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कारोबारी लेनदेन की निश्चितता रखें बरकरार

भूषण पावर के मामले में उच्चतम न्यायालय का आदेश  इस कंपनी  और ऋण  शोधन  अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) दोनों ही के लिए बड़ा झटका है। चर्चा कर रहे हैं

Last Updated- May 19, 2025 | 10:18 PM IST
Supreme Court of India
Bhushan Power insolvency verdict

उच्चतम न्यायालय ने 2 मई को दिवालिया एवं ऋण शोधन अक्षमता  संहिता, 2016 (आईबीएस) के अंतर्गत भूषण पावर ऐंड स्टील (बीपीएस) के समाधान से जुड़ी एक याचिका का निपटारा कर दिया। यह याचिका पांच वर्ष पहले दायर की गई थी। उच्चतम न्यायालय ने एकदम सटीक ढंग से तथ्य आधारित विस्तृत निर्णय दिया। इस आदेश में कई तरह की अनियमितताओं एवं त्रुटियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें कुछ को जान बूझकर और आपसी सांठगांठ से अंजाम दिया गया था। उनमें वे अनियमितताएं भी थीं जो याचिका स्वीकार होने के बाद कंपनी की समाधान योजना की मंजूरी एवं क्रियान्वयन के दौरान हुई थीं।

इस आदेश से जुड़े दस्तावेज में समाधान पेशेवर (आरपी), सफल समाधान आवेदक (आरए), ऋणदाताओं की समिति (सीओसी), राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) और राष्ट्रीय कंपनी विधि अपील न्यायाधिकरण (एनसीएलएटी) की तरफ से हुई गंभीर चूक का भी जिक्र किया गया है। मगर निर्णय में उनमें से किसी के भी खिलाफ कोई रोकथाम, उपचारात्मक या दंड से संबंधित निर्देश नहीं दिए गए हैं और गलतियां करने वाले लोगों को सजा देने का जिम्मा कानून पर छोड़ दिया गया है।

अनियमितताओं से समाधान प्रक्रिया को हुए नुकसान कोमद्देनजर रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने भूषण पावर ऐंड स्टील के परिसमापन का आदेश दिया। संबंधित बाजार भागीदारों (बाजार में वित्तीय गतिविधियों में भाग लेने वाले लोग एवं इकाइयां) एवं विभिन्न एजेंसियों की मंजूरी के बाद 2019 में आईबीसी के अंतर्गत बीपीएस को डूबने से सफलतापूर्वक बचा लिया गया था। कानूनी तौर पर ठीक मगर आर्थिक रूप से कमजोर यह निर्णय प्रभावी रूप से कंपनी और आईबीसी के लिए मृत्यु दंड के समान है और यह वाजिब कारोबार और वृहद अर्थव्यवस्था के लिए झटका है।

जो होना था वह तो हो गया मगर सार्वजनिक नीतियों पर इस पूरे प्रकरण से बदलाव जरूर दिखना चाहिए और उपयुक्त सबक भी लिया जाना चाहिए। बीपीएस के लिए निगमित ऋण समाधान प्रक्रिया 26 जुलाई, 2017 को शुरू हुई थी। समाधान पेशेवर और एनसीएलटी की निगरानी में बाजार के सहभागियों ने लगभग छह तिमाहियों के बाद 14 फरवरी, 2019 को समाधान योजना मंजूरी के लिए सौंपी। वहां से न्यायिक संस्थाओं को योजना मंजूर करने और फिर उसे पलटने में छह वर्ष का समय लग गया।

