भारत की अर्थव्यवस्था महामारी से अपेक्षाकृत बेहतर तरीके से उबरने में कामयाब रही। हमारी सक्षम राजकोषीय नीति ने इसमें अहम भूमिका निभाई। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पहले ही कह चुकी हैं कि 1 फरवरी को सरकार अंतरिम बजट यानी लेखा अनुदान पेश करेगी और वास्तविक बजट जुलाई 2024 में नई सरकार बनने के बाद पेश किया जाएगा।
अंतरिम बजट में किसी नई पहल की उम्मीद नहीं है लेकिन बजट संबंधी कुछ अनिवार्यताएं और मानक पहले ही तय हैं जो वित्त वर्ष 25 के अंतरिम और वास्तविक बजट को आकार देंगे।
देश की वृद्धि का दायरा बेहतर नजर आ रहा है और जरूरत इस बात की है कि आगे चलकर बजट घाटा कम किया जाए। अनुमान है कि बजट घाटा वित्त वर्ष 24 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 5.9 फीसदी से घटकर वित्त वर्ष 26 में 4.5 फीसदी रह जाएगा। अगर कोई अप्रत्याशित झटका नहीं लगता है तो राजकोषीय घाटे में गिरावट जारी रहेगी और वित्त वर्ष 25 में यह जीडीपी के 5.2-5.3 फीसदी रह जाएगा। यह कमी कैसे आएगी?
अंतरिम बजट यह बता सकता है कि यह व्यय में कमी से होगा या राजस्व वृद्धि और विनिवेश से। कर राजस्व, खासकर प्रत्यक्ष कर (कॉर्पोरेट कर प्राप्तियों में बढ़ोतरी सहित) में वित्त वर्ष 24 में सुधार दिखा है। आशा है कि कर/जीडीपी अनुपात वित्त वर्ष 24 में 18 फीसदी रहेगा और भविष्य में और बढ़ेगा।
व्यय में कमी लाना कठिन होगा। सरकार ने पहले ही प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत 81 करोड़ लोगों को नि:शुल्क खाद्यान्न देने की योजना की अवधि पांच वर्ष के लिए बढ़ा दी है। यह घोषणा सीधे तौर पर चुनावों को ध्यान में रखकर की गई है। इसकी घोषणा नवंबर 2023 में इसलिए की गई ताकि चुनाव आयोग की नाराजगी से बचा जा सके।
अगर सरकार दावा करती है कि गरीबी में काफी कमी आई है और नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी अनुमान के मुताबिक केवल 23 करोड़ लोग गरीब हैं और विश्व बैंक का एक अनुमान गरीबों की तादाद इससे भी कम बताता है तो ऐसे में 12 लाख करोड़ रुपये की लागत से 81 करोड़ लोगों को पांच साल नि:शुल्क खाद्यान्न देने के पीछे क्या तर्क है?
इस वादे को निभाने की लागत और भी अधिक है। नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण के लिए जरूरी व्यवस्था में बाजार समर्थित मूल्य संबद्ध खरीद प्रणाली, भारतीय खाद्य निगम की भारी भंडारण लागत और उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से आपूर्ति आदि शामिल हैं।
इसका अर्थ यह भी है कि गैर किफायती उर्वरक सब्सिडी (जो मोटे तौर पर गैर किफायती उर्वरक कंपनियों और बड़े किसानों को जाती है) तथा किसानों को मुफ्त बिजली जारी रहेगी। अगले पांच वर्षों तक किसी बड़े कृषि सुधार की भी संभावना नहीं है।
सरकार अधोसंरचना व्यय को बढ़ाए रखने को लेकर प्रतिबद्ध है ताकि अगले पांच वर्ष के अपने लक्ष्य पूरे कर सके और उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना जैसे व्यय को लेकर अपनी प्रतिबद्धता को पूरा कर सके। अंतरिम बजट में इसमें बदलाव नहीं होगा।
शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े व्यय और महिलाओं और बुजुर्गों पर होने वाले व्यय में भी चुनाव के पहले कोई परिवर्तन नहीं आता दिखता। अंतरिम बजट में किसी नई घोषणा की संभावना नहीं लगती लेकिन मौजूदा योजनाओं को आवंटित फंड में थोड़ा बहुत बदलाव हो सकता है। पीएम किसान, पीएम आवास योजना आदि ऐसी ही योजनाएं हैं।
