दिवालिया कानूनों में मकान खरीदने वालों के हितों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, उन्हें निस्तारण प्रक्रिया की जटिलताओं में नहीं घसीटा जाना चाहिए। बता रहे हैं एमएस साहू और राघव पांडे
किसी भी क्षेत्र के दिवालिया कानून की तरह ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता, 2016 (आईबीसी) भी लेनदार-देनदार के रिश्तों के इर्दगिर्द घूमती है। सामान्य भाषा में कहें तो एक लेनदार वह है जिसने पैसे उधार दिए हों जबकि देनदार वह है जिसने पैसे उधार लिए हों। जब देनदार कर्ज चुकाने में नाकाम रहता है तो दिवालिया प्रक्रिया शुरू होती है। जो बात आईबीसी को अलग बनाती है वह है लेनदारों को दो व्यापक श्रेणियों में बांटना।
पहली श्रेणी वित्तीय लेनदारों मसलन बैंक और वित्तीय संस्थानों की है जो कर्ज देते हैं और अधिकांश मामलों में उस पर ब्याज लेते हैं। दूसरी श्रेणी परिचालन लेनदारों की है जो पैसे नहीं बल्कि वस्तुएं एवं सेवाएं उधार देते हैं।
यह वर्गीकरण एक अहम उद्देश्य की पूर्ति करता है: यह दोनों तरह के लेनदारों के अलग-अलग अधिकारों को रेखांकित करता है। दोनों के परिभाषित आर्थिक अधिकार होते हैं और देनदार की परिसंपत्तियों पर उनका दावा होता है। उसके विषय में हम आगे चर्चा करेंगे। अहम अंतर उनके राजनीतिक अधिकारों में होता है: वित्तीय लेनदारों को ऋणदाता समिति में जगह मिलती है जो आईबीसी की प्रक्रिया के दौरान निर्णय लेने वाली प्रमुख संस्था है जबकि परिचालन लेनदारों के साथ ऐसा नहीं है। केवल वित्तीय लेनदारों को ऋणदाता समिति में शामिल करने के पीछे दो तर्क हैं।
पहला, प्राथमिक वित्तीय संस्थानों के रूप में इनके पास वह वाणिज्यिक विशेषज्ञता होती है जो देनदारों के भविष्य के बारे में सूचित निर्णय लेने के लिए आवश्यक है। दूसरा, वे अपने कर्ज के पुनर्गठन के लिए बेहतर स्थिति में होती हैं। बहरहाल, वे कर्ज के पुनर्गठन को लेकर बेहतर स्थिति में रहते हैं। इस वर्गीकरण का आधार और अलग-अलग अधिकार देने के पीछे के तर्क भले ही सर्वोच्च न्यायालय ने बरकरार रखे हैं लेकिन उन पर बहस हो सकती है।
आईबीसी अचल संपत्ति की कंपनियों (आरएससी) के लिए ऋणशोधन निस्तारण की व्यवस्था करती है लेकिन यह वित्तीय सेवा प्रदाताओं (एफएसपी) को इससे बाहर रहने देती है जो ढांचागत दृष्टि से आरएससी से अलग होते हैं। आरएससी जहां प्राथमिक रूप से डेट और इक्विटी फंडिंग पर निर्भर हैं, वहीं एफएसपी मुख्य रूप से उपभोक्ताओं के फंड या तीसरे पक्ष की परिसंपत्तियों का इस्तेमाल करते हुए परिचालित होती हैं। उदाहरण के लिए म्युचुअल फंड निवेश, ट्रेडिंग खातों में मार्जिन मनी आदि। इसके अलावा उन्हें नियामकीय तौर पर न्यूनतम डेट और इक्विटी भी रखनी होती है।
इन अंतरों की वजह से एफएसपी को ऋणशोधन प्रक्रिया के लिए एकदम अलग प्रतिष्ठान की आवश्यकता होगी जो अभी विकास के अधीन है। चूंकि उपभोक्ताओं का काफी कुछ दांव पर लगा है इसलिए एफएसपी की दिक्कतें दूर करने के लिए निर्णय लेने वाला प्राधिकार आमतौर पर सार्वजनिक होता है जबकि लेनदारों द्वारा संचालित आरएससी में ऐसा नहीं होता।
ऋणशोधन की प्रक्रिया के दौरान अंशधारकों के आर्थिक अधिकारों के लिए एक अहम सिद्धांत है। दिवालिया इकाइयों की परिसंपत्तियों पर दावे और उस दावे से जुड़ें जोखिम के बीच विपरीत संबंध होता है। यह सिद्धांत दावों के पदसोपान में भी नजर आता है: उपभोक्ता, जो बहुत कम जोखिम लेते हैं या बिल्कुल जोखिम नहीं लेते, वे प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर होते हैं, जबकि इक्विटी धारक, जो सबसे अधिक जोखिम उठाते हैं वे सबसे नीचे रहते हैं।
लेनदार दोनों के बीच में होते हैं। उनका जोखिम ग्राहकों से अधिक लेकिन इक्विटी धारकों से कम होता है। लेनदारों में भी सुरक्षित लेनदारों की रैंकिंग ऊंची होती है क्योंकि उनका जोखिम असुरक्षित लेनदारों से कम होता है।
