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प्रदर्शन के मामले में राज्यों की रैंकिंग में सीमाएं

विकास का कोई एक पैमाना नहीं होता। किसी एक कारक के आधार पर इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। राज्यों के प्रदर्शन पर हाल में आई एक रिपोर्ट की सीमाओं पर चर्चा कर रहे हैं

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एम गोविंद राव   
Last Updated- May 12, 2025 | 11:07 PM IST

राज्यों के प्रदर्शन पर हालिया रिपोर्ट को मीडिया में खूब प्रसारित किया जा रहा है। यह रिपोर्ट हालांकि निजी एजेंसी केयर रेटिंग्स की सहायक फर्म केयर एज रेटिंग्स ने तैयार की है, लेकिन नीति आयोग के सीईओ द्वारा फॉरवर्ड किए जाने के कारण इसे आधिकारिक दर्जा दिया गया है। रिपोर्ट में राज्यों को आर्थिक, राजकोषीय, वित्तीय, बुनियादी ढांचा, सामाजिक, सामान्य प्रशासन और पर्यावरण जैसे सात प्रमुख स्तंभों पर आंका गया और उन्हें रैंकिंग देने के लिए संयुक्त सूचकांक तैयार किया गया है। एजेंसी की ओर से राज्यों की रैंकिंग का यह दूसरा संस्करण है। इससे पहले इसी तरह की रिपोर्ट 2023 में जारी की गई थी। हालांकि रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि दोनों रिपोर्ट की आपस में कोई तुलना नहीं है।

यह पूरी तरह स्पष्ट है कि विकास का कोई एक पैमाना नहीं होता, बल्कि यह बहुआयामी है। किसी एक कारक के आधार पर इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसलिए, विभिन्न मोर्चों पर राज्यों का प्रदर्शन आंकने के लिए सात प्रमुख स्तंभ का इस्तेमाल व्यापक है। रिपोर्ट को तैयार करने में प्रत्येक क्षेत्र की समीक्षा के लिए 50 संकेतकों का उपयोग किया जाता है। इसमें यह सामान्यीकरण की मानक विधि का उपयोग करता है और प्रत्येक स्तंभ या क्षेत्र में उपयोग किए गए वेरिएबल्स को उसकी महत्ता के बारे में परिणाम के आधार अलग-अलग भार देता है और फिर सातों स्तंभों के सूचकांकों का अनुमान लगाया जाता है। फिर इन सूचकांकों के परिणाम के आधार पर अलग-अलग भार देते हुए संयुक्त सूचकांक तैयार किया जाता है।

यह पूरी प्रक्रिया बड़े राज्यों (ग्रुप ए) और पूर्वोत्तर, पहाड़ी तथा छोटे राज्यों (ग्रुप बी) के लिए अलग-अलग अपनाई जाती है। इस प्रकार सातों स्तंभों में समग्र प्रदर्शन के आधार पर राज्यों की सापेक्ष रैंकिंग तैयार की जाती है। राज्यों की संयुक्त रैंकिंग से पता चलता है कि महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक ग्रुप ए में शीर्ष तीन स्थानों पर हैं, जबकि गोवा, सिक्किम और हिमाचल प्रदेश ग्रुप बी में सबसे आगे हैं। मध्य प्रदेश, झारखंड और बिहार ग्रुप ए में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्य हैं, जबकि अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और नागालैंड इस मामले में ग्रुप बी में सबसे नीचे आते हैं।

इस प्रक्रिया के व्यापक महत्त्व का पता तब चलता है जब हम सभी कारकों को दिए गए भार के साथ-साथ उनके सापेक्ष महत्त्व के बारे में परिणाम के आधार पर उनके सूचकांकों को दिए गए अलग-अलग भार का आकलन करते हैं। इस प्रकार, आर्थिक और राजकोषीय जैसे स्तंभों को 25 और 20 फीसदी का भार दिया गया है, वित्तीय और इन्फ्रा स्तंभों में से प्रत्येक को 15 फीसदी तथा सामाजिक एवं प्रशासन में प्रत्येक को 10 फीसदी भार दिया गया जबकि पर्यावरण को 5 फीसदी  का भार मिला है।

संभवतः, सामाजिक बुनियादी ढांचे या मानव विकास को कम महत्त्वपूर्ण माना गया है और इसी प्रकार राज्य के समग्र प्रदर्शन में प्रशासन को भी कम आंका गया है। पूरे विश्लेषण में जो चीज स्पष्ट रूप से गायब है, वह है उन संस्थानों की भूमिका, जिससे प्रोत्साहनों का ढांचा निर्धारित होता है और जो अन्य सभी स्तंभों को प्रभावित करते हैं। इस वर्ष का संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार पाने वाले तीनों अर्थशास्त्रियों- डेरॉन ऐसमोग्लू, साइमन जॉनसन और जेम्स रॉबिन्सन सहित कई अन्य अर्थशास्त्रियों ने प्रोत्साहन के जरिए विकास को प्रभावित करने में संस्थानों की प्रकृति के महत्त्व को रेखांकित किया है।

