पिछले सप्ताह शुक्रवार को वित्त मंत्रालय के वित्तीय सेवा विभाग ने देश के तमाम वित्तीय संस्थानों के समक्ष एक योजना पेश की जिसके तहत छह माह के ऋण स्थगन (मार्च से अगस्त 2020) की अवधि के दौरान चक्रवृद्धि ब्याज और सामान्य ब्याज के बीच के अंतर की राशि अनुग्रह राशि के रूप में लोगों को भुगतान की जाएगी। यह योजना उन सभी कर्जदारों के लिए है जिन्होंने बैंकों तथा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से 2 करोड़ रुपये तक का ऋण ले रखा है। इसमें आवास वित्त कंपनियां और सूक्ष्म वित्त कंपनियां भी शामिल हैं। इसमें सूक्ष्म ऋण, शिक्षा ऋण, आवास ऋण, टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं से संबंधित ऋण, वाहन ऋण, व्यक्तिगत ऋण और खपत ऋण के साथ-साथ क्रेडिट कार्ड का बकाया भी शामिल हो सकता है।
ऐसा भुगतान एक किस्म का अनुग्रह है या इसका भुगतान नैतिक दायित्व समझ कर किया जाता है, न कि किसी विधिक आवश्यकता की वजह से। परंतु यह वैसा मामला नहीं है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने सरकार को यथाशीघ्र इसके क्रियान्वयन का निर्देश दिया है। मकसद है कोविड-19 महामारी से प्रभावित कर्जदारों की मदद करना। ऋण स्थगन के दौरान ब्याज भुगतान की माफी से संबंधित जनहित याचिका की अंतिम सुनवाई में 14 अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वह कर्जदारों को ब्याज माफी का लाभ दिए जाने के तरीके को लेकर चिंतित है। उसने जोर देकर कहा कि लोगों की परेशानी दूर करने के लिए ठोस कार्य योजना पर काम किया जाए।
वित्त मंत्रालय की 23 अक्टूबर की अधिसूचना इसी की प्रतिक्रिया में है। मामला 2 नवंबर को पुन: सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय में पेश होगा। क्या यह योजना इस मुद्दे पर परदा डाल देगी?
इससे पहले सितंबर में सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से कहा था कि ऋण की स्थगित किस्तों का ब्याज माफ करना वित्तीय क्षेत्र की बुनियादी समझ के खिलाफ है और यह उनके साथ ज्यादती होगी जिन्होंने समय पर अपना ऋण चुकाया।
आइए योजना पर एक नजर डालते हैं:
-हर वह कर्जदार इसके दायरे में होगा जिसका कर्ज 2 करोड़ रुपये से अधिक नहीं है।
-29 फरवरी, 2020 तक देनदारी चूकने वाले इसमें शामिल नहीं होंगे।
-ब्याज माफ नहीं किया जा रहा है, सरकार केवल साधारण ब्याज और चक्रवृद्धि ब्याज के बीच का अंतर लौटाएगी।
यह योजना सबके लिए है। संबंधित संस्थान चक्रवृद्धि ब्याज और साधारण ब्याज के अंतर का भुगतान करेंगे, भले ही कर्जदार ने ऋण स्थगन का पूरा लाभ लिया हो या आंशिक। जिन लोगों ने ऋण स्थगन का लाभ न लेकर समय पर अपने कर्ज की किस्त चुकाई उन्हें भी इसका फायदा मिलेगा। भारतीय स्टेट बैंक को तमाम बैंकों के दावों के निपटान की केंद्रीय एजेंसी बनाया गया है। सरकार उसी के जरिये भुगतान करेगी।
बैंकरों के अनुमान के मुताबिक इसकी लागत करीब 6,500 करोड़ रुपये पड़ेगी। ज्यादातर लोगों को न्यायपालिका का हस्तक्षेप रास नहीं आया लेकिन सरकार की योजना तीन वजहों से समझदारी भरी दिखती है: इसमें दो करोड़ रुपये की सीमा तय की गई है और यह बड़े कर्जदारों के लिए नहीं है, ब्याज लागत माफ नहीं की जा रही और इसका लाभ सबको दिया जा रहा है। यानी यह ऋण संस्कृति को प्रभावित नहीं करेगी।
