प्रतीकात्मक तस्वीर
केंद्र और राज्य सरकारें गरीबों की मदद करने के नाम पर बुनियादी ढांचे पर जो भारी-भरकम सब्सिडी देती हैं, उनसे लक्षित वर्ग को तो उतना लाभ नहीं मिला है, बल्कि इसने विकसित भारत का लक्ष्य प्राप्त करने की राह में रोड़े ही अटकाए हैं। चाहे आप इसे कुछ भी कह लें, लेकिन जब तक तमाम सब्सिडी सुविधाओं का पुनर्मूल्यांकन नहीं होगा, भारत की विनिर्माण महाशक्ति बनने की चाहत अधूरी ही रहेगी। सब्सिडी में यह विरोधाभास ऐसी वास्तविकता है, जिसका खमियाजा आखिरकार गरीबों को ही भुगतना पड़ता है। यह गरीबों और वास्तविक जरूरतमंदों के लिए सब्सिडी के खिलाफ तर्क नहीं है, लेकिन भारत सूचना प्रौद्योगिकी का पावरहाउस है। यदि तकनीक का इस्तेमाल कर सुनियोजित तरीके से कल्याणकारी योजनाओं को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के रूप में पेश किया जाए तो बेहतर परिणाम हासिल हो सकते हैं।
शुरुआत ऊर्जा क्षेत्र से करते हैं। लंबे समय से लगभग निष्क्रिय पड़े इस क्षेत्र में वर्ष 1990 के दशक में सुधारों की पहली लहर आई और निजी क्षेत्र से निवेश आकर्षित करने के लिए राज्यों ने अपने बिजली बोर्डों को उत्पादन, ट्रांसमिशन और वितरण कंपनियों में विभाजित करना शुरू कर दिया। यही नहीं, उन्होंने बिजली खरीद समझौतों (पीपीए) के रूप में सुधार का एक और मॉडल पेश किया। दस वर्षों के दौरान इन निरंतर नियामकीय सुधारों के चलते बिजली उत्पादन क्षेत्र में निजी खिलाडि़यों की पूरी जमात खड़ी हो गई। आज देश में जितनी बिजली बन रही है, उसमें लगभग आधी हिस्सेदारी निजी क्षेत्र की है।
लेकिन, वितरण के मोर्चे पर अभी भी तमाम समस्याएं बनी हुई हैं, जहां राज्य के स्वामित्व वाली वितरण कंपनियों या डिस्कॉम का दबदबा है। देश में बिजली की 90 फीसदी से अधिक खपत डिस्कॉम के जरिए होती है। किसानों को मुफ्त अथवा भारी सब्सिडी वाली दरों पर बिजली देने की नीति के कारण वे मुख्य रूप से राज्यों के हाथों में हैं। हरित क्रांति को फलदायी बनाने के लिए लाई गई इस नीति के साथ कई विडंबनाएं जुड़ी हैं। सबसे पहली, मुफ्त या सब्सिडी पर बिजली देने वाले सामाजिक दायित्व को पूरा करने के कारण डिस्कॉम भारी नुकसान उठाते हैं। इस वजह से वे नई प्रौद्योगिकी अपनाने की दिशा में अधिक निवेश नहीं कर पा रहे। सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग प्रणाली पर दबाव बढ़ रहा है जो डिस्कॉम के कर्ज का भार उठाते हैं। इसके साथ ही लगातार बढ़ती क्रॉस-सब्सिडी की मार औद्योगिक एवं वाणिज्यिक उपभोक्ताओं पर बिजली की लागत वृद्धि के रूप में पड़ रही है, जिससे उद्योग जगत में बिजली की दरें गैर-प्रतिस्पर्धी बनी हुई हैं।
वित्तीय स्थिति सुधारने के उद्देश्य से वर्ष 2001 से डिस्कॉम के लिए पांच बेलआउट पैकेज और पुनर्गठन योजनाएं लाई गईं, लेकिन सभी विफल रहीं क्योंकि कोई भी राज्य सरकार कृषि बिजली दरों में वृद्धि जैसा जोखिम उठाने को तैयार नहीं। उन्हें डर रहता है कि समाजवादी विचारधारा वाले लोग ऐसे किसी भी कदम का विरोध कर सकते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि यह नीति शायद ही उस छोटे किसान को कोई लाभ पहुंचाती है, जिसे वास्तव में इसकी सबसे अधिक जरूरत है। ऐसा इसलिए, क्योंकि कृषि के लिए मुफ्त बिजली सबसे अधिक सिंचाई के उद्देश्य से भूजल निकालने के लिए लगे मोटर पंपों में खर्च होती है। बड़े किसानों की शक्तिशाली