सूक्ष्म वित्त उद्योग के लिए 14 मार्च को आए नए दिशानिर्देश भारत में वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने की दिशा में महत्त्वपूर्ण हैं। नए दिशानिर्देश अप्रैल से लागू हो जाएंगे। इनमें सूक्ष्म वित्त खंड में बैंकों एवं अन्य वित्तीय मध्यस्थों के लिए समान अवसर सृजित करने, ब्याज दर मुक्त कर प्रतिस्पद्र्धा बढ़ाने और औपचारिक वित्तीय माध्यमों से दूर लाखों लोगों को साथ लाने की पहल की गई है। अभी सूक्ष्म वित्त दिशानिर्देश केवल सूक्ष्म वित्त संस्थानों (एमएफआई) पर ही लागू होते हैं और बैंक इनकी जद में नहीं आते हैं। इन शर्तों में ब्याज दर, ऋण भुगतान संबंधी ग्राहकों का पिछला ब्योरा शामिल हैं। इनमें इस बात का भी जिक्र है कि एक वित्तीय संस्थान कितने ग्राहकों को ऋण दे सकता है।
कर्जदाताओं को ब्याज दरें तय करने का अधिकार होगा मगर उन्हें निदेशकमंडल स्वीकृत पारदर्शी नीति का पालन करना होगा। भारतीय रिजर्व बैंक इस पर नजर रखेगा। सभी श्रेणियों के कर्जदाता ग्राहक के पिछले भुगतान के आधार पर अलग-अलग ब्याज दरें लागू कर पाएंगे। क्रेडिट ब्यूरो द्वारा सूचना भंडार तैयार करने के बाद समूह उधारी प्रारूप आंशिक रूप से व्यक्तिगत उधारी प्रारूप का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। एक समूह के भीतर भी कर्जधारकों के बीच क्रेडिट रेटिंग बढ़ाने की होड़ होगी। क्रेडिट स्कोर अधिक रहने से सस्ती ब्याज दरों पर ऋण मिलना आसान हो जाता है। सालाना 3 लाख रुपये आय वाले परिवार को उतनी रकम ऋण के रूप में मिलेगी जितना भुगतान वह अपनी आधी आय से कर पाएगा। वित्तीय संस्थान शिक्षा, स्वास्थ्य, विवाह आदि किसी भी उद्देश्य के लिए अब ऋण देंगे। अब तक 50 प्रतिशत ऋण गैर-उत्पादक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं मगर वास्तविकता यह है कि 90 प्रतिशत तक ऋण आय सृजन के लिए दिया जाता है। इस वजह से कई कर्जधारकों को महाजनों से ऊंची दर पर ऋण लेना पड़ता है। वर्तमान नियमों के अनुसार एनबीएफसी-एमएफआई की ऋण सूची में 85 प्रतिशत असुरक्षित ऋण होना चाहिए। अपनी ऋण सूची में जोखिम कम करने के लिए बैंकों को यह सीमा घटा कर 75 प्रतिशत तक करने की इजाजत दी जा रही है। मगर यहां एक तकनीकी पहलू है। मौजूदा 85 प्रतिशत की शर्त शुद्ध परिसंपत्तियों पर लागू है मगर नई 75 प्रतिशत की सीमा कुल परिसंपत्तियों (नकद, बैंक में जमा रकम एवं निवेश) पर लागू होगी। इस तरह वास्तविक लाभ 10 प्रतिशत अंक से कम होगा। दूसरी तरफ सूक्ष्म ऋण के मद में एनबीएफसी की अधिकतमसीमा 10 प्रतिशत से बढ़ाकर कुल परिसंपत्तियों का 25 प्रतिशत तक किया जा रहा है। इससे सूक्ष्म वित्त क्षेत्र में रकम का प्रवाह और बढ़ेगा। कर्जदाताओं के समक्ष इन परिवारों की आय एवं उन पर कर्ज की समीक्षा की चुनौती होगी। कर्जदाताओं के पास ऐसे परिवारों के लिए विश्वसनीय कागजात उपलब्ध नहीं होते हैं। स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) ऋण, फसल