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फीकी पड़ती चाय: जलवायु परिवर्तन भारत को श्रीलंका और नेपाल की चाय की ओर धकेल सकता है

भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चाय उत्पादक है और चीन स्वभाविक रूप से पहले स्थान पर है। बता रही हैं कनिका दत्ता

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कनिका दत्ता   
Last Updated- October 01, 2025 | 11:51 PM IST

अगर आप चाय के शौकीन हैं और दूध-शक्कर वाली चाय की बजाय दार्जिलिंग या असम की खूशबूदार काली चाय पसंद करते हैं तब आपको श्रीलंका में चाय की बहुत कमी महसूस होगी। हाल ही में श्रीलंका की यात्रा के दौरान मैंने यह बात महसूस की। हालांकि, यह छोटा सा हरा-भरा द्वीप देश, चाय के निर्यात के लिहाज से भारत के बड़े चाय उद्योग को पीछे छोड़ रहा है। बेशक, यह तुलना थोड़ी अनुचित है क्योंकि पश्चिम बंगाल के ऊंचाई वाले इलाकों और ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पैदा होने वाली स्वादिष्ट चाय की अपनी एक प्राकृतिक विशेषता है जिसका मुकाबला अपनी जबरदस्त ब्रांडिंग के बावजूद श्रीलंका की चाय नहीं कर सकती।

यह भी ध्यान देने वाली बात है कि श्रीलंका, भारत के सालाना चाय उत्पादन का सिर्फ एक-तिहाई उत्पादन करता है। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चाय उत्पादक है और चीन स्वभाविक रूप से पहले स्थान पर है। फिर भी, दुनिया के शीर्ष 10 चाय निर्यातकों में दो श्रीलंका की कंपनियां शामिल हैं जबकि भारत की सिर्फ एक कंपनी है। भारत से इस सूची में ब्रिटेन का ब्रांड टेटली है, जिसे टाटा समूह ने साल 2000 में खरीदा था। यह टाटा समूह की सबसे सफल विदेशी खरीद में से एक मानी जाती है।

जब बात चाय के ब्रांड की आती है तो भारत के 170 साल पुराने चाय उद्योग में सिर्फ टेटली ही भारत का झंडा बुलंद किए हुए है। दिलचस्प बात यह है कि टाटा के अधिग्रहण से पहले से ही टेटली एक मशहूर ब्रांड था। लेकिन श्रीलंका का दिलमाह ब्रांड, जो महज 40 साल पुराना है, वह दुनिया के शीर्ष ब्रांडों में से एक है।

वैश्विक बाजार में एक मजबूत भारतीय चाय ब्रांड न बना पाना, भारतीय उद्योग की एक सामान्य कमजोरी को दर्शाता है। महिंद्रा और अमूल जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर, भारतीय ब्रांड वैश्विक बाजार में बहुत कम दिखते हैं। यह कमी दशकों तक चले संरक्षणवाद का नतीजा है, जिसने घरेलू बाजार में कंपनियों को बिना किसी वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना किए शांति से बढ़ने दिया। भारत के सबसे पुराने उद्योगों में से एक रहा चाय उद्योग दरअसल संरचनात्मक समस्याओं का एक अच्छा उदाहरण है। यह उन आर्थिक नीति-निर्माताओं के लिए एक चेतावनी है जो भारत को ऊंचे आयात शुल्क से बचाए रखना पसंद करते हैं।

दशकों तक, जब चाय के आयात पर प्रतिबंध था तब घरेलू बाजार में चाय की कीमतें ऊंची रहीं, जिससे चाय कंपनियों को बहुत मुनाफा हुआ और उनके अधिकारियों को शानदार जीवनशैली के साथ जीने का मौका मिला। भारत के सोवियत संघ के साथ अच्छे संबंधों के कारण, निर्यात गंतव्य भी तय था जो कुल विदेशी बिक्री का लगभग 60 फीसदी था। लेकिन 1991 के बाद यह बाजार खत्म हो गया, जिससे भारतीय उत्पादकों को विदेशी बाजारों में प्रतिस्पर्धा करना सीखना पड़ा। तब तक, श्रीलंका और केन्या ने बहुत आसानी से इस खाली जगह को भर दिया था, और वे गुणवत्ता और कीमत दोनों में सफल हो रहे थे।

