नवंबर के पहले सप्ताह में अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने अपनी मानक ब्याज दर में 25 आधार अंकों की कमी करके उसे 4.5 से 4.75 फीसदी कर दिया जो मार्च 2023 के बाद का न्यूनतम स्तर है। फेड की नीतिगत समिति ने सर्वसम्मति से मौजूदा चक्र में लगातार दूसरी बार कटौती की। इन दो कटौतियों की बदौलत फेडरल फंड्स की दर में कुल मिलाकर 75 आधार अंकों की कमी आई है।
विश्लेषक कहते हैं कि अगर फेड दिसंबर की बैठक में तथा 2025 में भी दरों में कटौती जारी रखता है तो बड़ा प्रभाव देखने को मिल सकता है। सीईएम फेडवॉच के अनुमानों के मुताबिक दिसंबर में फेड द्वारा दरों में कटौती करने की 60 फीसदी संभावना है। अगर ऐसा होता है तो 4.25 से 4.5 फीसदी के साथ दरें हालिया उच्चतम स्तर से एक फीसदी कम हो जाएंगी। सीईएम फेडवॉच एक टूल है जो 30 दिवसीय फेड फंड वायदा के मूल्य संबंधी आंकड़ों का विश्लेषण करके दरों में बदलाव का अनुमान लगाता है।
नवंबर में उम्मीद के मुताबिक ही बैंक ऑफ इंग्लैंड ने भी दूसरी बार दरें कम करके उन्हें 4.75 फीसदी करने की बात कही। यूरोपीय केंद्रीय बैंक (ईसीबी) ने इस साल ब्याज दरें तीन बार कम कीं और ऋण दर को 3.25 फीसदी कर दिया। माना जा रहा है कि वह दिसंबर में एक बार फिर 25 आधार अंकों की कमी के बाद अगले वर्ष फिर कटौती करेगा। विश्लेषकों का मानना है कि ईसीबी की अहम जमा दर को 2025 के मध्य तक कम करके दो फीसदी कर दिया जाएगा। दरों में पिछली कटौती अक्टूबर में हुई थी और वह 13 साल में पहला मौका था जब लगातार कटौती की गई थी।
रिजर्व बैंक ने अक्टूबर की अपनी नीति में मुद्रास्फीति से निपटने का निर्णय किया जो खाद्य कीमतों के कारण बढ़ी हुई थी। उसने फेड का अनुसरण नहीं किया। गत शुक्रवार को दूसरी तिमाही के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े जारी होने तक देश में मुद्रास्फीति की वृद्धि का गणित दरों में कटौती के अनुकूल नहीं था। परंतु दूसरी तिमाही में 5.4 फीसदी की जीडीपी ने हालात को बदल दिया। यह दर 6.5 फीसदी के अनुमान से काफी कम थी। यह सात तिमाहियों में सबसे कम दर है और पिछली तिमाही के 6.7 फीसदी के अनुमान से नीचे है।
सकल मूल्यवर्धन (जीवीए) भी दूसरी तिमाही में 5.6 फीसदी के साथ काफी कम रहा जबकि इसके 6.3 फीसदी रहने का अनुमान था। वृद्धि-मुद्रास्फीति के गणित में संतुलन अचानक वृद्धि के समर्थन की दिशा में झुक गया है। यानी आरबीआई को दरों में कटौती करनी चाहिए। यह इतना आसान नहीं है। वृद्धि में उल्लेखनीय धीमापन आया है लेकिन मुद्रास्फीति अभी भी काफी अधिक है। यह रिजर्व बैंक के लचीले लक्ष्य से ऊपर है और डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर हो रहा है।
सैद्धांतिक रूप से जब फेड दरें बढ़ाता है तो रिजर्व बैंक पर यह दबाव होगा कि वह भी ऐसा करे। परंतु जब वह दरें कम करता है तो भारतीय केंद्रीय बैंक को ऐसा करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि फेड द्वारा दरों में कटौती फेड और आरबीआई के ब्याज दर अंतर को बढ़ा देती है। परंतु डॉलर के समक्ष रुपये में कमजोरी के बीच वृद्धि में धीमापन और उच्च मुद्रास्फीति ने रिजर्व बैंक के लिए नीतिगत कठिनाई पैदा की है।
अक्टूबर में रिजर्व बैंक की नवगठित मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने रीपो दर को 6.5 फीसदी पर अपरिवर्तित रखा लेकिन उसने समायोजन को समाप्त करने की जगह ‘तटस्थ’ रुख अपनाया।
इससे यह संकेत मिला कि केंद्रीय बैंक नीतिगत रुख में बदलाव ला रहा है। या फिर हमें ऐसा लगा। परंतु बाद में रिजर्व बैंक गवर्नर शक्तिकांत दास ने स्पष्ट किया कि कुछ नहीं बदला है और तटस्थ रुख का कुछ खास अर्थ नहीं है। वह वृद्धि को लेकर भी आशान्वित रहे।