ऋण, सहकारी एवं गैर-लाभकारी संस्थाओं द्वारा आवंटित ऋण आदि से जुड़ी सूचनाएं क्रेडिट ब्यूरो कंपनियों के पास उपलब्ध नहीं होती है। आरबीआई को इस दिशा में पर्याप्त उपाय करने होंगे। जब तक क्रेडिट ब्यूरो के पास सभी आंकड़े नहीं होंगे तक तक परिवार पर कर्ज बोझ की व्याख्या अलग-अलग कर्जदाता अलग-अलग तरीके से करेंगे। किसी परिवार पर कर्ज का बोझ एक निश्चित सीमा पार करने से पहले कर्जदाता संबंधित ग्राहक को ऋण बांटने में आपस में ही होड़ शुरू कर देंगे। कारोबार बढ़ाने के लिए आतुर कर्ज वित्तीय संस्थान 1 अप्रैल से इन खामियों का लाभ उठाएंगे।
सभी जमानत मुक्त ऋण को सूक्ष्म वित्त मानने और भुगतान अवधि पर जोर नहीं दिए जाने से एमएफआई नई योजनाएं ला पाएंगे और ग्राहकों की पसंद के आधार पर इनमें बदलाव लाने की स्थिति में होंगे। इससे आवास, जल स्वच्छता, अक्षय ऊर्जा, शिक्षा आदि खंडों में अधिक वित्त उपलब्ध हो सकेगा। ऋण के समय पूर्व भुगतान पर कोई जुर्माना नहीं होगा और वसूली कर्जधारक और कर्जदाताओं की आपसी सहमति से होगी। इन सभी प्रयासों से बाजार में गहराई लाने में मदद मिलेगी और कर्जदाताओं का व्यवहार भी सामान्य बनाने में मदद मिलेगी मगर आरबीआई को नए दिशानिर्देशों के कुछ बिंदुओं पर दोबारा विचार करना होगा।
आरबीआई ने कर्जदाताओं को ‘गैर-ऋण’ उत्पाद कर्जधारकों की पूर्ण सहमति से बेचने की अनुमति दी है। कुछ कर्जदाता संस्थान तो सोलर लाइट, प्रेशर कुकर, साइकिल आदि वस्तुओं की बिक्री करने लगे हैं और भोले-भाले ग्राहकों का शोषण कर रहे हैं। ऋण बीमा को छोड़कर ऋण के साथ शेष उत्पादों की बिक्री 90 दिन की अवधि तक के लिए टाल दी जानी चाहिए क्योंकि कर्जधारकों के पास इन्हें नहीं खरीदने का विकल्प नहीं होता है। आरबीआई ने ब्याज दर की गणना की जो विधि बताई है उससे कर्जदाता अधिक मुनाफा नहीं कमा पाएंगे और खासकर बैंक एमएफआई की तरह ब्याज नहीं ले पाएंगे। क्या सूक्ष्म ऋण पर ब्याज तय करते वक्त बीमा शुल्क शामिल किया जाना चाहिए? बीमा शुल्क के साथ ब्याज दरें अधिक हो जाएंगी।
भारत का सूक्ष्म वित्त उद्योग इस समय दोराहे पर खड़ा है। कोविड महामारी से बुरा असर हुआ है और कई एमएफआई को 10 से 30 प्रतिशत ऋण का पुनर्गठन करना पड़ा है जबकि सकल गैर-निष्पादित आस्तियां (एनपीए) 5-15 प्रतिशत के दायरे में पहुंच सकती हैं। सरकार द्वारा घोषित आपात ऋण सुविधा गारंटी योजना से सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों को लाभ तो हुआ है मगर एमएफआई उद्योग इनमें काफी कम इकाइयों को ऋण देता है। असुरक्षित ऋण की हिस्सेदारी 85 प्रतिशत से घटाकर 75 प्रतिशत करने से बहुत फायदा नहीं होगा। अगर नियामक इस खंड को टिकाऊ बनाना चाहता है तो यह सीमा 60 प्रतिशत करनी होगी। सूक्ष्म ऋण की वसूली में नकदी की हिस्सेदारी हरेक महीने हजारों करोड़ रुपये होती है। क्या आरबीआई को डिजिटल सुविधा देने पर विचार नहीं करना चाहिए? इससे इस खंड में डिजिटलीकरण तेज करने में मदद मिलेगी।