नई मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) का लिखित ब्योरा और रिजर्व बैंक के निगरानी के रुख को लेकर एक बड़े बैंक के अर्थशास्त्री ने कहा कि रिजर्व बैंक आखिरी ओवरों की तरह ताबड़तोड़ छक्के-चौके लगा रहा है। क्रिकेट के संदर्भ में भी इसे नकारात्मक माना जाता है क्योंकि तकनीक के बजाय ताकत पर भरोसा किया जाता है। मैं उक्त अर्थशास्त्री से सहमत नहीं हूं। आरबीआई की भूमिका बिल्कुल सधी हुई है और उसकी तकनीक में खामी तलाश करना मुश्किल है। यदि एमपीसी के ब्योरों पर जाएं तो यह स्पष्ट है कि केंद्रीय बैंक और दरें तय करने वाली समिति पूरी तरह तैयार हैं।
एमपीसी की पिछली बैठक में मुद्रास्फीति को बड़ी चिंता के रूप में दर्शाया गया था। उस वक्त एक सदस्य ने उपचारात्मक उपाय की बात की थी लेकिन इस बार सभी छह सदस्य इस बात पर सहमत हैं कि मुद्रास्फीति में कमी आएगी और एक बार इसका दबाव हटने के बाद वृद्धि को सहायता दी जा सकेगी। यानी अगले वर्ष दरों में कमी आ सकती है। वृद्धि को गति देने के लिए जब तक आवश्यकता होगी तब तक आक्रामक मौद्रिक नीति लागू रहेगी।
नये सदस्यों में से एक जयंत वर्मा ने इतने दूरगामी निर्देशन को लेकर असहमति व्यक्त की। उनका तर्क है कि भविष्य के कदम आंकड़ों पर आधारित होने चाहिए। माना जा सकता है कि एमपीसी अपने समायोजन वाले रुख पर बनी रहेगी, बशर्ते कि मुद्रास्फीति कोई बड़ी चुनौती न पेश करे।
वर्मा का वक्तव्य चर्चा में है लेकिन इसकी वजह उनकी असहमति नहीं है बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने कहा कि भारत का उपज वक्र दुनिया में सबसे तेज ढलान वालों में से एक है। उन्होंने यहां तक कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि तीव्र ढाल वाला उपज वक्र एमपीसी के मौजूदा समायोजन वाले निर्देशन के प्रति विश्वसनीयता की कमी को दर्शाता है।
यकीनन एक वर्ष बाद भारतीय उपज वक्र में तीव्र ढलान है। एक वर्ष तक यह 3.35 प्रतिशत की रिवर्स रीपो दर के अनुरूप या उस दर के अनुरूप है जिस पर बैंक अपना अधिशेष रिजर्व बैंक के पास रखते हैं। परंतु परिपक्वता अवधि लंबी होने के साथ ही इस वक्र में कड़ाई आने लगती है। वर्मा के अनुसार लंबी अवधि की दरों में तीव्र कमी आवश्यक है। इस बीच अल्पावधि की दरें भी 3.34 प्रतिशत हैं। दरों में कमी का लाभ अपेक्षाकृत कम है और जोखिम के बराबर नहीं है।
इस बात से कोई शायद ही असहमत हो। रिजर्व बैंक ने हर नीलामी में अपनी द्वितीयक बाजार की बॉन्ड खरीद दोगुनी कर दी है। उसने सरकारी प्रतिभूतियां खरीदनी शुरू कर दीं और वह विभिन्न परिपक्वता वाले बॉन्ड की खरीद और बिक्री एक साथ कर रहा है। नतीजा सबके सामने है। 10 वर्ष के बॉन्ड पर प्रतिफल जो अप्रैल के आरंभ में 6.5 फीसदी हो गया था वह गत सप्ताह 5.84 फीसदी रह गया। रिजर्व बैंक के कदमों के चलते लंबी अवधि का उपज वक्र सपाट हो सकता है जबकि अगले वर्ष दरों में कटौती की संभावना बरकरार है।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक एवं जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठ परामर्शदाता हैं)