अक्टूबर की बैठक के पहले देश की खुदरा मुद्रास्फीति कम होकर जुलाई में 3.6 फीसदी और अगस्त में 3.65 फीसदी रही जो रिजर्व बैंक के मुद्रास्फीति के चार फीसदी के लक्ष्य (दो फीसदी इधर या उधर) से कम था।
तब से मुद्रास्फीति का दायरा बदल गया है। मुद्रास्फीति में इजाफे की उम्मीद थी लेकिन अक्टूबर में यह जिस तेजी से बढ़ी वह अनुमान से परे था। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति साल दर साल आधार पर 6.21 फीसदी के साथ 14 महीनों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। सितंबर में यह 5.49 फीसदी थी। खाद्य मुद्रास्फीति भी सितंबर के 9.2 फीसदी से बढ़कर 10.9 फीसदी हो गई जो 15 महीनों का उच्चतम स्तर था। वहीं गैर खाद्य-गैर तेल मुद्रास्फीति भी सितंबर के 3.6 फीसदी से बढ़कर 3.8 फीसदी हो गई जो 11 महीने का उच्चतम स्तर था।
अक्टूबर की नीति में रिजर्व बैंक ने दिसंबर तिमाही में 4.8 फीसदी की मुद्रास्फीति का अनुमान जताया था। मार्च तिमाही में इसके 4.2 फीसदी और पूरे वित्त वर्ष में 4.5 फीसदी रहने की बात कही गई थी। यकीनन खाद्य कीमतों में कमी के चलते खुदरा मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति मार्च तिमाही में पांच फीसदी से नीचे आ जाएगी। परंतु दिसंबर तिमाही में यह 5.5 फीसदी से छह फीसदी के बीच रह सकती है। पूरे वर्ष के लिए यह 4.7 फीसदी से 4.9 फीसदी के बीच रह सकती है यानी रिजर्व बैंक के अनुमानों से अधिक।
उसी नीति में रिजर्व बैंक ने कहा कि देश की वृद्धि गाथा बरकरार रही क्योंकि खपत और निवेश मांग के रूप में उसके बुनियादी कारक गति पकड़ते रहे। उसने पाया कि निजी खपत की संभावनाएं बेहतर हैं क्योंकि बेहतर कृषि के कारण ग्रामीण मांग में बेहतरी देखने को मिल सकती है। चुनाव के बाद केंद्र और राज्य सरकारों के व्यय में भी सुधार होने की उम्मीद थी।
उसने 2024-25 में वास्तविक जीडीपी वृद्धि 7.2 फीसदी रहने का अनुमान जताया है। सितंबर तिमाही में इसके 7 फीसदी और दिसंबर और मार्च तिमाही में इसके 7.4 फीसदी रहने का अनुमान है। वित्त वर्ष 2025-26 की जून तिमाही के लिए वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 7.3 फीसदी रहने की बात कही गई है।
अगर केंद्रीय बैंक दरों में कटौती करता है तो वृद्धि के मोर्चे पर जोखिम होगा जो अनावश्यक होगा। खासतौर पर तब जबकि आने वाली तिमाहियों में वृद्धि में इजाफा नजर आएगा। इसके अलावा मुद्रास्फीति भी काफी ऊंची है। क्या उसे नकद आरक्षित अनुपात यानी सीआरआर में कटौती करनी चाहिए? व्यवस्था में नकदी की स्थिति तंग है। रिजर्व बैंक स्थानीय मुद्रा में तेज गिरावट को थामने के लिए डॉलर की बिक्री कर रहा है। वह जितने डॉलर बेचता है उतने ही मूल्य का रुपया व्यवस्था से बाहर जाता है। इसके अलावा बिना नकदी की स्थिति में सुधार के दरों में कटौती का कोई तुक नहीं बनता क्योंकि यह बैंकों के लिए नुकसानदायक होगा।
आरबीआई अगर इस तिहरी दुविधा की स्थिति का प्रबंधन करना है तो उसे खुले बाजार की गतिविधियों का चयन करना चाहिए और बैंकों से चरणबद्ध तरीके से सरकारी बॉन्ड खरीदने चाहिए ताकि नकदी की स्थिति बहाल हो सके। वह फरवरी में होने वाली बैठक में दरों में कटौती भी कर सकता है क्योंकि उस समय तक मुद्रास्फीति में धीमापन आना शुरू हो जाएगा। जीडीपी वृद्धि में तेज गिरावट के बावजूद लगता नहीं कि शुक्रवार को रिजर्व बैंक दरों में कटौती करेगा। बाजार भी रिजर्व बैंक के कदमों से अधिक उसके संवाद पर नजर रखेगा। कोविड महामारी की अवधि को छोड़ दिया जाए तो यह शक्तिकांत दास के लिए सबसे कठिन नीति है। उनका मौजूदा कार्यकाल नीतिगत घोषणा के एक सप्ताह के भीतर समाप्त हो जाएगा।