अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के ‘अमेरिका फर्स्ट’ यानी अमेरिकी हित सर्वोपरि रखने के रुख ने व्यापार नीति में अनिश्चितता बढ़ा दी है, जिससे विश्व व्यापार अस्तव्यस्त होने का खतरा खड़ा हो गया है। अमेरिका को जो अनुचित और असंतुलित व्यापार लगता है उसे दुरुस्त करने के लिए शुल्कों की बौछार शुरू हो गई है। भारत का इस पर क्या असर होगा?
ट्रंप की व्यापार नीति के तीन पहलू भारत के लिए नकारात्मक हो सकते हैं। उनकी पड़ताल करना जरूरी है।
बराबरी के शुल्कः राष्ट्रपति ट्रंप ने व्यापार के अनुचित तरीकों वाले देशों पर बराबरी का शुल्क लगाने की घोषणा कर दी है। साझेदार देश अमेरिकी वस्तुओं पर जितना शुल्क लगाते हैं उतना शुल्क अमेरिका भी लगाएगा। मगर शुल्क लगाते समय वह उन देशों द्वारा किए जा रहे कथित भेदभाव का भी ध्यान रखेगा, जिसमें मूल्यवर्द्धित कर, व्यापार में आयात नीति से आ रही बाधा, तकनीकी बाधा तथा डिजिटल व्यापार बाधा शामिल हैं।
यह तो नहीं कहा जा सकता कि अमेरिका बराबरी का कितना शुल्क लगाएगा मगर हमारा विश्लेषण बताता है भारत में शुल्क तथा अन्य व्यापार बाधाएं काफी ज्यादा हैं। अनुमान तो गणना की विधि पर निर्भर करते हैं मगर कुल मिलाकर अमेरिका से भारत आने वाली वस्तुओं पर औसत शुल्क लगभग 9.5 प्रतिशत है, जबकि यहां से अमेरिका जाने वाली वस्तुओं पर औसत शुल्क मात्र 3 प्रतिशत ही है यानी 5 प्रतिशत से ज्यादा अंतर साफ दिख रहा है। क्षेत्रवार बात करें तो कृषि, वाहन, रत्नाभूषण और रसायन एवं दवाओं में शुल्क का अंतर कुछ ज्यादा ही है यानी भारत इन पर अमेरिका की तुलना में अधिक शुल्क लगाता है। शुल्क के अलावा दूसरी व्यापार बाधाओं का हिसाब लगाना मुश्किल होता है मगर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) अमेरिका के खिलाफ ऐंटी-डंपिंग उपायों (देसी बाजार में दूसरे देशों से सस्ते उत्पादों की आमद रोकने के कदम) के मामले में भारत को चीन के बाद दूसरे स्थान पर रखता है। इसका मतलब है कि भारत भी ट्रंप के बराबरी के शुल्कों के निशाने पर है। इससे बचने के लिए सरकार कुछ और उत्पादों पर शुल्क घटा सकती है। वाहन और रसायन में तो ऐसा हो सकता है मगर कृषि वस्तुओं पर शुल्क घटाना राजनीतिक तौर पर बहुत मुश्किल होगा। शुल्क घटाने से दूसरी चुनौतियां भी खड़ी हो जाती हैं। भारत को सर्वाधिक तरजीह वाले देश (एमएफएन) की उस शर्त का भी ध्यान रखना होगा, जिसके मुताबिक किसी भी देश के लिए शुल्क घटाने पर दूसरे व्यापार साझेदारों के लिए भी उतनी ही शुल्क कटौती करनी होगी। इससे देसी कंपनियों के लिए भी होड़ काफी बढ़ जाएगी।
क्षेत्रवार शुल्क: ट्रंप ने सभी इस्पात एवं एल्युमीनियम उत्पादों पर 12 मार्च से 25 प्रतिशत शुल्क लगाने का ऐलान कर ही दिया है। वाहन, दवा एवं सेमीकंडक्टर समेत कई क्षेत्रों पर भी शुल्क बढ़ाने की तैयारी हो सकती है। भारत से अमेरिका को होने वाले निर्यात में इन क्षेत्रों की हिस्सेदारी लगभग 16 प्रतिशत है और दवाओं की तो काफी ज्यादा है। भारत के लिए अमेरिका दवाओं का सबसे बड़ा बाजार है और दवा निर्यात में 35 प्रतिशत हिस्सेदारी उसी की है। लेकिन भारत कम मार्जिन वाली दवाओं का निर्यात करता है और अमेरिका दूसरे देशों पर भी शुल्क जरूर लगाएगा, इसलिए बढ़ी लागत अमेरिकी उपभोक्ताओं को ही उठानी होगी। अमेरिका को होने वाले कुल निर्यात में इस्पात, एल्युमीनियम एवं वाहन की हिस्सेदारी कम है, लेकिन दूसरे देशों ने भारत को ज्यादा निर्यात शुरू कर दिया तो डंपिंग के कारण देश में कीमतें गिर सकती हैं। कुल मिलाकर विभिन्न क्षेत्रों पर शुल्क लगने से भारत के निर्यात पर जोखिम बढ़ जाएगा मगर अमेरिका को वस्तु निर्यात की भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में महज 2.2 प्रतिशत हिस्सेदारी है, इसलिए इसके झटके से संभला जा सकता है।
