बिहार कैडर के एक अफसरशाह की बात मानें तो ‘यह अब तक का सबसे नीरस चुनाव है और इससे पहले शायद ही बिहार में कभी ऐसे चुनाव हुए जहां नतीजे इतने स्पष्ट रहे हों।’ यदि कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो नवंबर में जनता दल यूनाइटेड-भारतीय जनता पार्टी (जदयू-भाजपा) गठबंधन के सत्ता में लौटने की पूरी संभावना है। भाजपा इस चुनाव से ज्यादा अगले चुनाव पर नजरें गड़ाए हुए है जो शायद नीतीश कुमार के बाद के युग की शुरुआत होगी। जाहिर है उस व्यवस्था में मौजूदा केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
मूल मुद्दा यह नहीं है कि नित्यानंद राय (जो यादव हैं) में बिहार की शक्तिशाली मध्यवर्ती जातियों को भाजपा के साथ खींचने की क्षमता है या नहीं। प्रश्न यह है कि वह प्रदेश के सबसे कद्दावर भाजपा नेता सुशील मोदी के समक्ष संतुलन कायम करने वाले साबित हो सकते हैं या नहीं और वह प्रदेश में पार्टी को भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की दृष्टि के अनुरूप तैयार कर सकते हैं या नहीं।
सुशील मोदी बीते कुछ वर्षों से बिहार भाजपा के लिए मुश्किल बने हुए हैं। एक तरह से देखें तो अपनी मौजूदा स्थिति के लिए भी वह राज्य और दिल्ली में अपने मजबूत समर्थकों के कर्जदार हैं। सन 1990 के दशक में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा में गए नेता गोविंदाचार्य बिहार में भाजपा का काम देख रहे थे तब ताराकांत झा, कामेश्वर पासवान, जनार्दन यादव और यशोदानंद सिंह जैसे नेताओं को लगा कि उनकी स्थिति खतरे में पड़ सकती है। गोविंदाचार्य सामाजिक न्याय और आंतरिक लोकतंत्र के विचारों से बहुत गहरे तक प्रभावित थे। उन्होंने सुशील मोदी, सरयू रॉय, रवि शंकर प्रसाद और बाद में राजीव प्रताप रूडी जैसे युवा नेताओं को प्रोत्साहन देकर इन पुराने नेताओं की पकड़ को तोडऩे का प्रयास किया। पुराने स्थापित नेताओं ने उनके खिलाफ अभियान छेड़ दिया। जब वाजपेयी सरकार बनी तो पार्टी के अधिकांश युवा तुर्क दिल्ली चले गए। केवल सुशील मोदी टिके रहे और उन्होंने राज्य की राजनीति से उखाड़े जाने की हर कोशिश का प्रतिरोध किया और पटना में बने रहे।
यह भाजपा के लिए अच्छा भी था और बुरा भी। इससे पार्टी में स्थिरता आई लेकिन अनेक लोगों को धीरे-धीरे यह अहसास हुआ कि मोदी बिहार में भाजपा का एकमात्र विकल्प बन गए। इतना ही नहीं नीतीश कुमार के साथ उनकी करीबी भी एकदम जाहिर है। सन 2012 में उन्होंने कहा था कि नीतीश कुमार निर्विवाद रूप से प्रधानमंत्री बनने के काबिल हैं। यह वह समय था जब नरेंद्र मोदी ने भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश करनी शुरू ही की थी। जाहिर है सुशील मोदी की बात से तमाम लोगों की त्योरियां चढ़ गईं। यदि पार्टी को नए इलाके में विस्तार करना था तो उनकी जगह दूसरा शक्ति केंद्र स्थापित करना आवश्यक था।
चुनाव आए और गए। विडंबना ही है कि पार्टी के बेहतरीन प्रयासों के बावजूद जहां सुशील मोदी ने जोर लगाया वहां पार्टी जीती और जहां उन्होंने दम नहीं लगाया वहां पार्टी हार गई। बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में हुए थे। भाजपा और जदयू अलग-अलग लड़े थे, हालांकि सुशील मोदी ने गठबंधन को बचाने का पूरा प्रयास किया था। भाजपा ने दावा किया कि वह 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में 150 सीटों पर जीतने में कामयाब रहेगी लेकिन पार्टी को केवल 56 सीटों पर जीत मिली।
लगभग उसी दौर में एक युवा नेता भी तैयार हो रहा था जो प्रदेश की छात्र राजनीति में सक्रिय था, उसे टिकट भी दिया गया। वह नेता थे नित्यानंद राय। राय को अमित शाह ने चिह्नित किया जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) से निकले थे और राज्य विधानसभा में चार कार्यकाल पूरे कर चुके थे। सन 2014 में वह उजियारपुर लोकसभा सीट से लड़े और जीत गए। उन्हें केंद्रीय मंत्री बने पांच वर्ष पूरे हो जाएंगे और फिलहाल वह सीधे अमित शाह के अधीन गृह राज्य मंत्री के रूप में काम कर रहे हैं।
इस बीच सुशील मोदी और मजबूत होते गए और अब उन्हें अरुण जेटली का समर्थन भी हासिल था। प्रदेश इकाई में नियुक्त हर अध्यक्ष फिर चाहे वह सीपी ठाकुर हों या मंगल पांडेय, उन्होंने यही पाया कि उन्हें अपने प्रतिनिधियों का चुनाव उन नेताओं के बीच से करना होगा जिनकी प्राथमिक निष्ठा सुशील मोदी के प्रति है।
नित्यानंद राय के मामले में केंद्रीय नेतृत्व ने सोचा कि वह सुशील मोदी के खिलाफ एक जीतने वाले घोड़े पर दांव लगा रहा है। वह थोड़े ढीठ, उग्र और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। इनमें से कुछ बातों का ताल्लुक इससे भी है कि उनके पास आय के स्वतंत्र स्रोत हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव नामांकन में उन्होंने जानकारी दी थी कि उनके पास 18 करोड़ रुपये की संपत्ति है।
सन 2015 के विधानसभा चुनाव में संभवत: राय की ही सलाह पर भाजपा ने 22 यादवों को टिकट दिया था लेकिन दो या तीन ही जीते। जाहिर है राय लालू प्रसाद के कद के जातीय नेता नहीं हैं। यह उनके लिए बड़ा झटका था। सुशील मोदी एक बार फिर कामयाब रहे।
परंतु यह इससे राय को केंद्र का समर्थन समाप्त नहीं हो गया। इस चुनाव से पहले बिहार के एक अन्य राय समर्थक नेता भूपेंद्र यादव के साथ मशविरे के बाद एक 70 सदस्यीय समिति का गठन किया गया जिसकी अध्यक्षता राय के पास है। इस सूची से सुशील मोदी के कई समर्थक नदारद हैं।
अब एक नई बात देखने को मिल रही है: महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस नीतीश कुमार के साथ सीटों के लिए मोलतोल करेंगे। बिहार में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर केंद्र की योजना आगे चलकर किस तरह फलीभूत होगी यह इन चुनावों के नतीजों पर निर्भर करेगा। परंतु एक बात स्पष्ट है: बिहार में नित्यानंद राय भाजपा के नए सितारे हैं।