आरएससी में जो आमतौर पर ग्राहकों का पैसा नहीं रखतीं, ग्राहक या तो नजर ही नहीं आते या फिर परिचालन लेनदारों के साथ जोड़ दी जाती हैं। वहीं एफएसपी के मामले में ग्राहकों के दावों को प्राथमिकता दी जाती है और राज्य तथा बीमा कंपनियों की ओर से अतिरिक्त संरक्षण प्रदान किया जाता है।
कुछ संस्थान आरएससी और एफएसपी का मिलाजुला रूप होते हैं। वे डेट, इक्विटी और ग्राहक फंड का इस्तेमाल करके कारोबार करते हैं।
भारत में अचल संपत्ति कंपनियां (आरईसी) इसका उल्लेखनीय उदाहरण हैं। वे अपनी परियोजनाओं के लिए वित्तीय और अनुबंधित नवाचार का इस्तेमाल करती हैं। ये कंपनियां अक्सर निर्माणाधीन मकानों की बिक्री करती हैं और बिक्री मूल्य को किस्तों में लेती हैं। इस पैसे का इस्तेमाल चल रहे निर्माण को पूरा करने में किया जाता है। इससे दोनों पक्षों को लाभ होता है क्योंकि कंपनियां बैंक के कर्ज से बचती हैं और लोग किस्तों में पैसे चुका पाते हैं।
यह मॉडल तब तक कारगर रहा जब तक कंपनियां वादे के मुताबिक मकान बनाकर देती रहीं। दिक्कत तब पैदा हुई जब जेपी इन्फ्राटेक लिमिटेड वादे के मुताबिक हजारों मकान नहीं बना सकी और अगस्त 2017 में उसने दिवालया होने का आवेदन दिया। आईबीसी ने शायद ऐसी कंपनियों के निस्तारण पर विचार नहीं किया था। यह बात स्वीकार्य थी कि मकान खरीदने वालों का कंपनी की संपत्तियों पर अधिकार था लेकिन उनके वर्गीकरण को लेकर अस्पष्टता थी कि उन्हें लेनदार माना जाए और वे वित्तीय लेनदार थे या परिचालन लेनदार। इस वर्गीकरण के बिना आईबीसी प्रक्रिया में उनका कोई अधिकार नहीं था।
इन मकानों में अपने जीवन भर की बचत लगाने वाले लोग जो वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे, वे अजीब हालत में फंस गए। जेपी के मामले में उनके दावे की राशि वित्तीय लेनदारों से अधिक थी। उनकी मुश्किलों ने बड़े पैमाने पर ध्यान आकृष्ट किया। इसमें विधायिका और न्यायपालिका भी शामिल थे। इसके बाद आईबीसी में संशोधन करके मकान खरीदने वालों को वित्तीय लेनदारों की श्रेणी में डाल दिया गया ताकि वे निर्णय प्रक्रिया में भागीदार हो सकें।
संशोधन से कुछ राहत मिली लेकिन नई जटिलताएं भी सामने आ गईं क्योंकि लेनदारों के वर्गीकरण के आधार में परिवर्तन हुआ। अधिकांश मकान खरीदने वालों के पास ऋणशोधन संस्था की तकदीर का निर्णय करने के लिए जरूरी विशेषज्ञता की कमी थी। इतना ही नहीं शायद उनमें इतनी क्षमता भी नहीं थी कि वे अन्य वित्तीय लेनदारों के समान कटौती बर्दाश्त कर सकें।
कानून की अपनी सीमाएं हैं, खासकर इन हालात में जहां ऋणशोधन प्रक्रिया मकान दिला पाने में विफल रहती है या कंपनी का नकदीकरण हो जाता है। ऐसे में मकान खरीदने वालों के पास कोई उम्मीद नहीं रह जाती।
इस गतिरोध को दूर करने के लिए कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि आरएससी के लिए एक अलग ऋणशोधन व्यवस्था बनाई जाए ताकि क्षेत्रवार दिक्कतें दूर की जा सकें। परंतु इससे व्यापक बाजार के लिए ऋणशोधन ढांचे में विखंडन होगा। हर क्षेत्र की अलग-अलग विशेषता को देखते हुए इससे विशेष ऋणशोधन ढांचों का विकास हो सकता है। यह बात इस कानून के मूल उद्देश्य को प्रभावित करेगी जो है व्यापक अर्थव्यवस्था में संसाधनों का किफायती और प्रभावी आवंटन
कर सकें।
अधिक प्रभावी हल होगा ऐसा ढांचा अपनाना जहां ग्राहकों के हितों को अन्य हितों से अधिक प्राथमिकता दी जा सके। इससे यह सुनिश्चित होगा कि मकानों के ग्राहकों समेत तमाम ग्राहकों के आर्थिक अधिकारों को सांविधिक संरक्षण मिल सके, बजाय कि उन्हें वाणिज्यिक ऋणशोधन निस्तारण की जटिलताओं में उलझाने के।
विभिन्न क्षेत्रों में ग्राहकों के हितों की रक्षा करके यह व्यवस्था न केवल संसाधनों के किफायती आवंटन को अर्थव्यवस्था में रखेगी बल्कि एकीकृत ऋणशोधन ढांचे को भी बरकरार रखेगी।
(लेखक क्रमश: विधि पेशेवर एवं राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, दिल्ली में सहायक प्राध्यापक हैं)