उद्योगों से जुड़े नियमों एवं सिद्धांतों से परे हटकर 21वीं शताब्दी की अर्थव्यवस्थाएं सहभागिता और पारिवारिक ढांचे के अनुरूप उद्यमों से तैयार होनी चाहिए। विश्लेषण कर रहे हैं अरुण मायरा
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के रणनीतिकार जेम्स कारविले ने एक बार राजनीतिज्ञों से कहा था, ‘अर्थव्यवस्था लोगों के लिए सबसे अधिक महत्त्व रखती है।
अमेरिका के लगभग 70 फीसदी मतदाताओं का कहना है कि उनके देश का आर्थिक एवं राजनीतिक ढांचा बड़े बदलाव की मांग कर रहा है या फिर नए सिरे से इसका ढांचा तैयार किया जाए तो और अच्छी बात होगी। (न्यूयॉर्क टाइम्स में 13 मई को प्रकाशित एनवाईटी/सिएना सर्वेक्षण के अनुसार)।
सर्वेक्षण में शामिल मतदाताओं को कुछ प्रमुख विषयों को सूची दी गई थी और उन्हें अपनी नजर में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय चुनने के लिए कहा गया था। लोगों ने अर्थव्यवस्था (रोजगार एवं शेयर बाजार) को अपनी पहली प्राथमिकता बताई। रोजगार पर आ रही रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी शेयर बाजार पुराने कीर्तिमान ध्वस्त कर रहा है और वहां रोजगार के नए अवसर सृजित हो रहे हैं।
हालांकि, सर्वेक्षण में यह भी कहा गया है कि इन सकारात्मक परिवर्तनों के बावजूद नवंबर में होने वाले चुनाव में जो बाइडन अपने संभावित प्रतिद्वंद्वी डॉनल्ड ट्रंप से पिछड़ते लग रहे हैं।
अर्थशास्त्रियों को यह बात पल्ले नहीं पड़ रही है कि लोग अमेरिकी अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन से संतुष्ट क्यों नहीं हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स का कहना है कि वॉल स्ट्रीट (अमेरिकी शेयर बाजार) और वॉशिंगटन का ध्यान अन्य एक आर्थिक संकेतक- संघर्ष करते उपभोक्ताओं- ने खींचना शुरू कर दिया है।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था दो खेमों में बंटी है। इनमें एक खेमा वह है जिसके पास सारी सुविधाएं मौजूद हैं, जबकि दूसरा खेमा इनके अभाव से जूझ रहा है। एक अर्थशास्त्री ने द टाइम्स को बताया, ‘जिन लोगों के पास सभी आवश्यक संसाधन मौजूद हैं उनकी व्यय करने की क्षमता काफी अधिक है।‘
इधर, दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में इस समय आम चुनाव हो रहा है। भारत का शेयर बाजार ऊंचे स्तरों पर है और सकल घरेलू उत्पाद (GDP) भी बढ़ रहा है। इस आम चुनाव के परिणाम कई कारकों पर निर्भर करेंगे जिनमें रोजगार और आय की कमी प्रमुख हैं।
देश के शीर्ष 1 फीसदी अमीर लोगों की संपत्ति तो बढ़ रही है (ज्यादातर शेयर एवं वित्तीय निवेशों से) मगर वास्तविक आय स्थिर है और यहां तक कि कई भारतीयों की आय कम हो रही है। देश के 5 फीसदी से भी कम लोगों ने शेयर बाजार में सीधे या म्युचुअल फंडों के जरिये निवेश किए हैं।
शेष लोगों की आय उनकी जरूरतें पूरी करने में ही खर्च हो जाती है या कम पड़ जाती है। अगर इन लोगों को उनके कार्यों से पर्याप्त आय नहीं मिलेगी तो वे भारत की आर्थिक तरक्की को कभी मजबूती नहीं दे पाएंगे।
परिवार, कारखाना एवं अनौपचारिक अर्थव्यवस्था
