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नीति नियम: यह बीस साल पहले वाली भाजपा नहीं

20 साल पहले केंद्र का तत्कालीन सत्तारूढ़ दल नए सिरे से बहुमत पाने की उम्मीद के साथ आम चुनाव में उतरा था। उस समय के प्रधानमंत्री वाजपेयी देश के सबसे पसंदीदा राजनेता थे।

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मिहिर एस शर्मा   
Last Updated- February 20, 2024 | 9:26 PM IST

बीस साल पहले केंद्र का तत्कालीन सत्तारूढ़ दल नए सिरे से बहुमत पाने की उम्मीद के साथ आम चुनाव में उतरा था। उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी देश के सबसे पसंदीदा राजनीतिज्ञ थे और विपक्ष का नेतृत्व एक ऐसे नेता के हाथ में था जिसकी काबिलियत के बारे में शायद ही कोई जानता हो। उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी में कोई चुनाव भी नहीं जीता था।

सत्ताधारी दल की राजनीतिक सूझबूझ का कोई जवाब नहीं था, जिसने पिछला लोकसभा चुनाव राष्ट्रवाद की लहरों पर तैरते हुए जीता था। कुलांचे मारती अर्थव्यवस्था के साथ पूरा देश उस समय आशावाद से भरा हुआ था। पहली बार विश्व भर के देश भारत की ओर देख रहे थे। दावोस जैसे शिखर सम्मेलन में भारत की तारीफ की जा रही थी। उस समय भारत एक चमकता सितारा प्रतीत हो रहा था।

लेकिन, हम सब जानते हैं कि वर्ष 2004 में क्या हुआ। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) केंद्र में सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत का आंकड़ा जुटाने में नाकाम रहा। देश के अधिकांश लोग खासकर हमारे जैसे शहरी अवाक् रह गए। आम चुनाव में तत्कालीन सरकार की शिकस्त के बारे में अनेक विश्लेषण छपे और हार के कई कारण भी गिनाए गए।

हालांकि आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे थे कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बहुत कम सहयोगी दल चुनाव में जीत दर्ज कर पाए थे। यद्यपि भाजपा ने मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में सीधी टक्कर में कांग्रेस को पटखनी दी, लेकिन वह बिहार और तमिलनाडु जैसे राज्यों में अपने सहयोगियों की हार की भरपाई नहीं कर पाई।

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी स्वयं यह नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर कमी कहां रह गई, लेकिन एक-दो मौकों पर उन्होंने यह संकेत जरूर दिया कि कुछ सहयोगी दल मानने लगे थे कि भाजपा बहुत अधिक अल्पसंख्यक विरोधी रुख अपना रही है। इसके कारण भाजपा के लिए गठबंधन सहयोगियों को एक सूत्र में बांधे रखना मुश्किल हो गया था। दूसरी ओर, वाजपेयी के निकट सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी का तर्क था कि अति आत्मविश्वास के कारण गठबंधन को हार का मुंह देखना पड़ा और इंडिया शाइनिंग नारे के साथ चुनाव में उतरना बड़ी गलती थी।

इतिहास के उदाहरण और जनमानस की मनोवृत्ति को देखें तो आडवाणी का तर्क कुछ-कुछ सही प्रतीत हो रहा था। जैसा कि हमें अक्सर बताया जाता रहा है कि भारतीय राजनीति में अति आत्मविश्वास सबसे बड़ा पाप है। सवाल उठता है कि क्या भाजपा 2024 के चुनाव को लेकर भी अति आत्मविश्वास में डूबी है? आंतरिक तौर पर पार्टी को इस बात का पूरा भरोसा है कि वह 2019 चुनाव में किए गए अपने रिकॉर्ड प्रदर्शन को बेहतर करने जा रही है। वर्ष 2014 के ऐतिहासिक बहुमत के मद्देनजर 2019 के लोकसभा चुनाव नतीजे भाजपा के लिए चकित कर देने वाले थे। लगातार तीन चुनावों में चमत्कार करना बहुत बड़ी बात होती है।

हम यह कभी भी निश्चित तौर पर नहीं जान सकते कि भारतीय मतदाता किस तरह अपने मताधिकार का इस्तेमाल करते हैं। भारत बहुत ही विविधता वाला देश है, जिसके बारे में कोई भी अनुमान लगा पाना आसान नहीं होता। आज माहौल भले ही 2004 जैसा हो, लेकिन मैं तीन कारण गिना सकता हूं कि आखिर 2024 का चुनाव इंडिया शाइनिंग के अति आत्मविश्वासी घोड़े पर सवार उस चुनाव से क्यों अलग है।

