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Opinion: पूंजी का ज्वार और भारत का बाजार

देश के बाजारों में निवेश प्रवाह में जबरदस्त उछाल आनी तय है। लिहाजा, जोर इस पर होना चाहिए कि अर्थव्यवस्था को इसका अधिक से अधिक लाभ कैसे मिले। बता रहे हैं आकाश प्रकाश

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आकाश प्रकाश   
Last Updated- September 01, 2023 | 9:35 PM IST

हाल में मुझे अपने मित्र रामदेव अग्रवाल के एक सम्मेलन में उनका प्रेजेंटेशन देखने का सौभाग्य मिला। उन्होंने कुछ दिलचस्प आंकड़े साझा किए और भारत में खुदरा इक्विटी क्रांति पर अपने विचार बताए। यह बहुत ही दिलचस्प प्रेजेंटेशन था, जिसने मुझे बचत में जोरदार उछाल के असर पर सोचने को विवश किया।

रामदेव ने जिन बातों को प्रमुख तौर पर रेखांकित किया वे ये कि पिछले 25 साल में भारत में करीब 12 ट्रिलियन (लाख करोड़) डॉलर की घरेलू बचत हुई है। अगले 25 साल में यह आंकड़ा बढ़कर 100 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जाने की उम्मीद है। इस बचत का बढ़ता हिस्सा वित्तीय परिसंपत्तियों, खासतौर पर इक्विटी की ओर जाएगा जो अभी तुलनात्मक रूप से कम है।

प्रस्तुतिकरण में खुदरा इक्विटी प्रवाह में जोरदार उछाल का मुख्य रूप से जिक्र किया गया। डीमैट खातों को दो करोड़ से बढ़कर 4 करोड़ (2010 से 20 तक) होने में 10 साल लग गए। लेकिन अब ये ही खाते महज तीन साल में तीन गुना बढ़कर 12 करोड़ हो गए हैं। अभी हम हर महीने 20 लाख से अधिक खाते जोड़ रहे हैं।

इक्विटी बाजारों में रोजाना की औसतन खुदरा भागीदारी पिछले तीन साल में नौ गुना बढ़ गई है और यह 7 ट्रिलियन रुपये से बढ़कर 60 ट्रिलियन रुपये हो गई है। सिस्टमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान (एसआईपी) में भी निवेश लगातार बढ़ रहा है और यह 2016 में 3,000 करोड़ रुपये प्रति माह था जो बढ़कर आज की तारीख में 15,000 करोड रुपये महीने से अधिक हो गया है।

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सेबी द्वारा ऑनलाइन केवाईसी के नियमों को आसान बनाने जैसे सकारात्मक नियामकीय बदलावों, उत्पादों के विस्तार और ऑप्शन एक्सपायरियों के साथ-साथ नए डिस्काउंट ब्रोकरों के उभार जैसे कई कारणों ने खुदरा निवेश प्रवाह के उछाल को गति दी है।

भविष्य में बचत में होने वाले इजाफे से इक्विटी पूंजी बाजारों को जो लाभ होगा उससे इन बाजारों की आगे की राह साफ नजर आती है लेकिन इसके साथ ही एक गंभीर नीतिगत मसले पर विचार करने की जरूरत है। हम यह कैसे सुनिश्चत करेंगे कि इसका फायदा ऋण बाजारों को भी इ​क्विटी बाजारों जितना ही मिले।

हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि डेट फंडों की ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसमें विभिन्न तरह के जोखिम शामिल हों और जो नवीन किस्म के हों। हमारे बैंक बुनियादी ढांचे को वित्त मुहैया कराने, पूंजी ढांचे के जोखिम भरे हिस्से और कर्जों के पुनर्गठन के लिए नहीं बनाए गए हैं। हम फिर से ऋणों का एक ही जगह केंद्रीकरण नहीं चाहते। फंसे कर्ज वाली परिसंपत्तियों के दुष्चक्र से निकलने के बाद बैंकों में इतनी जोखिम शक्ति नहीं बची है या निवेशक भी जोखिम भरे कॉरपोरेट क्रेडिट की ओर फिर से दांव नहीं लगाना चाहते हैं। यह हमारे पूंजी बाजारों में अंतर है।

इस महत्त्वपूर्ण भूमिका के लिए विशेष फंड बनाने होंगे। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बचत के भारी प्रवाह का कुछ हिस्सा इन विशेष क्रेडिट फंडों की तरफ जाए। अगर हमको वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला से फायदा उठाना है और भारत में विनिर्माण और बुनियादी ढांचा तैयार करना है तो इसमें परिसंपत्तियां ज्यादा होंगी और ऋण की जरूरत होगी। नियामक के समर्थन की भी जरूरत हो सकती है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि बचत का यह उभार लगभग पूरी तरह भारत में ही रहेगा। निकट भविष्य में पूंजीगत खाते की पूर्ण परिवर्तनीयता की संभावना नहीं दिखती है। चीन का आकार हम से पांच गुना ज्यादा है और वह हाल तक पूंजी नियंत्रण के जरिए ठीक से काम करता रहा है।

अगले 25 साल में 100 ट्रिलियन डॉलर की बचत ( जिसका एक बड़ा हुआ हिस्सा इक्विटी में आएगा) के क्या निहितार्थ हैं ? जैसे, घरेलू पूंजी प्रवाह वैश्विक प्रवाह के मुकाबले पहले ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन गया है और यह रुझान बढ़ेगा ही जिससे भारत ऐसे कुछ उभरते बाजारों में से एक होगा जहां घरेलू पूंजी प्रवाह इतना ज्यादा होगा कि वह वैश्विक उतार-चढ़ाव की भरपाई कर सकेगा।

