हमारे लिए यह याद करना मुश्किल हो सकता है लेकिन पांच साल पहले इसी अवधि के दौरान ऐसा निश्चित नहीं लग रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़े बहुमत के साथ दोबारा निर्वाचित होंगे। उन दिनों भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अंदरूनी हलकों में इस बात को लेकर चर्चा चल रही थी कि अगर पार्टी को 272 से कम सीटें मिलती हैं तब पार्टी गठबंधन का प्रबंधन कैसे किया जाएगा।
दिसंबर 2018 और जनवरी 2019 के बीच कराए गए सभी ओपिनियन पोल में यह बात साफतौर पर निकल कर आई थी कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को बहुमत से कम सीटें मिलेंगी और संभव है कि क्षेत्रीय पार्टियां किंगमेकर बन जाएं।
लेकिन फिर क्या हुआ? वर्ष 2019 के मार्च और अप्रैल महीने के अंत तक अचानक हालात कैसे बदल गए? यह केवल प्रभावशाली चुनाव प्रचार का ही कमाल नहीं था। सभी को मालूम है कि फरवरी में पुलवामा आतंकवादी हमले और बालाकोट हवाई हमलों का चुनाव पर बड़ा असर पड़ा।
वर्ष 2019 से लगातार इस पर लिखा जा रहा है कि कैसे घरेलू कल्याणकारी योजनाओं या किसी अन्य नीतिगत बदलाव के बलबूते मोदी दोबारा चुने गए। हालांकि अगर साक्ष्य की बात करें तो इससे यही पता चलता है कि 2019 में उन्हें विदेश नीति के कारण जीत मिली।
लंबे समय से यह धारणा बनी रही है कि अधिकतर बड़े लोकतंत्रों में चुनाव की जीत या हार के प्रमुख कारकों में कभी विदेश नीति नहीं होती है। अमेरिका में बिल क्लिंटन के दौर में डेमोक्रेटिक पार्टी के चुनाव रणनीतिकार जेम्स कार्विल की एक प्रसिद्ध उक्ति इस धारणा को संक्षिप्त रूप से बयां करती है, ‘अर्थव्यवस्था से चीजें तय होती हैं!’ क्लिंटन ने इस सिद्धांत के आधार पर तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को हराया, हालांकि बुश ही वह राष्ट्रपति थे जिन्होंने शीत युद्ध जीता और सोवियत संघ का शांतिपूर्ण (अब तक) विभाजन का प्रबंधन करने में सफलता पाई थी।
लेकिन ऐसा लगता है कि इस बात में कितनी सच्चाई थी, इसको लेकर हमें ज्यादा भरमाया गया था। यह जरूरी नहीं है कि मतदाता घरेलू अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति के आधार पर वोट देते हों। यह भी सच नहीं है कि चुनाव जीतने या हारने में विदेश नीति बिल्कुल ही अप्रासंगिक होती है।
निश्चित तौर पर विदेश में संकट के चलते हमेशा घरेलू राजनीतिक चिंताएं खत्म होती दिखती हैं क्योंकि ऐसे में विदेश का संकट महत्त्वपूर्ण हो जाता है। वर्ष 2004 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश का फिर से चुना जाना शायद इसी चिंता का परिणाम हो सकता है क्योंकि अमेरिका कई मोर्चे पर युद्ध में उलझा था। बाद में जब अमेरिकी जनता को महसूस होने लगा कि उन्हें इराक युद्ध का समर्थन करने के लिए धोखा दिया गया है, तब उनकी प्रतिक्रिया उतनी ही तेज थी। ऐसे में वर्ष 2006 में डेमोक्रेटिक पार्टी कांग्रेस और वर्ष 2008 में फिर व्हाइट हाउस तक पहुंची।
