भारत की आर्थिक महत्त्वाकांक्षा बहुत साहसिक है और सही भी है। इस समय 4 ट्रिलियन डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था को 2047 तक 30 ट्रिलियन डॉलर पर पहुंचाने के लिए पूंजी और व्यापक विस्तार ही जरूरी नहीं हैं। इसके लिए भारतीय उत्पादों एवं इनकी गुणवत्ता में विश्वास होना भी उतना ही जरूरी है। इसलिए गुणवत्ता की अहमियत को प्रमुख ढांचा माना जाना चाहिए। विभिन्न उत्पाद श्रेणियों में गुणवत्ता नियंत्रण आदेशों (क्यूसीओ) का विस्तार करने का भारत सरकार का निर्णय इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है और इसके कई परिणाम भी सामने आ सकते हैं।
सरकार के इस कदम के बावजूद क्यूसीओ व्यवस्था विवादों में घिरी है। गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए और बाजार में घटिया वस्तुओं का प्रवेश रोकने के लिए शुरू की गई यह रणनीति दोधारी तलवार मानी जाती है। कुछ लोग इसका स्वागत करते हैं तो कुछ इसका विरोध करते हैं। सरकार के विभिन्न विभागों के भीतर भी इसकी आलोचना की जाती है। मैंने भारतीय गुणवत्ता परिषद (क्यूसीआई) के अंतर्गत राष्ट्रीय प्रमाणन निकाय प्रत्यायन बोर्ड (एनएबीसीबी) के अध्यक्ष के रूप में काम किया है। इस नाते मैं यह कह सकता हूं कि अगर सही योजना के साथ आगे बढ़ा जाए तो गुणवत्ता ढांचा उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं को ताकतवर बना सकता है।
क्यूसीओ सही मायने में बड़े बदलाव ला सकते हैं मगर इसके लिए भारत को अपनी दिशा बदलनी होगी। इसका मतलब कदम पीछे खींचना नहीं बल्कि इस अभियान को पूरी साफगोई, क्षमता एवं वैश्विक मानदंडों के हिसाब से नया रूप देना है। भारत का गुणवत्ता नियंत्रण ढांचा मोटे तौर पर भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) के माध्यम से संचालित होता है और यह स्वैच्छिक रहा है। किंतु हाल के वर्षों में सरकार इस्पात, पॉलिमर, इलेक्ट्रॉनिक्स और खिलौने जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को भी इसके दायरे में ले आई है।
इस समय लगभग 23,000 बीआईएस मानकों में केवल 187 क्यूसीओ अधिसूचित किए गए हैं जिनके तहत 769 उत्पाद आते हैं। इसका अर्थ है कि रफ्तार बढ़ रही है मगर सफर पूरा होने में बहुत समय लगेगा। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्यूसीओ केवल प्रशासनिक अधिसूचनाएं नहीं हैं बल्कि कानूनी जरिया हैं, जिनके अंतर्गत देश7विदेश के विनिर्माताओं को अपने उत्पादों का बीआईएस प्रमाणन कराना होता है। ऐसा नहीं करने पर माल जब्त हो सकता है, जुर्माना लग सकता है या आयात रोका जा सकता है। मगर क्यूसीओ के क्रियान्वयन में कई खामियां दिखी हैं, जिनका जिक्र नीचे है।
देसी उद्योग में मतभेद: इस्पात और पेट्रोकेमिकल जैसी मध्यवर्ती वस्तु के उत्पादक क्यूसीओ का स्वागत करते हैं क्योंकि इनके कारण घटिया उत्पाद बाजार में नहीं आ पाते। इन उत्पादों का इस्तेमाल करने वालों जैसे वाहन एवं उपकरण विनिर्माताओं को इस कारण कीमत बढ़ने और आपूर्ति अटकने की आशंका रहती है।
अंतरराष्ट्रीय प्रतिरोधः अमेरिका, यूरोपीय संघ और यूरोपीय मुक्त व्यापार संघ (ईएफटीए) जैसे बड़े व्यापारिक साझेदारों ने अपनी व्यापार बाधा रिपोर्ट में भारत की क्यूसीओ प्रणाली का जिक्र किया है। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि (यूएसटीआर) पॉलिएथिलीन क्यूसीओ पर चिंता जता रहा है और अमेरिका ने भारत से बीआईएस मानकों के बजाय अंतरराष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के प्रमाणन या स्व-घोषणाओं को मान्यता देने का आग्रह किया है।