व्यापार संतुलन: भारत अमेरिका से आयात कम करता है उसे निर्यात अधिक करता है और 2024 में आयात-निर्यात में 38 अरब डॉलर के अंतर के साथ भारत उन शीर्ष 10 देशों में शुमार हो गया, जिनके साथ अमेरिका व्यापार घाटा झेल रहा है। हालांकि अमेरिका से ऊर्जा एवं रक्षा उत्पाद की खरीद बढ़ाने पर इस अंतर की कुछ भरपाई हो जाएगी मगर इससे अमेरिका और शेष दुनिया के बीच भारत का व्यापार संतुलन बदल जाएगा तथा कुल मिलाकर असर काफी कम रहेगा।
ऊपर तीन नकारात्मक पहलू तो बता दिए गए मगर कुछ सकारात्मक बातें भी हैं। उन पर भी विचार होना चाहिए।
चीन का विकल्पः राष्ट्रपति ट्रंप चीन के साथ अमेरिका के आर्थिक एवं व्यापारिक संबंधों की समीक्षा कर रहे हैं। वह चीन पर 10 प्रतिशत अतिरिक्त शुल्क (उपभोक्ता वस्तु सहित) लगाने की घोषणा कर चुके हैं, जबकि अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने ऐसा नहीं किया था। उनकी टीम चीन के साथ स्थायी सामान्य व्यापार संबंधों का आकलन कर रहे हैं, जिसके बाद चीन का एमएफएन का दर्जा खत्म हो सकता है। चुनाव प्रचार में ट्रंप ने चीन से आयात होने वाले सामान पर 60 प्रतिशत शुल्क लगाने की धमकी दी थी और चार साल के भीतर वहां से इलेक्ट्रॉनिक्स, इस्पात एवं दवा सहित आवश्यक वस्तुओं का निर्यात पूरी तरह खत्म करने का प्रस्ताव भी रखा था।
शुल्क के ये प्रस्ताव भारत को व्यापार एवं निवेश के नए मौके दे सकते हैं क्योंकि कंपनियां अब चीन से बाहर विकल्प तलाश रही हैं। हमारा विश्लेषण बताता है कि चीन से हट रही वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के लिए भारत सबसे अहम है क्योंकि यहां बहुत बड़ा उपभोक्ता बाजार है। साथ ही निवेश के स्रोतों में विविधता भी भारत के लिए फायदे की बात है। हमने पाया कि चीनी कंपनियां उत्पादन का ठिकाना बनाने के लिए दक्षिण-पूर्व एशिया में जमकर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कर रही हैं, जबकि भारत का रुख कर रही ज्यादातर कंपनियां अमेरिका, यूरोप और एशिया के विकसित देशों की हैं।
तीसरे देश का जोखिमः ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि यह भी जांच रहे हैं कि चीन दूसरे देशों के रास्ते निर्यात कर अमेरिकी शुल्क से बच तो नहीं रहा है। इसका इलाज किया गया तो दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ देशों को झटका लग सकता है। मगर इससे व्यापार की दिशा और भी बदलने से भारत के लिए नए मौके आएंगे।
रणनीतिक साझेदारः अमेरिका रणनीतिक क्षेत्रों में विनिर्माण अपने देश में या सहयोगी देशों में भेज सकता है। सेमीकंडक्टर में ताइवान तथा दक्षिण कोरिया जैसी विकसित एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को लंबे समय की चुनौती झेलनी पड़ेगी क्योंकि अमेरिका उन्न फैब विनिर्माण में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना चाहता है। मगर भारत हल्की से मझोली तकनीक वाले विनिर्माण पर ध्यान दे रहा है, जो उच्च तकनीक वाले रणनीतिक क्षेत्रों पर ध्यान दे रहे अमेरिका के काम आ सकता है यानी निर्यात बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने की अभी काफी गुंजाइश है।
आपदा में अवसर: ट्रंप के शुल्क भारत के लिए अच्छे और बुरे दोनों हो सकते हैं। बराबरी के शुल्क से इसे खतरा है और कुछ क्षेत्रों के मार्जिन पर असर पड़ सकता है। मगर व्यापार की दिशा और आपूर्ति श्रृंखला बदलने से उसे परोक्ष लाभ भी हो सकते हैं।
ट्रंप का दूसरा कार्यकाल ज्यादातर देशों के लिए नकारात्मक हो सकता है मगर उनके शुल्कों का जाल भारत के लिए मिले-जुले परिणाम ला रहा है, जो भारत को दूसरे देशों के मुकाबले फायदे में रख सकता है।
(लेखिका नोमुरा में मुख्य अर्थशास्त्री (भारत एवं (जापान के अलावा) एशिया) हैं)