लॉबी कभी नहीं चाहेगी कि उनकी मुफ्त बिजली सुविधा खत्म हो। किसानों को मुफ्त या सब्सिडी पर बिजली देने के दो विपरीत प्रभाव सामने हैं। पहला, भूजल का अंधाधुंध दोहन, जिससे खासकर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में जल संसाधनों में भारी कमी हो रही है। दूसरा, अनेक सरकारी सिंचाई योजनाओं के बारे में जागरूकता की कमी। बिखरी जोत और पंपसेट में निवेश करने के लिए सीमित संसाधनों के कारण बड़ी संख्या में छोटे तथा सीमांत किसान वर्षा-आधारित खेती पर निर्भर हैं। इसका कृषि उत्पादकता पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है।
मूल्य निर्धारण में विसंगति का खमियाजा रेलवे को भी भुगतना पड़ रहा है। यह विशाल रेल नेटवर्क हर दिन 1.3 करोड़ लोगों को सफर कराता है। आम आदमी को राहत देने के उद्देश्य से रेलवे की गैर-प्रीमियम सेवाओं में भारी सब्सिडी दी जाती है। रेल मंत्री के अनुसार ट्रेन से प्रति किलोमीटर यात्रा की लागत 1.38 रुपये आती है, लेकिन यात्रियों से केवल 73 पैसे ही वसूले जाते हैं यानी उन्हें 47 फीसदी की सब्सिडी दी जाती है। इस सब्सिडी को भरने के लिए सरकार मोटी रकम देती है और जो कमी रह जाती है, वह रेलवे माल ढुलाई और प्रीमियम एसी यात्री सेवाओं से पूरी की जाती है। इस क्रॉस-सब्सिडी नीति के साथ समस्या यह है कि रेलवे की माल ढुलाई सेवाएं पिछले कुछ दशकों में पिछड़ गई हैं और सड़क परिवहन की हिस्सेदारी बढ़ गई है। नतीजतन, अब माल ढुलाई से होने वाला कुल मुनाफा, यात्री सेवाओं से होने वाले नुकसान की खाई को भरने के लिए पर्याप्त नहीं पड़ रहा है। जहां तक एसी सेवाओं की बात है तो इनमें से कुछ ऐसी हैं, जो कई वर्षों से अच्छा पैसा कमा रही हैं, लेकिन यह भी कुल यात्रियों का 5 फीसदी यानी एक छोटा सा हिस्सा ही है। सरकारी नीति के अनुरूप कम लागत वाली एयरलाइंस के प्रसार और बढ़ते हवाई संपर्क के कारण इस खंड की मांग भी घटने की संभावना है। ऐसी आशंका उस समय उभर रही है जब देश में सेमी हाई-स्पीड प्रीमियम वंदे भारत ट्रेन सेवा में भारी निवेश किया जा रहा है। रेल सेवाओं को आधुनिक बनाने, ट्रैक नवीनीकरण, सिग्नलिंग सिस्टम और स्टेशनों के पुनर्विकास में बजट प्रावधान के जरिए करोड़ों का निवेश हो रहा है। लेकिन रेलवे के 90 फीसदी से अधिक यात्रियों को सफर कराने वाले सामान्य और गैर-एसी कोच वाली ट्रेनों में यात्रियों को भीड़भाड़, असुविधा, गंदगी, असुरक्षा और लेटलतीफी जैसी समस्याओं का सामना करना आम बात है। यात्रा की गुणवत्ता सुधारने के बजाय गरीबों को एक से दूसरी जगह ले जाने को ही उनकी सेवा समझा जा रहा है।
रेलवे की माल ढुलाई सेवाओं में भी अनेक खामियां हैं। उच्च मांग वाले मार्गों पर सुस्त सेवाएं और अंतिम छोर तक माल पहुंचाने की सुविधा की कमी के कारण ही लोगों का इससे मोह भंग हो रहा है और वे सड़क मार्ग से निजी क्षेत्र की अपेक्षाकृत महंगी परिवहन सेवाओं को प्राथमिकता दे रहे हैं। इससे माल ढुलाई में रेलवे की हिस्सेदारी कम हो रही है। विशेष रूप से माल ढुलाई के लिए तैयार हो रहे रेल गलियारे के पूरी तरह चालू होने पर स्थिति में थोड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है। लेकिन क्या यह महत्त्वाकांक्षी परियोजना देश के निम्न-आय वर्ग के लोगों के लिए ट्रेन यात्रा की गुणवत्ता और गतिशीलता की तस्वीर बदलने में मदद कर पाएगी, यह सवाल जस का तस खड़ा है।