इससे दो बुनियादी चिंता पैदा होती है। पहली सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा समय रहते प्रक्रिया पूरी करने से संबंधित है। प्रत्येक व्यावसायिक लेनदेन का आधार धन होता है और इसका समय के लिहाज से अपना महत्त्व होता है। जो लेनदेन आज आकर्षक प्रतीत हो रहा है वह भविष्य में बाजार में बदली परिस्थितियों के बीच अपना महत्त्व खो सकता है। लिहाजा, किसी लेनदेन का महत्त्व कम होने से पहले इसे औपचारिक रूप देने और बिना बेवजह देरी किए निष्कर्ष तक पहुंचाने की अदद आवश्यकता होती है। यही कारण है कि आईबीसी जैसे आर्थिक कानूनों में कोई प्रक्रिया शुरू कर उन्हें पूरा करने के लिए एक निश्चित समयसीमा निर्धारित की जाती है।

दूसरी चिंता व्यावसायिक लेनदेन की अंतिम स्थिति या निष्कर्ष से जुड़ी हुई है। एक बार कोई समाधान योजना मंजूर होने और इसके क्रियान्वयन के बाद समय बीतने से जटिलता और लागत दोनों बढ़ने लगती हैं। कई वर्ष बाद फिर उस योजना को पलटने के बड़े आर्थिक एवं संस्थागत परिणाम सामने आते हैं। कोई भी समझदार आवेदक किसी ऐसी योजना में निवेश नहीं करेगा जिसके साथ यह जोखिम जुड़ा रहता है कि कोई प्राधिकरण कुछ वर्षों या दशकों बाद भी इसे पलट सकता है। हालांकि उच्चतम न्यायालय का यह आदेश दिवालिया संहिता से जुड़ा हुआ है मगर लेकिन इसका असर आईबीसी से इतर भी दिखता है। यह आदेश संकेत देता है कि कोई भी व्यावसायिक लेनदेन, चाहे कितने भी लंबे समय से क्रियान्वयन में क्यों नहीं रहा है या सरकार की कितनी ही एजेंसियों से इसे अनुमति क्यों नहीं मिली है, उसके खारिज होने का खतरा बना रहता है। यह स्थिति कारोबार के लिए अनिश्चितता बढ़ा देती है और नियम आधारित आर्थिक प्रणाली को झकझोर कर रख देती है।

यहां दो ढांचागत विषमताओं का जिक्र करना जरूरी है, जिनमें पहली समयसीमा से जुड़ी हुई है। व्यावसायिक लेनदेन के लिए विभिन्न पक्षों को तात्कालिक जरूरत एवं संयोजन के साथ कदम उठाना पड़ता है। आईबीसी में इस बात का खास ख्याल रखा गया है। सीओसी और आरए को नीति निर्धारक की भूमिका दी गई है जबकि न्यायिक संस्थानों (एनसीएलटी, एनसीएलएटी और उच्चतम न्यायालय) को मंजूरी या अनुमति आदि से जुड़े उत्तरदायित्व दिए हैं। इसके अलावा आरपी को ‘सूत्रधार’ की भूमिका में रखा गया है। बाजार के नियम बाजार के भागीदारों के लिए कड़ी समय सीमा तय करते हैं और न्यायालयों ने भी उन्हें अनिवार्य माना है। मगर न्यायिक प्राधिकरणों के मामले में न्यायालय समय सीमा की शर्त को अनिवार्य नहीं मानते हैं और तर्क देते हैं कि न्यायालय का कदम किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएगा।

बाजार के भागीदार तो अपनी तरफ से तेजी से प्रक्रिया शुरू करते हैं और किसी तरह की देर होने पर उसकी जिम्मेदारी भी लेने के लिए तैयार रहते हैं। देर होने की सूरत में उन पर कानूनी प्रतिबंध एवं अन्य जोखिमों की तलवार लटकती रहती है। किंतु न्यायिक प्राधिकरण समय सीमा तय किए बगैर काम करते हैं और देर होने पर जिम्मेदारी भी नहीं लेते। न्यायिक प्राधिकरणों में प्रत्येक स्तर अपनी चाल से आगे बढ़ता है जिससे मामला लंबा खिंचता जाता है। बाजार के भागीदारों की तरफ से सभी प्रक्रियाएं पूरी होने के बाद भी न्यायिक स्तर पर मामला फंसने से काम पूरे नहीं हो पाते हैं। ऐसे में अब यह जरूरी हो गया है कि न्यायालय दूसरों को समय सीमा का पालन करने के लिए कहे और स्वयं भी इसका पालन करे।

