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सियासी हलचल: महिला मतदाताओं की बढ़ती अहमियत

आम आदमी पार्टी (आप) ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए बड़ा अभियान शुरू किया और दिल्ली में सार्वजनिक स्थानों पर ज्यादा रोशनी की बात कही।

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आदिति फडणीस   
Last Updated- January 03, 2025 | 9:40 PM IST

पहली नजर में तो यह चुनाव जीतने का नया और शानदार सियासी नुस्खा नजर आता है। महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए नकद बांटो, परिवहन मुफ्त कर दो और सार्वजनिक स्थानों तथा परिवारों के भीतर सुरक्षा पक्की कर दो… बस, वोटों की झड़ी लग जाएगी। यहां बुनियादी सोच यह है कि महिला मतदाता अब परिवार के पुरुषों के कहने पर वोट नहीं देतीं। अब वे अपनी समझ से काम करती हैं और रोजगार, आर्थिक आजादी, परिवार के कल्याण तथा अपने अरमानों को ध्यान में रखकर ही वोट देती हैं।

इसके सबूत भी हैं, जिन्हें अनदेखा करना मुश्किल है। बिहार में नीतीश कुमार को पिछले कई सालों से महिलाओं खास तौर पर निम्न आय वर्ग की महिलाओं के खूब वोट मिले हैं। 2005-06 में उन्होंने लड़कियों को मुफ्त साइकल देने की योजना शुरू की, जिसने चुनाव में उन्हें खूब सफलता दिलाई। उनकी सरकार ने 2006 में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दे दिया।

अभी इस पर बहस चल रही है कि इससे महिलाओं को कितनी ताकत मिली क्योंकि कई जगह महिलाओं की जगह पुरुषों द्वारा फैसले लिए जाने की बात सामने आई है। परंतु 2015 में उन्होंने महिलाओं को हिंसा और दरिद्रता से बचाने के लिए शराबबंदी की जो घोषणा की, उसके कारण चुनाव में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं वोट देने पहुंच गईं।

दूसरी पार्टियां भी जल्दी समझ गईं कि महिलाएं भारी वोट बैंक हैं और उन्होंने भी इस वोट बैंक को लुभाना शुरू कर दिया। उज्ज्वला योजना देश भर की महिलाओं तक पहुंचने की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की कोशिश थी। आम आदमी पार्टी (आप) ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए बड़ा अभियान शुरू किया और दिल्ली में सार्वजनिक स्थानों पर ज्यादा रोशनी की बात कही।

सभी आय वर्गों की महिलाओं को नकद देने की ममता बनर्जी की 2002 की घोषणा सत्ता में उनकी वापसी का अहम कारण हो सकती है। कांग्रेस ने 2022 में हिमाचल प्रदेश और 2023 में कर्नाटक में विधानसभा चुनावों से पहले महिलाओं को नकद राशि देने का वादा किया। भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकारें भी पीछे नहीं रहीं। मध्य प्रदेश सरकार की लाड़ली बहना, महाराष्ट्र सरकार की लाड़की बहन और हरियाणा सरकार की लाडो लक्ष्मी योजना के पीछे एक ही विचार था – महिलाओं को सीधे नकद भेजना। इस समय देश के 10 राज्य महिलाओं को नकद राशि दे रहे हैं और दिल्ली, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, केरल एवं पंजाब जैसे राज्यों में महिलाएं सरकारी बसों में मुफ्त सफर कर सकती हैं।

तमिलनाडु सरकार को एक अध्ययन में पता चला कि इस कदम से महिलाओं के पास खर्च करने लायक आय बढ़ती है, श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ती है, आने-जाने के लिए परिजनों पर निर्भरता कम होती है और उन्हें आजादी का भान होता है। जाहिर है, इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है।

गोल्डमैन सैक्स रिसर्च के अनुसार 2024-25 में राज्यों को अपने बजट में 18 अरब डॉलर इन योजनाओं के लिए रखने पड़े, जो इस वित्त वर्ष में भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 0.5 फीसदी के बराबर थे। जब आप 2019 से 2021 के बीच कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) – 5 के आंकड़े इसमें शामिल करते हैं तो यह समझना मुश्किल नहीं रह जाता कि महिलाओं को स्वतंत्र मतदाता वर्ग क्यों माना जा रहा है या क्यों माना जाना चाहिए।

सर्वेक्षण कहता है कि 79 फीसदी महिलाओं के पास अपना बैंक या बचत खाता है, जिसका इस्तेमाल भी वे स्वयं ही करती हैं। 2015-16 के एनएफएचएस – 4 में यह आंकड़ा 53 फीसदी ही था। अपनी कमाई के बारे में फैसले लेने में महिलाओं की भागीदारी भी चौथे सर्वेक्षण से पांचवें सर्वेक्षण के बीच 82 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गई। 54 फीसदी महिलाओं के पास अपना मोबाइल फोन है और उनमें से 71 फीसदी महिलाएं उस पर आया टेक्स्ट मैसेज खुद पढ़ सकती हैं। कहानी का दूसरा पहलू यह है कि आखिर पैसा जा कहां रहा है?

असम के सूक्ष्म ऋण संकट का उदाहरण लेते हैं। एक समय यह महिलाओं को सशक्त बनाने का सबसे बड़ा उपाय था। निम्न आय वर्ग के उन लोगों को बिना किसी रेहन के छोटे कर्ज दिए जाते थे, जिन्हें आम माध्यमों से कर्ज नहीं मिल पाता था। हजारों महिलाओं ने समूह बनाकर जब ये कर्ज लिए तो इनका दायरा बहुत बढ़ गया मगर जब कुछ सदस्य कर्ज चुका नहीं पाए तो उनकी चूक ने संकट खड़ा कर दिया और राजनीतिक मुद्दा बन गया।

2021 के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने महिलाओं का बकाया सूक्ष्म ऋण पूरी तरह माफ करने का वादा किया। भाजपा ने कर्ज चुकाने की अवधि बढ़ाने और ब्याज माफ करने जैसे वादे किए। दिसंबर में मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने असम सूक्ष्म ऋण प्रोत्साहन और राहत योजना के तहत करीब 5,000 महिलाओं के कर्ज माफ कर दिए। उन्होंने महिलाओं को सूक्ष्म ऋण लेने से बिल्कुल मना कर दिया है। भारत में करीब 10 करोड़ महिला स्वयं सहायता समूह हैं।

असम का अनुभव हमें बताता है कि महिलाओं को मुफ्त पैसे देना ही पर्याप्त नहीं है। सांस्कृतिक और सामाजिक कारणों तथा कम वित्तीय साक्षरता के कारण वे इसे सही तरीके से खर्च नहीं कर पातीं। यह दलील अधूरी है कि नकद अंतरण से बिचौलियों का काम खत्म हो जाती है, खुदमुख्तारी का अहसास बढ़ता है और खपत बढ़ने से वृद्धि को रफ्तार मिल सकती है। असम का सूक्ष्म ऋण संकट और इससे पहले आंध्र प्रदेश में ऐसा ही संकट काली और त्रासद हकीकत सामने लाता है।

परंतु इस बीच महिलाओं को सियासी अहमियत वाला मतदाता वर्ग मानने का विचार साकार हो रहा है। यह भारत को कुछ इस तरह बदल रहा है कि हमें ठीक से समझ नहीं आ रहा।

First Published : January 3, 2025 | 9:40 PM IST