गत सप्ताह राजीव कुमार के इस्तीफा देने के बाद अर्थशास्त्री सुमन बेरी को नीति आयोग का नया उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। किसी संस्थान में ऐसे बदलाव हमेशा इस बात का अच्छा अवसर होते हैं कि वह अपनी स्थिति की समीक्षा करे तथा स्वयं को अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए जरूरी बदलाव लाए। यह बात निजी उपक्रमों और सरकारी विभागों दोनों के लिए सही है। नीति आयोग के मामले में यह बात खासतौर पर प्रासंगिक है क्योंकि यह अभी भी अपेक्षाकृत नया संस्थान है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले के प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस पर अपने पहले भाषण में यह घोषणा की थी कि योजना आयोग को नीति आयोग से प्रतिस्थापित किया जाएगा। इसकी स्थापना ने योजना निर्माण के एक युग का अंत किया और भारत पंचवर्षीय योजनाओं से आगे निकला।
विशेषज्ञों के बीच इस बात को लेकर आशंका थी कि यह नया संस्थान जो कि एक सरकारी थिंक टैंक है, क्या हासिल करेगा। सात वर्षों के बाद यह कहना सही होगा कि कई पहलों के साथ इसने सरकारी पारिस्थितिकी में अपनी जगह बना ली है। बहरहाल तेजी से बदलते आर्थिक माहौल में उससे और अधिक काम करने की अपेक्षा है। इसके बुनियादी लक्ष्य, जैसा कि नीति आयोग स्वयं कहता है, ‘राज्यों की सक्रिय सहभागिता के साथ राष्ट्रीय विकास की प्राथमिकताओं, क्षेत्रों और नीतियों को लेकर साझा दृष्टि विकसित करना।’ उससे यह भी अपेक्षा है कि वह इस दृष्टिकोण के साथ सहकारी संघवाद को बढ़ावा देगा कि मजबूत राज्य एक मजबूत राष्ट्र बनाएंगे। उसने इस क्षेत्र में काम किया है और कई नीतिगत दस्तावेज तथा रैंकिंग तैयार की हैं जो प्रतिस्पर्धी संघवाद को बढ़ावा देने में मदद करती है। राज्य यह देख सकते हैं कि वे कहां पिछड़ रहे हैं और अन्य राज्यों की बेहतर बातों को अमल में ला सकते हैं। केंद्र सरकार ने उसकी कई अनुशंसाओं को अपनाया है। उदाहरण के लिए नीति आयोग ने राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन तैयार करने में भी अहम भूमिका निभाई। नए नेतृत्व के अधीन आगे बढ़ते हुए नीति आयोग के लिए बेहतर होगा कि वह कुछ व्यापक क्षेत्रों पर नजर डाले और कुछ ऐसा करे जो उसके अब तक के कामों से अलग हो। भारत ने योजना निर्माण को त्याग दिया है लेकिन उसे मध्यम अवधि के नीतिगत खाके की आवश्यकता है। कोविड के कारण लगे झटके के बाद यह बात ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गई है। महामारी ने देश की उत्पादक क्षमता को जो क्षति पहुंचाई है उसका अहसास होना बहुत जरूरी है। वृद्धि अनुमान से संकेत मिलता है कि आधार प्रभाव के समाप्त होने के साथ भारत महामारी के पहले वाले वृद्धि स्तर पर लौट जाएगा जो हर मानक से कम है। ऐसे में यह जानना अहम है कि मध्यम अवधि में सतत उच्चवृद्धि कैसे हासिल होगी। मध्यम अवधि का नीतिगत विश्लेषण तथा खाका इसमें मददगार होगा। उदाहरण के लिए नीति आयोग 2017 में प्रकाशित तीन वर्षीय योजना एजेंडे को दोबारा शुरू कर सकती है। बल्कि वह वार्षिक तौर पर ऐसे दस्तावेज पर काम कर सकती है और वर्ष भर में हुई प्रगति का आकलन कर सकती है। इससे न केवल नीतियों को लेकर व्यापक दिशा मिलेगी बल्कि बेहतर क्रियान्वयन भी संभव होगा। इतना ही नहीं सहकारी संघवाद की दिशा में भी काफी कुछ करने की आवश्यकता है। इसे ऐसा मंच बनना चाहिए जहां राज्यों के विकास संबंधी सभी मुद्दों पर चर्चा की जाए और उन्हें हल किया जाए। केंद्र में नीति आयोग के साथ राज्यों का निरंतर संवाद जलवायु परिवर्तन के एजेंडे को प्रभावी ढंग से लागू करने में मदद करेगा। उसे अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र को समझने में मदद करनी चाहिए। वैश्विक आर्थिक माहौल तेजी से बदल रहा है और भारत को समुचित प्रतिक्रिया के लिए बेहतर समझ की जरूरत है। भारत अब भले सीमित व्यापार समझौते कर रहा है लेकिन कुल मिलाकर वह वैश्विक स्तर से पीछे है। व्यापक स्तर पर नीति आयोग को उचित नीतिगत हस्तक्षेप में सरकार की मदद करने के लिए और अधिक क्षमता विकसित करनी होगी।