बजट में हमेशा विनिवेश के ऐसे आंकड़े पेश किए जाते हैं जो हकीकत से दूर होते हैं। वित्त वर्ष 24 के लिए 61,000 करोड़ रुपये के विनिवेश का लक्ष्य है जो हासिल होता नहीं दिखता। खुशकिस्मती से भारतीय रिजर्व बैंक और सरकारी उपक्रमों से हासिल होने वाला लाभांश अधिक होगा और विनिवेश में कमी की भरपाई कर देगा।
मैंने नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी के लिए किए एक विस्तृत अध्ययन में यह दिखाया है कि अगर सरकार विनिवेश को लेकर गंभीर है तो उसे पांच से 10 वर्ष की कार्य योजना बनाकर काम करना चाहिए न कि सालाना लक्ष्य तय करना चाहिए क्योंकि वे कभी पूरे नहीं होते। इससे भी बुरी बात यह है कि वार्षिक लक्ष्य हासिल करने की कोशिश में एलआईसी जैसे अन्य सरकारी उपक्रमों पर दबाव डाला जाता है जिससे उनकी वित्तीय स्थिति प्रभावित होती है।
उच्च विनिवेश लक्ष्य हासिल करने का यह सही वक्त है। इस समय बाजार नकदीकृत हैं और भारत को लेकर धारणा भी बेहतर है। परंतु जब तक वित्त मंत्रालय अपने तौर तरीके नहीं बदलता, ऐसा होता नहीं दिखता। शायद एक अलग विनिवेश मंत्रालय की जरूरत है। वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में अलग विनिवेश मंत्रालय ने सफल प्रदर्शन किया था।
भविष्य की बात करें तो हमें राजकोषीय सुदृढ़ीकरण में तेजी लाने पर ध्यान देना चाहिए। अब तक उच्च राजकोषीय घाटा, चालू खाते के घाटे में इजाफे में नहीं परिवर्तित हुआ है लेकिन अगर निजी निवेश में सुधार यूं ही रहा तो भारत को तेज राजकोषीय समेकन की गुंजाइश बनानी होगी। यदि ऐसा नहीं हुआ तो चालू खाते के घाटे में इजाफा होगा।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों के मुताबिक भारत का सरकारी कर्ज अनुपात जो फिलहाल जीडीपी के 83 फीसदी के बराबर है वह उन सभी अन्य जी20 अर्थव्यवस्थाओं से अधिक है जो जी7 के सदस्य नहीं हैं। चीन में यह 77 फीसदी, इंडोनेशिया में 40 फीसदी, मैक्सिको में 50 फीसदी, सऊदी अरब में 30 फीसदी, दक्षिण अफ्रीका में 67 फीसदी, दक्षिण कोरिया में 54 फीसदी और तुर्की में 32 फीसदी है।
केवल अर्जेन्टीना और ब्राजील में यह 85 फीसदी है जो भारत से थोड़ा ज्यादा है। अगर मध्यम अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था 7-7.5 फीसदी की वृद्धि दर हासिल करती है तो कर्ज अनुपात में कमी आएगी। परंतु 6-6.5 फीसदी की जीडीपी वृद्धि दर के लिए अधिक राजकोषीय समेकन की आवश्यकता होगी।
खासतौर पर तब जबकि राज्य का राजकोषीय घाटा निरंतर जीडीपी के 3-3.5 फीसदी के स्तर पर रहे। भारत को हर हाल में यह कोशिश करनी चाहिए कि सार्वजनिक ऋण अनुपात में कमी आए। तभी वह भविष्य के संकटों से निपटने की गुंजाइश बना सकेगा।
अंतरिम बजट में नई पहल भले ही न हो लेकिन यह उम्मीद की जा सकती है कि वित्त मंत्री प्रमुख व्यय प्राथमिकताओं की घोषणा कर सकती हैं जो चुनाव में मददगार साबित हों। मसलन गरीबों, महिलाओं, किसानों और आदिवासियों की मदद जारी रखी जाएगी।
इस बात की भी संभावना है कि सीतारमण सशस्त्र बलों, स्वच्छ ऊर्जा, पानी और सफाई के प्रति समर्थन जारी रखें। इसके साथ ही छोटे और मझोले उपक्रम क्षेत्र, जी20 से जुड़ी पहलों के लिए भी माहौल सकारात्मक रहेगा। बजट में किसी बड़ी घोषणा की उम्मीद नहीं है। ज्यादा बहस मुबाहिसा भी देखने को नहीं मिलेगा क्योंकि सारा ध्यान मई में होने वाले आम चुनाव पर केंद्रित रहेगा।
परंतु चुनाव के बाद मध्यम अवधि में भारत की राजकोषीय सेहत पर ध्यान देना होगा क्योंकि शायद तब तक व्यय का दबाव कम हो जाए और राजस्व बढ़ाने के विकल्प अधिक व्यावहारिक होंगे। (लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी के प्रतिष्ठित विजिटिंग स्कॉलर हैं)