कुछ मुश्किलों के बाद, उद्योग ने खुद को बदला। बड़ी कंपनियों ने बागान और उत्पादन के काम से हटकर मूल्यवर्धन और मार्केटिंग पर ध्यान देना शुरू किया। उन्होंने श्रीलंका की तरह शानदार बागान मालिकों के बंगले को पर्यटन के लिए बेहतर मौके के रूप में देखना शुरू कर दिया और अमीर घरेलू ग्राहकों के लिए प्रीमियम चाय ब्रांड लॉन्च किए। भले ही भारत अब भी आयातित चाय पर शत-प्रतिशत सीमा शुल्क (साथ ही 10 फीसदी सामाजिक कल्याण अधिभार) लगाता है, फिर भी कुछ योजनाओं के तहत आयात की अनुमति है और यह बढ़ रहा है, जिससे उद्योग चिंतित है। हालांकि इस उद्योग में आसानी से मुनाफा कमाने के पुराने दिन चले गए हैं और अब यह उद्योग युवाओं (और यह सिर्फ पुरुषों के लिए था) को आकर्षित नहीं करता, जो अच्छे परिवारों से आते थे।

2024 में, जब भारत ने श्रीलंका को दुनिया के दूसरे सबसे बड़े चाय निर्यातक के रूप में पीछे छोड़ दिया, तब थोड़ी खुशी हुई। लेकिन मूल्य के मामले में भारत चीन, श्रीलंका और केन्या के बाद हमेशा की तरह चौथे स्थान पर रहा। यह दर्शाता है कि वैश्विक बाजारों में भारत की कीमत तय करने की ताकत सीमित है।

यह कमी भी पुराने संरक्षणवाद से जुड़ी है। भारत की ज्यादातर चाय सीटीसी (क्रश-टीयर-कर्ल) किस्म की है। यह एक ऐसी उत्पादन तकनीक है जिसे ज्यादा कप चाय बनाने के लिए बनाया गया था। इसमें एक गाढ़ापन होता है जो भारत में पी जाने वाली चाय के लिए बिल्कुल सही है। लेकिन श्रीलंका, अपनी लगभग पूरी चाय निर्यात करता है और यह ज्यादातर पत्ती वाली चाय का उत्पादन करता है, जिसकी वैश्विक बाजारों में ज्यादा मांग है जहां लोग काली चाय पीते हैं। अब, जब भारतीय चाय के साथ-साथ अन्य उत्पादों पर अमेरिका में 50 फीसदी का शुल्क लग रहा है तो ऐसे में उद्योग को एक नई चुनौती का सामना करना पड़ेगा। भारत के कुल वैश्विक चाय बाजार में अमेरिका की हिस्सेदारी लगभग 11 फीसदी है और यह उन कुछ देशों में से एक है जहां भारत, श्रीलंका से काफी अंतर से आगे है।

भारत वास्तव में अमेरिका को चाय की आपूर्ति करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है, जहां इसकी सीटीसी किस्म, ‘चाय-टी’ और अन्य फ्लेवर वाले चायों के लिए इस्तेमाल होती है जिसे अमेरिका के लोग पसंद करते हैं। ट्रंप प्रशासन टैरिफ का जो खेल बाकी दुनिया के साथ खेल रहा है उसके कारण भारत को जापान (15 फीसदी शुल्क) और श्रीलंका (30 फीसदी शुल्क) को मिलने वाले प्रतिस्पर्धी फायदे की वजह से अपनी चाय की कीमत बढ़ाने में खतरा हो सकता है।

एक और चुनौती यह है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पादकता पर असर पड़ रहा है। साथ ही मजदूरों की कमी से मजदूरी बढ़ रही है। नेपाल अपनी नकली दार्जिलिंग चाय से भारत की प्रीमियम चाय को चुनौती दे रहा है। इसके अलावा साल 2000 के बाद से कई मशहूर चाय बागानों के बंद होने से इस उद्योग का दायरा तेजी से कम हो रहा है।

First Published : October 1, 2025 | 11:48 PM IST