बीते 30 वर्षों में देश के विभिन्न राज्यों में आय संबंधी असमानता तेजी से बढ़ी है। जिन राज्यों में प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद (एसडीपी) 2019-20 में राष्ट्रीय औसत से ऊपर और नीचे था, उनका भौगोलिक विभाजन एकदम स्पष्ट है। अधिक आय वाले राज्य देश के दक्षिण, पश्चिम और पूर्वोत्तर में हैं जबकि कम आय वाले प्रदेश उत्तर, मध्य तथा पूर्व में स्थित हैं।
सन 1990-91 में उच्च आय वाले राज्यों का प्रति व्यक्ति एसडीपी कम आय वाले प्रदेशों का 1.7 गुना था। 2019-20 तक यह अनुपात बढ़कर 2.5 गुना हो गया। दो क्षेत्रों में अंतर और बदलाव और भी अधिक था। विनिर्माण में उच्च और निम्न आय वाले राज्यों के बीच प्रति व्यक्ति एसडीपी का अनुपात 1990-91 के 2.4 गुना से बढ़कर 2019-20 में 3.6 गुना हो गया।
सेवा क्षेत्र में इसी अवधि में यह अनुपात 2.0 से बढ़कर 2.9 हो गया। दोनों तरह के राज्यों के बीच अंतर का सबसे अहम कारण है उच्च आय वाले राज्यों में विनिर्माण और सेवा क्षेत्र की मजबूत वृद्धि। दक्षिण, पश्चिम के राज्य और दिल्ली तथा आसपास के राज्य ऐसे ही हैं। कम आय वाले राज्यों की कमजोरी है इन क्षेत्रों में पिछड़ना और इसे दूर करके ही वे वृद्धि हासिल कर पाएंगे।
यह कैसे किया जा सकता है? इन दिनों कम आय वाले राज्यों मे अधोसंरचना विकास पर काफी जोर दिया जाता है। क्या इससे उनकी वृद्धि संभावनाओं में अंतर उत्पन्न हो सकता है? अगर उच्च और निम्न आय वाले राज्यों की अधोसंरचना पर नजर डालें तो कोई खास अंतर नहीं नजर आता। गंगा के मैदानी इलाकों में मौजूद राज्य सड़कों की लंबाई के मामले में राष्ट्रीय औसत से ऊपर हैं।
2019 में वहां प्रति 100 वर्ग किलोमीटर इलाके में 165 किलोमीटर सड़कें थीं। 2022 में वहां प्रति 1,000 वर्ग किलोमीटर इलाके में 21 किलोमीटर रेल मार्ग था। इतना ही नहीं उच्च वृद्धि वाले कई राज्य राष्ट्रीय औसत से नीचे हैं। सड़क के मामले में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश तथा रेल लाइनों की लंबाई में महाराष्ट्र, तेलंगाना और कर्नाटक।
प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता भी अधोसंरचना का ऐसा ही एक क्षेत्र है जहां अंतर नजर आता है तथा जो गंगा के मैदानी और पूर्वी राज्यों में राष्ट्रीय औसत से नीचे है। 2022-23 में इसका राष्ट्रीय औसत 1,221 किलोवॉट था। ऐसा इस तथ्य के बावजूद है कि पूर्वी राज्य कोयले का स्रोत हैं जो बिजली उत्पादन के लिए सबसे अहम जरिया है। क्या इस अंतर को आंशिक तौर पर नवीकरणीय बिजली उत्पादन के विस्तार से समझा जा सकता है? या फिर यह उच्च वृद्धि के कारण मांग में अंतर का परिणाम है?