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इतनी बड़ी मात्रा में बचत के कारण विदेशी पूंजी प्रवाह के जरिये व्यापक अर्थव्यवस्था को धन मुहैया कराने की हमारी निर्भरता घटेगी और हम इस स्थिति में आ सकते हैं कि आखिरकार पूंजी का निर्यात करने लगें। वैश्विक परिसंपत्ति प्रबंधन भी इन प्रवाह पर इस उम्मीद में निगाह रखने लगेंगे कि इस पूंजी में से कुछ को बाहर ले जाने की अनुमति मिल जाएगी।

इक्विटी प्रवाह में उछाल की उम्मीद के कारण हम संरचनात्मक तौर पर ऊंचे मूल्यांकन देखते रह सकते हैं। भारत में आज मल्टीपल ऊंचे हैं। इसकी वजह देश की संरचनात्मक वृद्धि और उसका स्पष्ट दृष्टिगोचर होना है। इसके अलावा घरेलू बचत में जोरदार उछाल हमारी पूंजी की लागत भी कम करेगी। इस विश्वास की एक वजह उभरते बाजारों में विकल्प का अभाव और वृद्धिशील इक्विटी पूंजी प्रवाह और नए इक्विटी निर्गम के बीच मांग आपूर्ति का असंतुलन होना भी है।

बाजार गुणवत्ता और कॉरपोरेट पूंजी दक्षता के लिए भुगतान करने को तैयार रहते हैं। हालांकि निवेशक जिन कंपनियों में निवेश करना चाहते हैं, वे कभी कभार ही नई इक्विटी जारी करती हैं। भारतीय कॉरपोरेट जगत की इतनी जोरदार बैलेंस शीट पहले कभी नहीं थी। इसमें उद्योग के कई दिग्गजों पर तो कोई कर्ज भी नहीं है । इस कारण मांग-आपूर्ति का असंतुलन तब पैदा हो जाता है, जब निवेशक अनुशासित और अच्छे शेयरों पर ध्यान लगाते हैं।

यही वजह है कि भारत कंपनियों और उनके प्रायोजकों पूंजी जुटाने के वास्ते एक विशेष जगह बन गया है। जिस बाजार में क्वालिटी के शेयरों या प्रपत्रों की मांग हो,उसमें अगर आप अच्छी प्रतिभूतियां लाते हैं तो उनको तुरंत खरीदा जाएगा। मेरी राय में भारत की सभी स्टार्टअप को देश में सूचीबद्ध कराना चाहिए क्योंकि उनको जो मूल्यांकन और चर्चा भारत में मिलेगी वह किसी और देश में नहीं मिलेगी।

भारत प्राइवेट इक्विटी और वेंचर कैपिटल तंत्र के लिए बड़ा बाजार है। भविष्य में आने वाले अच्छी सूचीबद्धता वाले आईपीओ के वे प्रायोजक होंगे और आने वाले वर्षों में वे भारत में बेहतर क्वालिटी के इक्विटी पत्र यानी शेयरों में भूमिका निभाएंगे। जब तक इन फंडों के मूल्यांकन अनुमान वाजिब हैं, तब तक उनको अपनी कंपनियों के लिए अनुकूल बाजार मिलेगा। मेरे हिसाब से ज्यादातर आईपीओ उनके होंगे। पीई फंडों के बड़े ब्लॉक सौदे आगे चलकर सामान्य बात हो जाएगी। पश्चिम में जहां बढ़ती ब्याज दरों और कम फायदे के कारण प्राइवेट इक्विटी का स्वर्ण काल संभवत: समाप्ति की ओर है, वहीं भारत में इसकी शुरुआत हो सकती है।

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बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी भारत में सूचीबद्धता पर विचार करना चाहिए। भारत में सूचीबद्ध किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी को अपने वैश्विक मूल्यांकन से 3 से 4 गुना अधिक मल्टीपल भारत में मिल रहा है। सूचीबद्धता के जोरदार माहौल की संभावना का भारत सरकार द्वारा अपने विनिवेश कार्यक्रम के लिए रणनीतिक रूप से इस्तेमाल करना चाहिए। हालांकि इसमें जोखिम यह है कि ज्यादा इक्विटी पेपर आने पर बाजार में तपिश बढ़ सकती है और फायदा उठाने के लिए प्रमोटर कुछ खराब शेयरों को भी सूचीबद्ध करा सकते हैं।

जैसे-जैसे विदेशी पूंजी पर हमारी निर्भरता घटती जाएगी, रुपये में अवमूल्यन भी खत्म हो सकता है। भारत में मुद्रास्फीति कम होने और इसमें कम उतार-चढ़ाव, कमजोर डॉलर, घरेलू अर्थव्यवस्था में उत्पादकता के लाभ से डॉलर निवेशकों के लिए खराब नहीं रहेगा। संपत्ति प्रबंधन, परिसंपत्ति प्रबंधन और व्यापक पूंजी बाजार के भागीदारों के लिए भविष्य असाधारण तौर पर सकारात्मक है । ये संरचनात्मक वृद्धि वाले उद्योग हैं जिनमें कई खिलाड़ियों के लिए आगे बढ़ने की संभावना है।

कुल मिलाकर बचत में जोरदार उछाल की संभावना और पूंजी की लागत कम होने से भारत दुनिया के सबसे ज्यादा गतिशील पूंजी बाजारों में एक हो सकता है। इसलिए हमारा जोर अर्थव्यवस्था के लिए इससे अधिक से अधिक फायदा उठाने पर होना चाहिए।

(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं )

First Published : September 1, 2023 | 9:35 PM IST