नीति निर्धारकों ने औपचारिक कार्य एवं औपचारिक उद्यमों को लेकर जो धारणाएं बना रखी हैं उन्हें इसकी अवश्य समीक्षा करनी चाहिए। अर्थशास्त्री इस बात पर दुख जता रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की अत्यधिक अनौपचारिकता (अर्थव्यवस्था में औपचारिक क्षेत्रों की कम भागीदारी) नुकसानदेह साबित हो रही है। इसमें काफी कम कारखाने औपचारिक रोजगार और बहुत ज्यादा परिवार अनौपचारिक उद्यम का हिस्सा हैं।
ऑल्डस हक्सली ने 1932 में ‘ब्रेव न्यू वर्ल्ड’ में औद्योगिक प्रगति की राह पर बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में अत्यधिक ‘फोर्डवाद’ को लेकर आगाह किया था। फोर्डवाद का मतलब यह है कि आर्थिक उद्यम और सरकारी ढांचा हेनरी फोर्ड के संयंत्रों में उत्पादन तंत्र की तरह स्थापित किए जाते हैं।
इसका मकसद उनकी क्षमता और उत्पादन के स्तर में बढ़ोतरी करना है। चार्ली चैपलिन ने फिल्म ‘मॉडर्न टाइम्स’ में आम लोगों के जीवन पर इन आर्थिक मशीनों के असर को पर्दे पर उतारने की कोशिश की थी। आधुनिक अर्थशास्त्री मानव को पारिवारिक जीवन से बाहर लाकर कारखानों के काम में झोंक देते हैं।
लोग भी विवश होते हैं क्योंकि रोजमर्रा की जरूरत पूरी करने के लिए दूसरे विकल्प नहीं सूझते हैं। इससे कार्य और जीवन के बीच समीकरण बिगड़ जाता है और सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा होने लगती हैं। 21वीं शताब्दी में विकसित औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं में ये समस्याएं आम हैं।
जॉर्ज ऑरवेल ने अपने उपन्यास ‘1984’ में बिग ब्रदर (एक ऐसा सिद्धांत जिसमें कोई व्यक्ति या संगठन लोगों के व्यवहार पर नजर रखता है या उसे नियंत्रित करने का प्रयास करता है) की भूमिका का उल्लेख कर दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा था। यह उपन्यास 1954 में प्रकाशित हुआ था।
नागरिक ‘बिग ब्रदर’ की नजरों से बचना चाहते हैं मगर उससे बचना हमेशा मुश्किल साबित होता है। हक्सली के उपन्यास में नागरिक स्वयं अपनी इच्छा से संयंत्रों में मशीनों की तरह काम करना चाहते हैं क्योंकि पर्याप्त आय अर्जित करने का उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
ब्युंग-चुल हान ने अपनी पुस्तक ‘इन्फोक्रेसी’ (2022) में कहा है कि ‘फेसबुकवाद’ से ‘फोर्डवाद’ को और ताकत मिली है। लोग 1984 में ‘बिग ब्रदर’ की नजरों से छुपे हुए थे मगर वे सोशल मीडिया पर अपनी इच्छा से अपनी व्यक्तिगत सूचनाएं देते हैं।
उद्यमों के मालिक इन सूचनाओं को भुनाकर स्वयं के लिए धन जुटाते हैं। लोगों ने 20वीं शताब्दी में अपने कार्य उद्यम चलाने वाले लोगों को बेच दिए और 21वीं शताब्दी में फेसबुक, एमेजॉन और गूगल के मौजूदा दौर में वे अपनी पहचान भी बेच रहे हैं।
वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट की संस्थापक एवं अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर की आर्थिक कार्यबल की सदस्य हेजल हैंडरसन ने 1978 में ‘क्रिएटिंग अल्टरनेट फ्यूचर्सः द एंड ऑफ इकॉनमिक्स’ नाम से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने कहा कि ‘जो मूल्य एवं नजरिया राजनीतिक शक्ति के करीब एवं संरक्षण में होते हैं वे पुरुषवादी मानसिकता- प्रतिस्पर्द्धा, दबदबा, विस्तार आदि- का प्रतिनिधित्व करते हैं।’
