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पश्चिम में जीवन: आधी हकीकत आधा फसाना

चाहे गोल्डन वीजा लेकर जाएं या डंकी रूट के सहारे पहुंचें, विदेश में जीवन की कल्पना और हकीकत में बहुत अंतर है। विस्तार से बता रहे हैं

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आर जगन्नाथन   
Last Updated- March 06, 2025 | 9:58 PM IST

अरमान और उनसे जन्मे स्वप्न बहुत विचित्र होते हैं। वे इंसान को मुश्किल और कई बार तो असंभव या अवांछित काम करने के लिए कहते हैं चाहे लक्ष्य हकीकत से कोसों दूर मरीचिका की तरह ही क्यों न हो। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अवैध भारतीय प्रवासियों को हथकड़ी-बेड़ी में जकड़कर सेना के जहाज से वापस भेजना शुरू कर दिया है, जिससे कई सपने धूल में मिल गए होंगे। मगर यकीन के साथ ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें अमेरिका ने दूसरी बार निर्वासित किया है। वापस भेजे गए लोगों में से कई ने अवैध तरीके से ‘अमरीका’ और ‘कनेडा’ पहुंचने के लिए अपनी जमीन तक बेच दी होगी और बड़ी रकम उधार ली होगी। उन्हें उधार चुकाने हैं और उसके लिए शायद वे एक बार फिर ‘डंकी रूट’ से उत्तरी अमेरिका जाने की कोशिश करें – इस उम्मीद में कि इस बार किस्मत साथ देगी।

उधर ट्रंप 50 लाख डॉलर का गोल्ड कार्ड लेने पर अमेरिका की स्थायी नागरिकता देने का वादा भी कर रहे हैं। इसे देखकर अमीरों के अरमान और सपने एक बार फिर परवाज भर सकते हैं। पुर्तगाल, ग्रीस, माल्टा, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और कई कैरिबियन देश उन लोगों को गोल्डन वीजा देते आए हैं जो संपन्न देशों (या आसपास के इलाकों) में स्थायी नागरिकता हासिल करने के लिए 2 लाख से 5 लाख यूरो या इससे भी ज्यादा निवेश करने को तैयार हों। उनके बाद लाखों विद्यार्थी भी हैं, जो भारी रकम खर्च कर वहां के औसत विश्वविद्यालयों में दाखिला लेते हैं और उम्मीद करते हैं कि बाद में उन्हें उत्तरी अमेरिका, यूरोप या ऑस्ट्रेलिया में स्थायी नागरिकता मिल जाएगी।

इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कैलिफोर्निया या टैक्सस पहुंचने के लिए किसी संदिग्ध एजेंट को 50 लाख या 1 करोड़ रुपये दे रहे हैं अथवा गोल्डन वीजा हासिल करने के लिए 4-5 करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं। जो सोचकर इतना खर्च तथा जोखिम उठाया जाता है और वहां जो मिलता है, दोनों में बहुत अंतर है, जो अमीर-गरीब के लिए एक जैसा ही होता है। फर्क केवल इतना है कि अमीर लोग कानूनी रास्ते से वहां दाखिल हो सकते हैं और संपन्न देश की जीवनशैली के जो ख्वाब उन्होंने देखे थे, उनमें तथा हकीकत में मौजूद अंतर को सपना पूरा होने की कीमत मानकर भुला सकते हैं।

किसी भी सरकार को लोगों की हसरतों और सपनों के आड़े नहीं आना चाहिए मगर हकीकत से कोसों दूर हसरतों और सपनों के इस बाजार पर अगर भारत लगाम नहीं कसता है तो वह भविष्य में वहां जाने वालों के साथ न्याय नहीं कर पाएगा। जिस तरह वित्तीय योजनाओं को गलत वादों के साथ बेचना सही नहीं माना जाता उसी तरह पश्चिम की जीवनशैली को स्वर्ग की तरह बताकर बेचने की इस हरकत पर भी लगाम लगनी चाहिए। गरीबों के सपनों का फायदा उठाने वालों पर कार्रवाई करने के अलावा सरकार को मीडिया अभियान भी शुरू करना चाहिए ताकि सबको पता चल सके कि सपनों और हकीकत में कितना फर्क है। बिचौलियों और एजेंटों को भोले-भाले ग्राहक मिल जाते हैं क्योंकि वे उनके मन में बैठे सपने पूरे करने की बात कहते हैं।

