मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के उस परिपत्र पर रोक लगा दी है जो निर्वाचित प्रतिनिधियों की शहरी सहकारी बैंकों (यूसीबी) के बोर्ड में नियुक्ति को रोकता है। उसके इस कदम के बाद इन बैंकों के बेहतर संचालन की दिशा में होने वाली प्रगति में देरी हो सकती है। इससे पहले गुजरात उच्च न्यायालय ने उक्त प्रावधानों को खारिज करने का आदेश दिया था जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा।
रिजर्व बैंक ने इस वर्ष 25 जून को कहा था कि संसद सदस्य, राज्य विधानसभा के सदस्य, नगर निकायों, नगर निगम के सदस्य या अन्य स्थानीय निकाय सदस्य शहरी सहकारी बैंकों में पूर्णकालिक निदेशक नहीं बन सकते। ऐसा इन बैंकों के कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप तथा संचालन मानकों के संभावित दुरुपयोग को दूर करने के लिए किया गया था क्योंकि बैंक इनकी भारी कीमत चुकाते रहे हैं। पिछले दिनों सुर्खियों में रहा पंजाब ऐंड महाराष्ट्र अर्बन कोऑपरेटिव बैंक का मामला इसका उदाहरण है।
हाल के वर्षों में केंद्रीय बैंक यह प्रयास करता रहा है कि विनियमित संस्थानों में हर प्रकार की नियामकीय मनमानी को कम से कम किया जा सके। 29 सितंबर, 2020 को अधिसूचित बैंकिंग नियमन (बीआर) अधिनियम के संशोधन का उद्देेश्य था बैंकिंग नियामक को और अधिक सशक्त बनाना ताकि वह यूसीबी की बेहतर निगरानी कर सके। उदाहरण के लिए आरबीआई ने कहा है कि कोई भी व्यक्ति जो किसी अन्य कारोबार या पेशे में हो, किसी कंपनी (गैर लाभकारी को छोड़कर) का निदेशक हो, किसी ऐसी फर्म में निदेशक हो जो व्यापार, कारोबार या उद्योग क्षेत्र में हो, किसी कंपनी में महत्त्वपूर्ण हिस्सेदार हो या किसी वाणिज्यिक या औद्योगिक या व्यापारिक संस्थान में निदेशक, प्रबंधक, प्रबंधन एजेंट, साझेदार या प्रोपराइटर के रूप में काम करता हो, वह यूसीबी के बोर्ड में शामिल नहीं हो सकेगा। इसमें नया कुछ नहीं है तथा यह बैंकिग नियमन अधिनियम (1949) का हिस्सा है। इसके अलावा पद पर रहते हुए ऐसे किसी पूर्णकालिक निदेशक की आयु 35 वर्ष से कम और 70 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए। जहां तक प्रबंध निदेशकों और पूर्णकालिक निदेशकों के कार्यकाल की बात है तो वे यूसीबी में 15 वर्ष से अधिक समय पद पर नहीं रह सकते। ऐसा निजी बैंकों के साथ समरूपता लाने के लिए किया गया।
यह याद करना उचित होगा कि यूसीबी को लेकर विशेषज्ञ समिति की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि इन बैंकों की एक बड़ी चिंता खराब संचालन की है। हालिया बदलाव के पहले आरबीआई के पास बोर्ड की बनावट और कार्यकारी नियुक्तियों में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं था। अब जबकि इस क्षेत्र में वाणिज्यिक बैंकों के साथ समरूपता स्थापित हो गई है तो किसी भी नियामकीय प्राधिकार के लिए अनुपालन अनिवार्य होना चाहिए। खासकर बड़े यूसीबी के मामलों में। ऐसे में विशेष तौर पर तैयार प्रशिक्षण कार्यक्रमों की मदद से बोर्ड सदस्यों को कौशल संपन्न बनाया जाना चाहिए।
केंद्र और कुछ राज्य सरकारों के बीच हाल के दिनों के नाजुक रिश्तों को देखते हुए यह तय था कि नए संचालन मानक और मतभेद पैदा करेंगे। राज्यों का कहना है कि आरबीआई के कुछ कदम राज्य सहकारी समिति अधिनियम के प्रावधानों के साथ विरोधाभासी हैं और आरबीआई को शेयर पूंजी जारी करने और रिफंड, निदेशकों की नियुक्ति और उन्हें अयोग्य घोषित करना, प्रबंधन बोर्ड का विधान, सीईओ की नियुक्ति और अंकेक्षण आदि को लेकर प्रदत्त अधिकारों की प्रकृति अतिरंजित है। संभव है कि आने वाले दिनों में ऐसी और याचिकाएं दायर की जाएं। इसका प्रभाव यह होगा कि ऐसे समय में देरी होगी जबकि डिजिटल बैंकिंग के आगमन के बाद नीतियों को नए सिरे से तैयार करने की आवश्यकता है। बैंकों में नई पूंजी डालने की आवश्यकता तो है ही।