उन्होंने आगे लिखा कि ‘दरकिनार किए जाने वाले सिद्धांत सहयोग, पोषण, मानवता और शांति आदि को नारीवादी मानसिकता से जोड़कर देखा जाता है। पुरुषों के दबदबे वाली औद्योगिक प्रणाली के काम करने के लिए पुरुषवादी सिद्धांत आवश्यक होते हैं मगर नारीवादी सिद्धांतों को क्रियान्वयन में लाना काफी मुश्किल होता है’।
अर्थशास्त्र में सुधार
अर्थव्यवस्था को समाज के हितों के लिए काम करना चाहिए न कि आर्थिक सक्षमता एवं जीडीपी का लक्ष्य हासिल करने के लिए समाज की विकृति का कारण बनना चाहिए। 20वीं शताब्दी का अर्थशास्त्र 21वीं शताब्दी की समस्याओं को दूर नहीं कर पा रहा है। इनमें कई समस्याओं को इसी ने जन्म दिया है।
औपचारिक आर्थिक संस्थानों का ढांचा आर्थिक उत्पादन बढ़ाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करने के लिए तैयार किया गया है। धरती को अत्यधिक गर्म होने और पर्यावरण नुकसान से बचाने के लिए मानव को प्राकृतिक तरीके अपनाने की दिशा में लौटना चाहिए। हर जगह सार्वजनिक स्वास्थ्य एक बड़ी समस्या बन गई है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों (जैसे माइकल मार्मोट ने हेल्थ गैप और विवेक मूर्ति ने टुगेदर में) ने मानव स्वास्थ्य पर सामाजिक परिस्थितियों के असर को स्पष्ट किया है। परिवारों एवं समुदायों के टूटने से मानसिक स्वास्थ्य पर असर होता है और इससे सामाजिक अपराध जैसे नशीली दवाओं का सेवन, हिंसा एवं आत्महत्या आदि के मामले बढ़ने लगते हैं।
पारिवारिक माहौल में पलने से बच्चों को लाभ मिलता है। चिकित्सा सेवा में प्रगति और रहन-सहन के स्तर में सुधार से लोग अब दीर्घ अवधि तक जीवित रहते हैं। भारत सहित पूरी दुनिया में युवा लोगों की तुलना में बुजुर्ग लोगों का अनुपात बढ़ता जा रहा है। लोगों की उम्र जैसे बढ़ती है वैसे ही उन्हें अधिक देखभाल की जरूरत भी महसूस होती है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एकीकृत समाधान, पर्यावरण की सुरक्षा और सामाजिक हितों की रक्षा आवश्यक हो गए हैं। उन्हें समुदाय आधारित समाधानों की जरूरत है न कि और बड़े कारखानों की। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था एवं उद्यम और इनके अंतर्गत होने वाले कार्य (ज्यादातर महिलाओं के द्वारा) के भी अपने स्वरूप होते हैं।
उनके स्वरूप कारखानों में होने वाले कार्यों के बजाय पारिवारिक मूल्यों से मेल खाते हैं। 21वीं शताब्दी की अर्थव्यवस्थाएं सहभागिता और पारिवारिक ढांचे के अनुरूप उद्यमों से तैयार होनी चाहिए। 21वीं शताब्दी की समस्याएं निपटाने के लिए यह जरूरी हैं।
सभी का ख्याल रखने वाली अर्थव्यवस्था और हरित अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण के लिए स्थानीय स्तरों पर और परिवार एवं समुदायों के भीतर अधिक प्रयासों की जरूरत है। इन उपायों से 21वीं शताब्दी में रोजगार बढ़ेंगे।
जीडीपी बढ़ाने के लिए महिलाओं को परिवारों एवं समुदायों से बाहर निकाल कर औपचारिक आर्थिक उद्यमों में शामिल करने जैसे औद्योगिक समाधान खोजने के बजाय अर्थशास्त्रियों को परिवार एवं समुदायों में देखभाल से जुड़े कार्यों को ज्यादा महत्त्व देना चाहिए।
(लेखक हेल्पएज इंटरनैशनल के चेयरमैन हैं)