दूसरी विषमता नीति निर्धारक ढांचे में है। बाजार के भागीदारों को बिना समय गंवाए तुरंत निर्णय लेना होता है और परिणाम की पूरी जवाबदेही भी उनकी ही होती है। इसके उलट न्यायिक ढांचा कई स्तरों पर कार्य करता है, जहां प्रत्येक स्तर अपने निचले स्तर के निर्णय को संशोधित कर सकता है और वह भी किसी योजना को मंजूरी मिलने या क्रियान्वयन के वर्षों बाद। वे इससे होने वाले नुकसान की जवाबदेही भी नहीं लेते हैं। अगर बाजार में सक्रिय इकाइयों के लिए निर्णायक रूप से काम करना अनिवार्य है तो राज-काज से जुड़े संस्थानों को भी समान मानकों का पालन करना चाहिए। अगर कारोबारी निर्णय पलटे नहीं जा सकते तो सरकारी तंत्र से मिली मंजूरी भी नहीं पलटी जा सकती।

कारोबार और देश की अर्थव्यवस्था के हित तभी हैं, जब व्यावसायिक लेनदेन में निश्चितता है। ऐसे लेनदेन को अगर केवल अधिकार प्राप्त प्राधिकरण मंजूरी दे तो बेहतर होगा। यह भी प्रावधान किया जाना चाहिए कि अगर अधिकृत प्राधिकरण एक निश्चित अवधि में कदम उठाने में असफल रहते हैं तो इसे स्वतः मंजूरी मान लिया जाए।

अगर सारी प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी अनियमिताएं पाई जाती हैं तो उनके लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए। मगर इससे जुड़े व्यावसायिक लेनदेन पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए। व्यावसायिक लेनदेन प्रभावित किए बिना दोषियों को सजा देने का यह सिद्धांत प्रतिभूति न्याय शास्त्र में भी होना चाहिए। स्टॉक एक्सचेंज पर हुए सौदे कभी पलटे नहीं जाते हैं और न ही सार्वजनिक निर्गम वापस लिए जाते हैं। उनमें गंभीर अनियमितताएं होने के बावजूद वे पलटे नहीं जाते हैं। पहले सार्वजनिक निर्गमों को सरकार से अनुमति की जरूरत होती थी मगर 1990 के दशक के शुरू में इसे खत्म कर दिया गया। इसकी जगह नियामकीय ढांचा काफी मजबूत बनाया जा चुका है जिससे लेनदेन से जुड़ी निश्चितता बरकरार रखते हुए जवाबदेही सुनिश्चित की गई है।

अब समय आ गया है कि कानून, नीति और संस्थान पूरे हो चुके किसी व्यावसायिक लेनदेन के साथ छेड़-छाड़ न करें। यह बात सभी आर्थिक नियामकीय ढांचे का आधार होनी चाहिए। कानूनी ढांचे को कड़ी निगरानी व्यवस्था शुरू करनी चाहिए ताकि अनुचित व्यवहारों पर नजर रखी जा सके और गलती करने वालों की जवाबदेही तय की जा सके। लेकिन ऐसी निगरानी व्यवस्था को ऐसे व्यावसायिक लेनदेन से अलग रखा जाना चाहिए जिसे कानूनी मंजूरी मिल गई है या स्वीकृत माने जा चुके हैं। अब हमें एक स्तरीय मंजूरी प्रणाली का गठन करना चाहिए और इसकी जिम्मेदारी पेशेवर रूप से सक्षम प्राधिकरण को दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही संस्थागत उत्तरदायित्व का भी प्रावधान होना चाहिए।

(लेखक आईबीबीआई के चेयरमैन रह चुके हैं)

First Published - May 19, 2025 | 10:06 PM IST

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