कम आय और उच्च आय वाले राज्यों के बीच सबसे मुखर अंतर उद्यमिता के क्षेत्र में है। अंतर का एक पैमाना संगठित क्षेत्र की फैक्टरियों के वितरण में अंतर भी है। इसमें वे फैक्टरियां शामिल हैं जो उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण (एएसआई) में शामिल हैं। 2019-20 के एएसआई में फैक्टरियों की संख्या, स्थायी पूंजी, और रोजगार में उच्च आय वाले राज्यों की हिस्सेदारी करीब 75 फीसदी थी। एक अन्य मानक पर देखें तो सबसे अमीर 100 भारतीयों में सभी उद्यमी हैं और भारत के 91 निवासियों में से 87 उच्च विकास वाले राज्यों में रहते हैं।
उदारीकरण के बाद के दौर में वृद्धि का एक अहम जरिया सेवा क्षेत्र रहा खासकर सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कंपनियां। अब सकल घरेलू उत्पाद में इसकी हिस्सेदारी 7.4 फीसदी है और वह 54 लाख लोगों को रोजगार देता है। ये कंपनियां चुनिंदा उच्च आय वाले राज्यों में स्थित हैं और पश्चिम बंगाल (कोलकाता) एक अपवाद है। हाल के दिनों में जयपुर, इंदौर, भोपाल और भुवनेश्वर जैसे कम आय वाले प्रदेशों के राज्य भी सूचना प्रौद्योगिकी केंद्र के रूप में उभरे हैं, लेकिन उत्तर के राज्यों में अभी भी ऐसे केंद्र नहीं हैं।
प्रति व्यक्ति एसडीपी में बढ़ते अंतर का प्रमुख स्पष्टीकरण इस तथ्य में निहित है कि 1991 के उदारीकरण के बाद निवेश में बदलाव हुआ और सरकारी के बजाय निजी निवेश बढ़ने लगा। सन 1990-91 से 2019-20 के बीच सकल जमा पूंजी निर्माण यानी मोटे तौर पर ठोस निर्माण में सरकारी क्षेत्र की हिस्सेदारी 40 फीसदी से घटकर 23 फीसदी रह गई। इसी अवधि में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 18 फीसदी से बढ़कर 38 फीसदी हो गई। इसलिए बड़े उपक्रमों की उद्यमिता क्षमता का काफी हिस्सा निजी क्षेत्र में होना शायद उत्तर-मध्य और पूर्व तथा दक्षिण, पश्चिम और पूर्वोत्तर के राज्यों के बीच प्रति व्यक्ति आय में अंतर की सबसे बड़ी वजह है।
वृद्धि संबंधी प्रदर्शन में अंतर की एक और अहम वजह है श्रम की उपलब्धता के हालात, खासतौर पर उत्तर और मध्य क्षेत्र के राज्यों में। इन राज्यों में शहरी श्रम शक्ति भागीदारी दर तथा नियमित वेतन वाले श्रमिकों का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से कम है। यह भी ध्यान दिया जा सकता है कि शहरी श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी भी राष्ट्रीय औसत से कम है। परंतु इस कमी से अधिक मायने रखने वाली बात यह है कि इंजीनियरिंग शिक्षा तक पहुंच के मामले में भी इनमें काफी अंतर है। देश में करीब 70 फीसदी इंजीनियरिंग सीटें उच्च आय वाले राज्यों में हैं और यह भी एक बड़ी वजह है जिसके चलते ज्ञान आधारित और उच्च तकनीक वाले उद्योगों को वे आकर्षित करते हैं।
प्रति व्यक्ति आय आधार पर भौगोलिक विभाजन को दूर करने का एक उपाय यह है कि कम आय वाले राज्यों में उद्यमिता और श्रम कौशल को बढ़ावा दिया जाए। उत्तर और मध्य भारत तथा शायद पूर्व के राज्यों में स्वतंत्र उद्यमिता को बढ़ावा देना कठिन हो सकता है लेकिन यह असंभव नहीं है। जरूरत इस बात की है कि इन क्षेत्रों को उच्च आय वाले राज्यों से जोड़ दिया जाए। फिलहाल वाहन निर्माण जैसे राष्ट्रीय मूल्य श्रृंखला वाले उद्योग मोटे तौर पर उच्च आय वाले राज्यों तक सीमित हैं।
हमें एक ऐसी राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता है जो ऐसी मूल्य श्रृंखला को बढ़ावा दे जो देश के दक्षिण और पश्चिम के राज्यों को उत्तर और पूर्व के कम लागत वाले राज्यों से जोड़े, जहां से कम लागत में कच्चा माल जुटाया जा सके और असेंबलिंग का काम किया जा सके। इसके लिए छोटे और मझोले उपक्रमों को बढ़ावा देना होगा जो फिलहाल कम आय वाले राज्यों में बड़ी संख्या में हैं। परंतु सबसे अधिक आवश्यकता है कौशल विकास और इंजीनियरिंग शिक्षा की जिससे यह संभावना पैदा होगी कि उच्च आय वाले राज्यों के उपक्रम आकर्षित हो सकें।
यह मामला केवल समता का नहीं बल्कि राष्ट्रीय वृद्धि के लक्ष्य का भी है क्योंकि कामकाजी उम्र की आबादी में मध्यम अवधि की 75 फीसदी और दीर्घावधि की 90 फीसदी वृद्धि उत्तर के राज्यों में होगी। अगर हम उत्तर भारत के राज्यों में आय और वृद्धि संभावनाओं में इजाफा करने में नाकाम रहे तो हमारा जनसांख्यिकीय लाभांश नुकसान में बदल जाएगा और यह राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा देने वाला साबित हो सकता है।