सबसे पहले तो डॉलर और रुपये का भ्रम तोड़ना होगा। 86-87 रुपये का 1 डॉलर देखकर कोई भी मान सकता है कि अमेरिका में कमाया 1 डॉलर भारत में कमाए 86-87 रुपये के बराबर है। मगर यह तभी है, जब आप डॉलर बचाकर भारत भेज रहे हैं। 1 डॉलर देकर आप अमेरिका में उतना सामान नहीं पा सकते, जो भारत में मिल सकता है। वहां रहना, किराया, आना-जाना बहुत महंगा है। इसलिए लोगों को पता होना चाहिए कि भारत और अमेरिका में रोजाना का खर्च कितना बैठता है। इसके बाद आरामदेह जिंदगी का भ्रम तोड़ा जाए। अगर आप 5 लाख डॉलर भारत में निवेश कर देते हैं तो आपको ताउम्र कुछ नहीं करना पड़ेगा और रकम भी जस की तस बनी रहेगी। साथ ही आप यहां घरेलू सहायक, बढ़ई, होम डिलिवरी, उपकरणों की मरम्मत जैसे काम अमेरिका या कनाडा के मुकाबले कौड़ियों के भाव करा सकते हैं। भारत में ढंग की सुरक्षा वाली किसी रिहायशी सोसाइटी में आप पश्चिम के मुकाबले बेहतर जीवन बिता सकते हैं। हां, वहां सरकार का दखल कम रहता है। डिजिटल जमाने में यह दिक्कत भी कम हो रही है मगर बाबुओं से निपटना पड़े तो आप भी सोचेंगे कि काश, कहीं और रहते। पश्चिम में एक बात अच्छी है – वहां भीड़ और शोरगुल नहीं है।

तीसरी समस्या भारतीयों के साथ नस्लभेद है। डॉलर की चाह में हम इसकी अनदेखी करते हैं मगर चाहे किताबी हिंदुफोबिया हो या दफ्तरों में हिंदुओं के प्रति पूर्वग्रह, नस्लभेद तो है। अब तो अमेरिका के शिक्षा जगत ने वहां हिंदुओं को निशाना बनाने का काम भारत में जाति के लिए काम करने वालों को दे दिया है। भारतीयों को हथकड़ी में भेजकर ट्रंप ने दिखा दिया है कि अमेरिका से हमें कितनी इज्जत मिल रही है। परंतु हमारे टिप्पणीकार ‘डंकी रूट’ से अमेरिका जाने नालों को ऐसे अमानवीय व्यवहार की चेतावनी देने के बजाय इसका इस्तेमाल मोदी सरकार के खिलाफ कर रहे हैं। ऐसे रास्तों से अमेरिका जाने वालों की दर्दनाक यात्राओं पर मीडिया में शायद ही कभी चर्चा होती है, इसलिए गैर-कानूनी तरीकों से जाने की कोशिश कर रहे लोग हकीकत से रूबरू ही नहीं हो पाते।

चौथी भ्रांति अक्सर बॉलीवुड फिल्मों (दिल चाहता है) के जरिये किए गए झूठे प्रचार से बनी है। जब से बॉलीवुड ने गरीबी पर फिल्में बनानी बंद की हैं, वह लगातार विदेश में ही शूटिंग कर रहा है और पश्चिमी जीवनशैली के लिए भ्रांति गढ़ रहा है। देशभक्ति का एकाध गाना छोड़ दें तो बॉलीवुड पश्चिम को स्वर्ग ही दिखाता है। हमें पश्चिम में अमीरी ही दिखाई गई है टाइम्स स्क्वैर पर घूमते भिखारी नहीं। तो क्या बॉलीवुड को अब यह भ्रांति तोड़नी नहीं चाहिए?

पांचवां भ्रम हमारी औपनिवेशिक मानसिकता से जुड़ा है। भारत में हसरतें पश्चिम से इस कदर जुड़ी हैं कि हमारी इमारतों के नाम भी वहीं की तर्ज पर होते हैं। बेंगलूरु में मेरी गेटेड कॉलोनी में सभी इमारतों के नाम मैनहटन की इमारतों के नाम पर हैं। इसलिए आज रिविएरा, पाम बीच, ब्रुकलिन हाइट्स, ब्लूमिंगडेल्स जैसे नाम ही मिलते हैं। पश्चिम की श्रेष्ठ मानने वाली औपनिवेशिक मानसिकता खत्म करने के लिए गंभीर होना पड़ेगा। अगर देश का कुलीन वर्ग यह मानता है कि भारतीय छाप वाला कुछ भी अच्छा नहीं है और हर अच्छी चीज में कुछ पश्चिमी होना चाहिए तो देश कभी तरक्की नहीं कर सकता।

पश्चिम के पीछे भारतीयों की दौड़ की वजह यह भी है कि हमारी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था बेहद घटिया है और इसे फौरन दुरुस्त करना होगा। विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित को छोड़ दें तो स्नातक में ऐसा कुछ नहीं सिखाया जाता, जो उन्हें नौकरी दिला सके। जीवन सुगम होना चाहिए और हमारी अफसरशाही को भी औपनिवेशिक खुमार से उबरकर लोगों की जरूरतें समझनी चाहिए।
मगर लोगों को यह समझाना सबसे जरूरी है कि विदेश में जिस तरह के जीवन की कल्पना वे करते हैं हकीकत उससे बहुत अलग है और वे भारत में वैसी ही जिंदगी जी रहे हैं। पश्चिमी जीवनशैली के मिथक तोड़ना बहुत जरूरी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

First Published : March 6, 2025 | 9:58 PM IST