सरकार के भीतर मतभेदः वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों ने भी औद्योगिक कच्चे माल पर क्यूसीओ लागू करने की बात पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाए हैं। इससे औद्योगिक कच्चे माल पर क्यूसीओ का क्रियान्वयन टल गया या अटक गया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि क्यूसीओ से घटिया उत्पादों की आवक कम हो जाती है और उन देशों से तो कम हो ही जाती है, जो डंपिंग के लिए बदनाम हैं। लेकिन यही नजरिया लागू हो गया तो भारतीय विनिर्माता पूरे आत्मविश्वास के साथ वैश्विक बाजारों तक नहीं पहुंच पाएंगे।
गुणवत्ता सुनिश्चित करने की भारत की लालसा कोई नई बात नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2014 को भारतीय उद्योग जगत से ‘जीरो डिफेक्ट, जीरो इफेक्ट’ यानी दोषरहित एवं पर्यावरण के अनुकूल विनिर्माण का आग्रह किया था। मगर क्या हम ऐसा कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब इस बात में छिपा है कि क्या क्यूसीओ को मदद और सहारा देकर लागू किया जा रहा है या जोर-जबरदस्ती और जुर्माने से।
क्यूसीओ प्रक्रिया में बड़ी चिंता अनुपालन जांचने की भी है। अभी यह काम बीआईएस के ही जिम्मे है, जिसके पास काम का बहुत बोझ है, जिससे प्रक्रिया पूरी करने में बहुत समय लग जाता है और देसी-विदेशी आवेदक अटक जाते हैं। इसका एक व्यावहारिक विकल्प है। भारत में एनएबीसीबी से मान्यता प्राप्त प्रमाणन इकाइयों की कमी नहीं है। अनुपालन की समीक्षा करने वाली इन इकाइयों को कम जोखिम वाले उत्पादों की जांच सौंपने पर बीआईएस का बोझ काफी कम हो जाएगा और समय भी घट जाएगा। इससे एमएसएमई के लिए लागत भी घट सकती है। कुल मिलाकर कारोबारी सुगमता का अनुभव काफी अच्छा हो जाएगा।
विकसित देश विदेशी प्रयोगशालाओं के नतीजे स्वीकार नहीं करने पर भारत का विरोध कर रहे हैं मगर ये देश खुद भी भारतीय प्रमाणन को मानने से इनकार कर देते हैं। इस पर खुद पांव खींचने के बजाय भारत को द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय व्यापार वार्ता के जरिये क्षेत्र आधारित परस्पर स्वीकृत समझौतों (एमआरए) पर जोर देना चाहिए। इससे हम वैश्विक मूल्य श्रृंखला के साथ पूरी तरह जुड़ने के और करीब पहुंच जाएंगे।
क्यूसीओ योजना को नए सिरे से शुरू करने के लिए तीन लक्ष्य ध्यान में रखने चाहिए। पहला, निर्यात को बढ़ावा देना। वैश्विक मानकों (इंटरनैशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर स्टैंडर्डाइजेशन यानी आईएसओ और कॉन्फॉर्मिटी यूरोपीन यानी सीई) के अनुरूप प्रमाणन को प्रोत्साहन दिया जाए, जिससे भारतीय उत्पाद दुनिया भर में दूसरे देशों के उत्पादों को टक्कर दे पाएंगी। दूसरा, भारतीय बाजारों में चीन और दूसरे देशों से सस्ते और खराब माल की भारी मात्रा में आवक रोकना। जिन क्षेत्रों में यह अधिक होता है उनमें क्यूसीओ लागू किए जा सकते हैं। तीसरा लक्ष्य उपभोक्ता सुरक्षा से जुड़ा है। गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए लोगों को सीधे प्रभावित करने वाली वस्तुओं के मामले में कड़े नियम-कायदे लागू किए जा सकते हैं।
साथ ही एक लाठी से हांकने का बजाय हर उत्पाद के लिए अलग तरीका होना चाहिए। हर क्षेत्र के लिए अलग समय सारणी, मानक और मदद की जरूरत पड़ती है। विनिर्माण के लिहाज से ताकतवर देश के रूप में भारत का भविष्य इस बात पर टिका हुआ है कि दुनिया हमारे उत्पादों की गुणवत्ता को किस तरह देखती है। क्यूसीओ न केवल नियामक हैं बल्कि वे हमारे इरादे के प्रतीक भी माने जाते हैं। मगर उनकी सफलता के लिए उनमें पैनापन होना, समावेशी रहना और बदलती दुनिया के हिसाब से ढलना भी जरूरी है।
हम गुणवत्ता का सफर रोक नहीं सकते मगर आंख मूंदकर बढ़ भी नहीं सकते। क्यूसीओ दूरदर्शिता के साथ लागू किए जाएं तो वे ‘ब्रांड इंडिया’ की बुनियाद तैयार कर सकते हैं। निर्यात प्रोत्साहन, आयात सुरक्षा और उपभोक्ता संरक्षण व्यापारिक सौदे नहीं बल्कि वे भारत को वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में
इसकी सही जगह तक पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
(लेखक भारतीय गुणवत्ता परिषद के अंतर्गत आने वाले एनएबीसीबी के चेयरमैन रह चुके हैं)