पहला, आज कांग्रेस पहले की अपेक्षा बहुत कमजोर है। वर्ष 2004 में उसके पास कुछ मजबूत गढ़ थे। आंध्र प्रदेश भी बंटा हुआ नहीं था। उस समय वाईएस राजशेखर रेड्डी के नेतृत्व में संयुक्त आंध्र प्रदेश की 42 में से 36 सीट कांग्रेस और उसके सहयोगियों को मिली थीं। झारखंड जैसे छोटे राज्य में भी कांग्रेस प्रभावी भूमिका में थी, जहां कांग्रेस ने छह और उसकी सहयोगी झारखंड मुक्ति मोर्चा ने चार सीट पर जीत दर्ज की थी। लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहने का असर कैडर आधारित भाजपा जैसी पार्टी के मुकाबले कांग्रेस जैसे संरक्षण आधारित दल पर कहीं ज्यादा पड़ता है।

देश के कई हिस्सों में पार्टी का तंत्र पूरी तरह तबाह या खत्म हो गया है। देश के ग्रामीण हिस्सों में सरकार के प्रति नाराजगी है, जैसा कि 2004 में भी था, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि कांग्रेस इस मौके को भुना पाएगी और इस तबके को वोट के रूप में अपने पक्ष में मोड़ पाएगी। वर्ष 2004 में असम जैसे राज्यों में भाजपा नाकाम रही थी, लेकिन आज वह वहां बहुत अधिक मजबूत स्थिति में है। असम जैसे इलाकों में कांग्रेस के स्थानीय कार्यालय आज सुस्तावस्था में पहुंच चुके हैं।

दूसरा, उत्तर प्रदेश को लें। उत्तर भारत का 80 लोकसभा सीट वाला यह मजबूत गढ़ 25 वर्षों तक नई दिल्ली के लिए अप्रासंगिक ही रहा। भाजपा और कांग्रेस दोनों के हिस्से कुल मिलाकर 15 से 20 सीट ही आती थीं, शेष बड़ा हिस्सा क्षेत्रीय दल कब्जा लेते थे। ये क्षेत्रीय दल चुनाव के बाद किसी भी प्रभावी धड़े को अपना समर्थन दे देते थे या अलग रास्ता चुनते थे। वर्षों से चली आ रही यह परिपाटी 2014 में खत्म हो गई। उत्तर प्रदेश की राजनीति से आज भाजपा का प्रभुत्व खत्म करना लगभग असंभव है। भाजपा अपना चुनाव प्रचार ही कम से कम इतनी सीटों पर जीत पक्की मान कर शुरू करती है, जितनी सीटें कांग्रेस को देशभर से मिलती हैं।

तीसरा, भाजपा आत्मविश्वास से भरी हो सकती है, लेकिन इस बार के चुनाव में वह अति आत्मविश्वासी होने का जोखिम नहीं उठा सकती। बदलाव साफ नजर आता है और वह प्रधानमंत्री तथा गृह मंत्री के प्रयासों से साफ झलकता है। दोनों ही नेता किसी मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहते। विपक्ष या विपक्षी गठबंधन का कोई भी संभावित सहयोगी ऐसा नहीं, जिस पर उन्होंने अदालतों समेत चारों ओर से शिकंजा नहीं कसा हो। प्रत्येक अभियान को भाजपा के जमीनी कार्यकर्ता उत्साह के साथ आगे बढ़ाते हैं। आज भारतीय राजनीति या नीति का कोई भी हिस्सा, मीडिया का कोई भी कोना, भाजपा की जांच या प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकता।

आज भाजपा की सोच 20 साल पहले वाली भाजपा से बिल्कुल अलग है। इस चुनाव को भी भाजपा उसी तरह लड़ेगी जैसे वह हर चुनाव लड़ती आ रही है। मानो वह यह तय करके लड़ती है कि उसे 2004 जैसी हार स्वीकार नहीं है। यह वह राजनीतिक दल है जो बड़ी जीत इसलिए हासिल करता है कि वह हर चुनाव ‘करो या मरो’ जैसी स्थिति मानकर लड़ता है।

First Published : February 20, 2024 | 9:26 PM IST