दुनिया भर में शहरों को सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गतिविधियों का केंद्र माना जाता है। इन गतिविधियों में क्या शहरी रहा है इसका निर्धारण करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वे जीवित इकाइयां हैं और अपने आप में इतिहास के हिस्सों को संजोए हैं।
अक्सर शहरों को पूरी तरह आर्थिक नजरिये से देखा जाता है और उत्पादकता बढ़ाने वाली उनकी औद्योगिक प्रणालियों की वजह से उनको वृद्धि और विकास का केंद्र माना जाता है। बहरहाल, उनकी सामाजिक आर्थिक अभिव्यक्ति का किसी क्षेत्र की संस्कृति, आत्मा और उसके सौंदर्य को आकार देने में अहम भूमिका और प्रभाव रहता है।
भारत का इतिहास ऐसे शहरों की महत्ता से भरा हुआ है जो न केवल अहम आर्थिक केंद्रों के रूप में उभरे बल्कि जिन्होंने देश की अहम सामाजिक-राजनीतिक गति को भी पकड़ा। उदाहरण के लिए 15 अगस्त, 1947 को मध्यरात्रि के समय देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नई दिल्ली से स्वतंत्र भारत के नागरिकों को संबोधित किया।
इस प्रकार यह शहर भारत के विचार का हिस्सा बन गया। दिल्ली शहर हमेशा से देश की राजनीति का केंद्र रहा है क्योंकि आठवीं सदी के आरंभ से ही वह कई साम्राज्यों की राजधानी रहा है। बंबई (मुंबई), मद्रास (अब चेन्नई), और कलकत्ता (अब कोलकाता) जैसे शहर भी राजनीति, संस्कृति और अर्थव्यवस्था के बड़े केंद्र बनकर उभरे।
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अगर हम 600 ईस्वीपूर्व के समय पर नजर डालें तो 16 महाजनपदों के उभार को दूसरे शहरीकरण का नाम दिया गया था क्योंकि उसी दौर में हम जनजातीय जीवन से कृषि अर्थव्यवस्था की ओर बढ़े थे और व्यापार और संस्कृति के विकास के साथ-साथ एक बसाहट में रहने वाले लोगों की तादाद बढ़नी शुरू हुई थी। हालांकि शहरों का विकास पूरी तरह उभरते बाजारों से संबंधित था लेकिन उनके सांस्कृतिक संबंध मजबूत बने रहे।
अगर भारत के सांस्कृतिक सफर को उसके शहरों के माध्यम से रेखांकित किया जाए तो हमें तीन अवधियों से होकर गुजरना होगा: पहले मध्यकाल और औपनिवेशिक भारत। बीती सदियों के दौरान भारत में कई साम्राज्यों का उदय और पतन हुआ। इनमें से प्रत्येक ने शहरी क्षेत्र पर अपनी छाप छोड़ी। उदाहरण के लिए मौर्य और गुप्त सम्राटों ने उन शहरों की स्थापना में योगदान दिया जो कला, सीखने और व्यापार के केंद्र बन गए। उस काल के वास्तु को अजंता और एलोरा गुफाओं में देखा जा सकता है।
उस दौरान तमाम सांस्कृतिक प्रभाव नजर आते हैं जिनमें स्वदेशी और विदेशी दोनों प्रेरणाएं शामिल हैं। मध्य युग में इस्लामिक वास्तु और शहरीकरण का असर देखने को मिला। ऐसा दिल्ली सल्तनत और मुगल साम्राज्य के प्रभाव में नजर आया। दिल्ली, आगरा और फतेहपुर सीकरी आदि संस्कृति के ऐसे केंद्र बन गए जहां पर्सियन, मध्य एशियाई और भारतीय तत्त्वों का मिश्रण नजर आता है।