यह भी संभव है कि किसी छोटे विवाद या संघर्षों को इतने बड़े संकट के रूप में पेश किया जाने लगे कि उससे मतदाता प्रभावित होने लगें। हालांकि, इसके लिए प्रभावी मीडिया प्रबंधन की आवश्यकता होती है। जब मार्गरेट थैचर (जो अपने पहले कार्यकाल में काफी अलोकप्रिय थीं) वर्ष 1983 में फिर से चुनाव जीतीं तो इसका कारण यह था कि कंजर्वेटिव-झुकाव वाले प्रेस ने फॉकलैंड युद्ध की बढ़ा-चढ़ाकर कवरेज की और उन्हें ‘आयरन लेडी’ बना दिया। ऐसा कहा जा सकता है कि वर्ष 2019 के आम चुनाव के पहले भारतीय मीडिया पर भाजपा के व्यापक दबदबे ने भी समान तरह की भूमिका निभाई थी।
दुनिया के कुछ हिस्सों में और शायद भारत में भी यह तेजी से स्पष्ट हो रहा है कि विदेश नीति के रुख के आधार पर चुनाव जीतने या हारने के लिए असली या किसी कृत्रिम मुद्दों की जरूरत नहीं है। वर्ष 2019 में ब्रिटेन में लेबर पार्टी को लगभग एक सदी में सबसे खराब चुनावी हार का सामना करना पड़ा क्योंकि मतदाता इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि जेरेमी कॉर्बिन का तत्कालीन नेतृत्व विदेश नीति के मामले पर बहुत कमजोर है और उनकी सहानुभूति चरमपंथियों को लेकर ज्यादा थी।
हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई है यह एक अलग मुद्दा है। कॉर्बिन ने चुनाव के बाद कहा कि लेबर पार्टी के प्रमुख के तौर पर उनके नेतृत्व में घरेलू नीतियों पर सार्वजनिक चर्चा वामपंथ के पक्ष में प्रभावित हुई। हालांकि यह भी तर्क दिया जाता है कि भले ही उनकी घरेलू नीतियां लोकप्रिय थीं और मतदाताओं ने घरेलू मुद्दों पर उनके रुख की सराहना की थी, लेकिन अगर आप विदेश नीति में कमजोर साबित होते हैं तो आप चुनाव नहीं जीत सकते हैं।
वर्ष 2024 चुनावों का वर्ष होगा और भारत में भी आम चुनाव होंगे। यूरोपीय संघ, इंडोनेशिया और अमेरिका में भी चुनाव होंगे जहां मतदाता बढ़ रहे हैं। ब्रिटेन में भी चुनाव होंगे। बांग्लादेश में चुनाव हो चुका है। आप इसे चाहे जिस हद तक ‘लोकतंत्र’ मानें, रूस में भी चुनाव होंगे। यह एक ऐसा वर्ष है जब फिलहाल दुनिया में दो युद्ध चल रहे हैं। यह बात विचारणीय है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अशांत माहौल इनमें से कुछ चुनावों को कितना प्रभावित करेगा। कम से कम अमेरिका में कुछ रुझान पहले से ही दिखाई दे रहे हैं।
राष्ट्रपति जो बाइडन के कार्यकाल में बेरोजगारी रिकॉर्ड निचले स्तर पर है और शेयर बाजार ने रिकॉर्ड स्तर पर ऊंचाई छू ली है, फिर भी मतदाता इस बात की परवाह नहीं कर रहे हैं। इस वक्त बाइडन बेहद अलोकप्रिय नेता बन चुके हैं। दिलचस्प बात यह है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को वापस बुलाए जाने के फैसले के वक्त से ही उनकी स्वीकार्यता के स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है।
संभव है कि वह इस वर्ष वे चुनाव हार जाएं क्योंकि अमेरिका में कुछ राज्यों में बदलाव के रुझान दिख रहे हैं और साथ ही युवा तथा अल्पसंख्यक मतदाता गाजा युद्ध में दृढ़ता से इजरायल का समर्थन करने को लेकर खासे नाराज हैं। तो चुनावी संदर्भ में अर्थव्यवस्था वाली उक्ति शायद ही कभी इतनी गलत साबित हुई हो।