वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले महीने भारतीय बैंकिंग संघ (आईबीए) की सालाना आम बैठक में कहा था कि भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की तरह देश को कुछ और बड़े बैंकों की जरूरत है। वित्त मंत्री ने कहा था कि महामारी के बाद देश के समक्ष कई नई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं और इनसे निपटने के लिए कुछ बड़े बैंकों की आवश्यकता है। बैंक एकीकरण का उद्देश्य भी यही था। बैंक एकीकरण के बाद 2017 से 2020 के बीच देश में बड़े बैंकों की संख्या 27 से कम होकर 12 रह गई है। हालांकि इस कवायद के बाद भी दुनिया के 50 शीर्ष बैंकों की सूची में भारत से केवल एसबीआई का नाम शामिल है।
इस वर्ष फरवरी में बजट भाषण के दौरान वित्त मंत्री ने कहा था कि आईडीबीआई बैंक के अलावा 2021-22 में दो अन्य सरकारी बैंकों और एक सामान्य जीवन बीमा कंपनी के निजीकरण का प्रस्ताव है। उनके इस बयान के बाद बैंकों के निजीकरण पर भी बहस तेज हो गई है।
भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) ने 2019 में आईडीबीआई बैंक में 51 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी थी। बैंक की पूंजी बढऩे के बाद अब एलआईसी की हिस्सेदारी कम होकर 49.24 प्रतिशत रह गई है। बैंक में सरकार की 45.48 प्रतिशत हिस्सेदारी है। एलआईसी पर सरकार का पूर्ण स्वामित्व है मगर आईडीबीआई बैंक एक निजी बैंक है और इसका संचालन कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत होता है। एलआईसी जरूरत पडऩे पर पांच वर्षों के लिए पूंजी डालने के लिए राजी हुई है और 12 वर्षों में अपनी हिस्सेदारी घटाकर 40 प्रतिशत तक करने की बात कही है। हालांकि बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीए) के दिशानिर्देशों के अनुसार एलआईसी बैंक में अपनी हिस्सेदारी 15 प्रतिशत से नीचे करेगी और निर्धारित समय से पहले ही प्रबंधन छोड़ देगी। जम्मू ऐंड कश्मीर बैंक लिमिटेड में सरकार का 75 प्रतिशत नियंत्रण है मगर यह निजी क्षेत्र का बैंक कहलाता है। इसी तरह, इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक लिमिटेड पर सरकार का पूर्ण स्वामित्व है लेकिन कंपनी अधिनियम के तहत यह एक निजी बैंक है। द नैनीताल बैंक लिमिटेड में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ऑफ बड़ौदा की 98 प्रतिशत हिस्सेदारी है मगर यह भी एक निजी बैंक है।
बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अधिग्रहण एवं हस्तांतरण) अधिनियम, 1970 के अनुसार सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के किसी बैंक में अपनी हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से नीचे लाने की जरूरत नहीं है। स्टेट बैंक का नियमन एक अलग अधिनियम के तहत होता है। इसमें सरकार की हिस्सेदारी इस समय 56.92 प्रतिशत है। 11 सार्वजनिक बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी 97.70 प्रतिशत से 62.93 प्रतिशत के बीच है। पांच बैंकों में यह कम से कम 90 प्रतिशत है। निजीकरण प्रक्रिया विनिवेश से काफी अलग है। विनिवेश में सरकार के लिए अपनी हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम करना जरूरी नहीं है। सरकार निजीकरण पर इसलिए जोर दे रही है ताकि सार्वजनिक रकम का इस्तेमाल बैंकों का अस्तित्व बचाए रखने के लिए नहीं हो। सन 1994 से अब तक सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 4.51 लाख करोड़ रुपये डाल चुकी है। निजीकरण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम में संशोधन जरूरी है और तभी सरकार की हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम हो सकती है। कुछ दूसरे बदलाव किए जाने की भी जरूरत है। सार्वजनिक क्षेत्र के किसी बैंक में प्रबंध निदेशक एवं मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ), पूर्णकालिक निदेशक एवं गैर-कार्यकारी चेयरमैन नियुक्त करने का अधिकार पूर्ण रूप से सरकार के पास है। सरकार के पास किसी बैंक का परिचालन बंद करने का भी अधिकार है और सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के बीच विलय एवं अधिग्रहण के लिए इसकी अनुमति जरूरी है।
बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम के अनुच्छेद 8 के तहत सरकार भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से परामर्श के बाद सार्वजनिक हित में बैंकों को निर्देश जारी कर सकती है। मगर वित्त मंत्रालय के अधीनस्थ वित्तीय सेवा विभाग बैंकिंग नियामक को विश्वास में लिए बिना अक्सर निर्देश जारी करता रहता है। संक्षेप में कहें तो सरकार सार्वजनिक बैंकों को अपने मन माफिक ढंग से चलाती है। सरकार के पास सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के मालिकाना हक और नियामकीय अधिकार दोनों मौजूद हैं। क्या सरकार अपने सारे अधिकार छोडऩे के लिए तैयार है? केवल हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से कम करने से संभावित बोलीदाता आगे नहीं आएंगे। वे तभी रुचि लेंगे जब संचालन नियमों में बदलाव होंगे। बात नियंत्रण की नहीं बल्कि नियंत्रणकर्ता के व्यवहार से संबंधित है।
फिलहाल संशोधन के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं मगर समाचार माध्यमों में चल रही खबरों के अनुसार सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बोलीदाताओं को कसौटी पर कसने के वास्ते एक ढांचा तैयार करने के लिए आरबीआई से बातचीत कर रही है। संभावित बोलीदाताओं को आरबीआई के निर्धारित मानदंडों का पालन करना होगा। आम तौर पर सार्वजनिक संपत्ति की बिक्री सबसे अधिक बोली लगाने वाली इकाई को की जाती है मगर बैंकिंग कारोबार के लाइसेंस के लिए बोलीदाताओं की साख एवं उनका पिछला प्रदर्शन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण में कितना समय लगेगा? यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार अपना संपूर्ण नियंत्रण समाप्त करने के लिए मानसिक रूप से तैयार होने में कितना समय लेती है। क्या ऐसे बैंकों की पहचान की जा चुकी है? विलय के बाद जिन बैंकों का आकार बढ़ चुका है उनका निजीकरण संभवत: नहीं होगा। बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया और महाराष्ट्र में सेंट्रल बैंक, पश्चिम बंगाल में यूको बैंक, चेन्नई में इंडियन ओवरसीज बैंक और दिल्ली में पंजाब एवं सिंध बैंक इस सूची में शामिल हो सकते हैं जिनका निजीकरण हो सकता है।
विनिवेश या एकीकरण की तुलना में निजीकरण कहीं अधिक कठिन है। विनिवेश या एकीकरण से बैंकों की संख्या जरूर कम हो गई है लेकिन सरकार का नियंत्रण कमजोर नहीं हुआ है।