ताज महल में इस्लामिक और भारतीय वास्तुशैली का मिश्रण नजर आता है और वह इसका बेहद सुंदर प्रतीक है। यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों के आगमन के साथ ही भारत के शहरीकरण में एक नया मोड़ आया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रशासनिक और व्यापारिक केंद्र स्थापित किए और अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गए जहां ब्रिटिश नव शास्त्रीय शैली को भारतीय सौंदर्य के साथ मिश्रित किया गया था। यह वही समय है जब मुंबई, कोलकाता और चेन्नई वाणिज्य और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के केंद्र बने।
विलियम डिग्बी ने भारत के शहरीकरण की तस्वीर को दो हिस्सों में बांटा: हिंदोस्तान यानी भारतीयों का भारत और एंग्लोस्तान यानी अंग्रेजों का भारत। एक भारत रेलवे लाइनों के बीच सीमित था जबकि दूसरा औपनिवेशिक था। उन्होंने इस बात को दिखाया कि ब्रिटिश राज के दौरान शहरी भारत का विकास किस प्रकार हुआ। उन्होंने इस बात की ओर भी संकेत किया कि इन दोनों दुनिया के बीच की जगह कैसी थी और कैसे इनमें से एक केवल दूर से ही दूसरे का दीदार कर सकता था वहां तक जा नहीं सकता था।
यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि भारत का शहरी इतिहास आभासी तौर पर तब भी नदारद नजर आया जब 1881 में पहली बार जनगणना की गई। जब शहरी आबादी में तेजी से इजाफा हुआ तब भी शहरी आबादी के प्रकार और उसकी प्रकृति का निर्धारण करना मुश्किल था। इस बात ने भारत के शहरीकरण के परीक्षण को बहुत चुनौतीपूर्ण बना दिया। बहरहाल, भारत के शहरों का सांस्कृतिक इतिहास कुछ साझा बातें सामने रखता है: धार्मिक विविधता और सह-अस्तित्व, वास्तुशिल्प समन्वयवाद और उद्योग एवं वाणिज्य का उदय तथा कला एवं शिक्षण के केंद्र।
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भारत का शहरी इतिहास परंपरा और आधुनिकता के बीच अपनी भूमिका निभाता दिखता है। शहरों ने जहां आधुनिक बुनियादी ढांचे और तकनीक को अपना लिया वहीं उन्हें सांस्कृतिक विरासत और पारंपरिक व्यवहार के संरक्षण का भी प्रयास करना था। यह संतुलन तेज शहरी विकास के बीच सांस्कृतिक जड़ों के रखरखाव के महत्त्व को दर्शाता है।
मंदिर, बाजार जैसे साझा स्थानों तथा अन्य संप्रदाय आधारित जगहों ने सांस्कृतिक पहचान बनाने और सामुदायिकता की भावना के विकास में अहम भूमिका निभाई। इन जगहों ने सांस्कृतिक प्रदर्शन, बातचीत के मंच का काम किया और वहां अनुभव साझा किए जाते जिससे सामूहिकता की भावना को बल मिलता। इन सब बातों के बीच पूरे इतिहास की एक अहम विशेषता यह रही कि भारत के शहरों ने अपने शहरी नियोजन को बदलती सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप रखा।
जरूरी सांस्कृतिक तत्त्वों के बचाव के साथ शहरी ढांचे और अधोसंरचना के साथ सामंजस्य बिठाने की क्षमता यह दिखाती है कि लचीली और समायोजन वाली शहरी योजना कितनी महत्त्वपूर्ण है। बीते हजार वर्षों में भारत के शहरों ने उल्लेखनीय सांस्कृतिक निरंतरता और मजबूती दिखाई है। विभिन्न साम्राज्यों के उदय और पतन, तमाम आक्रमणों और सामाजिक-आर्थिक बदलावों के बीच भी वास्तु, त्योहार और परंपराओं जैसे सांस्कृतिक तत्त्व बरकरार रहे। इन्होंने सांस्कृतिक मूल्यों की शक्ति का प्रदर्शन किया।
(कपूर इंस्टीट्यूट फॉर कंपैटिटिवनेस, इंडिया में चेयर और स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी में व्याख्याता हैं। देवरॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन हैं)