षेत्र में आरबीआई और उसकी मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने आखिरकार निर्णायक कदम उठाया। इसने मई में नीतिगत रीपो दर 40 आधार अंक बढ़ाई, जिसके बाद जून में 50 आधार अंक और पिछले सप्ताह में अन्य 50 आधार अंक की बढोतरी की। इस तरह रीपो दर में कुल 1.4 आधार अंक की बढ़ोतरी की जा चुकी है। इसके अलावा आरबीआई ने अपनी नरम मौद्रिक नीति को वापस लेने की रफ्तार तेज कर दी है। इसने अपनी सबसे हालिया नीतिगत घोषणा में आगे का रुझान भी पेश किया है।
अथॉरिटीज ने तेजी से मजबूत होते डॉलर के मुकाबले रुपये को कुछ हद तक कमजोर होने दिया है। हालांकि आरबीआई की डॉलर बिक्री के जरिये कुछ नियंत्रण रखा है मगर इससे हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में 50 अरब डॉलर से अधिक की गिरावट आई है। बाजार में ऐसे हस्तक्षेप का यह भी मतलब है कि रुपया ब्रिटिश पाउंड, यूरो और जापानी येन और कुछ अन्य अहम मुद्राओं के मुकाबले मजबूत हुआ है।
कुल मिलाकर व्यापार भारित वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (आरईईआर) के लिहाज से (एक करेंसी बास्केट में नॉमिनल विनिमय दरों और महंगाई में होने वाले बदलाव पर विचार किया जाता है ) रुपये का मूल्य मोटे तौर पर स्थिर रहा है। विदेश व्यापार और भुगतान संतुलन के चालू खाते ( मौजूदा वित्त वर्ष में जीडीपी के 3 फीसदी के असहज स्तर को पार करने के आसार) में तेजी से बढ़ते घाटों को मद्देनजर रखते हुए नियंत्रणों को ढीला करना और आरईईआर के आधार पर कुछ अवमूल्यन होने देना बेहतर होगा। इससे हमारी बाह्य भुगतान की स्थिति की मध्यम अवधि की व्यवहार्यता सुनिश्चित होगी। आरसेप पर कोई प्रगति नहीं हुई है और निकट भविष्य में कोई आसार भी नजर नहीं आ रहे हैं। क्षेत्रीय तरजीही व्यापार व्यवस्थाओं के साथ हमारे कमजोर जुड़ाव और हमारे तुलनात्मक रूप से ऊंचे सीमा शुल्क (पूर्वी एशियाई देशों और 2015 में हमारी स्थिति की तुलना में) के कारण निर्यात, उत्पादन और रोजगार की वृद्धि प्रभावित हो रही है। इस पर लगातार तीन साल 10 फीसदी से अधिक समेकित (केंद्र एवं राज्य) राजकोषीय घाटे और जीडीपी के मुकाबले सरकारी घाटा करीब 90 फीसदी पर पहुंचने की चुनौतीपूर्ण विरासत का भी असर पड़ रहा है।
पिछले तीन महीनों के दौरान दुनिया में घटित होने वाले घटनाक्रमों के बावजूद आरबीआई के हाल के मौद्रिक नीति बयान में वृद्धि और महंगाई के अनुमानों में मई की तुलना में कोई बदलाव नहीं किया गया है। यह आश्चर्यजनक है। उल्लेखनीय है कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में पिछले साल की डेल्टा प्रभावित पहली तिमाही के निम्न जीडीपी आधार के मुकाबले आंकड़ों में 16 फीसदी उछाल आने के बाद शेष तीन तिमाहियों में औसत आर्थिक वृद्धि महज 4.8 फीसदी रहने का अनुमान है। वैश्विक आर्थिक परिदृश्य के ताजा अपडेट में अनुमान जताया गया है कि भारत की वृद्धि 2023-24 में 6.1 फीसदी रहेगी। यह संभव है लेकिन यदि वैश्विक उत्पादन और व्यापार में बढ़ोतरी वैश्विक आर्थिक परिदृश्य के निराशाजनक परिदृश्य के नजदीक रहती है या हमारी खुद की नीतियों में अहम कमजोरी आती है तो वृद्धि आसानी से 5 फीसदी के नजदीक आ सकती है।
आखिर में जो कोई भारत के वृहद आर्थिक लचीलेपन को लेकर खुशफहमी में हैं, उन्हें इस बात पर गौर करना चाहिए कि हाल के जून तिमाही के अनुमान (सीएमआईई के रोलिंग सर्वे से) दर्शाते हैं कि भारत की रोजगार की दर (कुल रोजगार को काम करने योग्य उम्र वाली आबादी से विभाजित करके) बहुत कम 36.6 फीसदी बनी हुई है। यह सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में काफी कम है। इसका मतलब है कि आज भारत में काम करने लायक उम्र वाली आबादी में से 40 फीसदी से कम वास्तव में रोजगार पाने में सक्षम है। हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि समष्टि अर्थशास्त्र के जनक माने जाने वाले जॉन मेनार्ड कीन्स का रोजगार पर सबसे ज्यादा जोर था।
(लेखक इक्रियर में मानक प्रोफेसर और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)