भारत के मामले में ही देखें तो अभिजित बनर्जी और लक्ष्मी अय्यर ने आर्थिक विकास में इतिहास और संस्थानों की भूमिका पर विस्तार से लिखा (द लेगेसी ऑफ द लैंड टेन्योर सिस्टम इन इंडिया, अमेरिकन इकनॉमिक रिव्यू, 2005, पृ. 1,190-1,213) है। इससे यह समझने में मदद मिलती है कि तमाम संसाधनों के बावजूद क्यों कई राज्य विकास में पिछड़े रहे हैं।

सात स्तंभों में भी अलग-अलग भार देते समय अजीबोगरीब परिणाम आते हैं। उदाहरण के लिए, आर्थिक प्रदर्शन सूचकांक से पता चलता है कि ग्रुप ए राज्यों में तेलंगाना उच्चतम प्रति व्यक्ति आय होने के बावजूद छठे स्थान पर है। इसी तरह बिहार, जिसमें सबसे कम प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) है, वह औसत से अधिक प्रति व्यक्ति जीएसडीपी वाले पंजाब, केरल और आंध्र प्रदेश से ऊपर है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि प्रति व्यक्ति आय के अलावा, सूचकांक मंस सकल राज्य मूल्यवर्धन में उद्योग और सेवाओं की हिस्सेदारी, जीएसडीपी वृद्धि, जीएसडीपी में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की हिस्सेदारी और उद्योग में सकल स्थिर पूंजी निर्माण का मूल्यवर्धन से अनुपात शामिल है।

कुछ संकेतक परिणाम के वेरिएबल्स  हैं, जैसे प्रति व्यक्ति जीएसडीपी और इसकी वृद्धि, जबकि जीएसडीपी में एफडीआई का हिस्सा और जीएफसीएफ का उद्योग में मूल्यवर्धन से अनुपात आदि इनपुट वेरिएबल्स हैं। इससे काफी ओवरलैप होता है। इस प्रकार संकेतकों को चुनने और भार आवंटित करने, दोनों की प्रक्रिया में वैधता और उद्देश्य के बारे में सवाल उठते हैं। संकेतकों के निर्माण में भी समस्याएं हैं। नीति आयोग द्वारा हाल ही में जारी किए गए मुख्य रूप से घाटे और ऋण पर विचार करने वाले राजकोषीय स्वास्थ्य सूचकांक के विपरीत इस प्रक्रिया में राजकोषीय स्तंभ में शिक्षा और स्वास्थ्य खर्च भी शामिल है। हालांकि घाटा और ऋण वेरिएबल्स को दिए गए भार बहुत अधिक हैं।

समस्या इसमें भी है कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले वेरिएबल्स को कैसे तैयार किया जाता है। संकेतकों को कुल व्यय में शिक्षा और स्वास्थ्य व परिवार कल्याण पर खर्च की हिस्सेदारी के रूप में लिया जाता है। एक कम आय वाला राज्य अपने कुल व्यय का बड़ा हिस्सा इन सेवाओं पर आवंटित कर सकता है और फिर भी उसका प्रति व्यक्ति खर्च या प्रासंगिक आयु वर्ग में प्रति समूह खर्च अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कम हो सकता है। इसलिए शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के मानक उच्च आवंटन हिस्सेदारी के बावजूद कम हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनका कर आधार कम है और राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन कानून के कारण उन्हें अपनी कम प्रति व्यक्ति जीएसडीपी के केवल 3 फीसदी उधार लेने की अनुमति होती है। इसलिए, उनका कुल व्यय भी अपने धनी समकक्षों की तुलना में कम हो सकता है।

अमूमन यह देखा गया है कि कम आय वाले राज्यों में प्रति व्यक्ति व्यय भी बहुत कम होती है। यहां तक कि जब वे अपने बजट का बड़ा हिस्सा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के लिए आवंटित करते हैं, तो इन पर वास्तविक प्रति व्यक्ति खर्च बहुत कम होता है। इसके अलावा, इंजीनियरिंग, मेडिकल और कृषि कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों पर होने वाले खर्च को शिक्षा मद में शामिल नहीं किया गया है। इस प्रकार, वेरिएबल्स को लक्ष्यों के अनुरूप तैयार करना भी महत्त्वपूर्ण है। एक और मुद्दा इस सूचकांक के उपयोग से जुड़ा है। संसाधन जुटाने में मदद करने वाली अन्य क्रेडिट रेटिंग के विपरीत यह प्रदर्शन रैंकिंग राज्यों के ऋण की उपलब्धता या लागत को प्रभावित नहीं करेगी, क्योंकि उनके बॉन्डों पर यील्ड कर्व में सॉवरिन गारंटी होती है।  

नीति आयोग के सीईओ के अनुसार, इससे नीतिगत पहलों को आगे बढ़ाने में सक्रिय और पूरक भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती है। वास्तव में यह एक प्रतिस्पर्धी संघवाद में ही हो सकता है। हालांकि, दुर्भाग्य से राज्यों में सरकारों के प्रदर्शन में सुधार के लिए प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने वाले प्रोत्साहन उपाय या जवाबदेही बहुत कम दिखाई देती है।

(लेखक कर्नाटक क्षेत्रीय असंतुलन निवारण समिति के अध्यक्ष हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं।)

First Published : May 12, 2025 | 11:07 PM IST