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पूर्वानुमान नहीं सहज ज्ञान की दरकार

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 15, 2022 | 1:08 PM IST

एक अनुमान, एक आकलन और एक पूर्वानुमान के बीच फर्क होता है। आकलन का आधार पुराने रुझान होते हैं। पूर्वानुमान एक आर्थिक मॉडल पर आधारित होते हैं जो आंकड़ों का इस्तेमाल कर भावी आर्थिक गतिविधियों के बारे में भविष्यवाणी करते हैं।
कोविड संकट ने डेटा-संचालित आकलनों को गलत साबित कर दिया है क्योंकि अतीत से भविष्य के लिए कोई भी मार्गदर्शन नहीं मिलता है। पूर्वानुमान के परंपरागत मॉडलों को कोविड की वजह से आपूर्ति-मांग पर लगे जबरदस्त झटके को भी ध्यान में रखने के लिए नए सिरे से तैयार करना होगा। इसलिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बारे में अधिकांश पूर्वानुमान असल में अनुमान ही हैं, शायद सबसे अच्छे तरीके से लगाए अनुमान।
अनुमानों में भविष्यवाणी करने के लिए उच्च-तीव्रता वाले डेटा का इस्तेमाल किया जाता है, लिहाजा उनका जीवन सीमित होता है। यही वजह है कि अप्रैल 2020 में किए गए पूर्वानुमान मई और जून में किए गए पूर्वानुमानों से कहीं अधिक आशावादी थे। अप्रैल में फिच रेटिंग्स, बार्कलेज, क्रिसिल, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार सभी ही कम लेकिन फिर भी सकारात्मक वृद्धि की बात कर रहे थे। मई मध्य तक यह साफ हो गया था कि लॉकडाउन एकल बाजार को पंगु बना देगा और उच्च आय क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधि धराशायी हो जाएगी। इसलिए गोल्डमैन सैक्स ने यह अनुमान जताया कि वित्त वर्ष 2020-21 की दूसरी तिमाही में 45 फीसदी की गिरावट आने से वास्तविक जीडीपी पांच फीसदी तक कम हो जाएगी।
लेकिन गत 29 मई को जारी अस्थायी अनुमानों ने 2019-20 में वास्तविक जीडीपी वृद्धि 4.2 फीसदी रहने की बात कही गई जो गत जनवरी में जारी पांच फीसदी के अग्रिम अनुमानों से काफी कम है। इस तीव्र गिरावट की वजह लॉकडाउन नहीं थी। भारत की जीडीपी वृद्धि पिछले कुछ समय से धीमी पड़ती जा रही है। अनुमान ने इस रुझान की पुष्टि भी कर दी।
इस तरह हम एक ऐसी स्थिति से गुजर रहे हैं जहां जीडीपी वृद्धि में संरचनात्मक ह्रास और महामारी की वजह से आई गिरावट को लेकर एक बड़े झटके का मेल है। हमें इससे निपटने के लिए विश्लेषणात्मक ढांचा तैयार करने के बारे में सोचना शुरू करने की जरूरत है। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने इस दिशा में प्रयास किए हैं। वर्ष 2019-20 में जीडीपी के 4.2 फीसदी रहने का अनुमान लेकर चल रहे बैंक ने एक विश्लेषणात्मक ढांचा बनाने की बात की है जिसमें कोविड के आर्थिक दुष्प्रभावों से विभिन्न राज्यों में जीडीपी में अब तक हुई कुल क्षति का अनुमान रखा गया है। यह उच्च-तीव्रता संकेतकों में वाहनों के पंजीकरण एवं आवागमन जैसे ह्रासोन्मुख रुझानों को भी ध्यान में रखता है। फिर महामारी विज्ञान संबंधी रुझानों के साथ उसका मिलान भी करता है। इस विश्लेषणात्मक मसौदे का इस्तेमाल करते हुए वह 2020-21 के लिए वास्तविक जीडीपी वृद्धि के नकारात्मक 6.8 फीसदी रहने का अनुमान जताता है। इस क्षति में 40 फीसदी अंशदान शुद्ध अप्रत्यक्ष कर में आने वाली गिरावट की वजह से होगा जबकि बाकी नुकसान आर्थिक गतिविधियों के सुस्त पडऩे की वजह से होगा।
मैंने अपने साथी अमेय सप्रे के साथ मिलकर एक विश्लेषणात्मक प्रयास किया है जो जीडीपी में संरचनात्मक ह्रास को शुरुआती बिंदु के तौर पर लेता है। फिर हम महामारी के कारण लगे मांग एवं आपूर्ति झटकों के प्रभाव का भी आकलन करते हैं।
हम क्षेत्र के आउटपुट पर इसके प्रभावों के आकलन से आपूर्ति के मोर्चे पर लगे झटके का अनुमान लगाते हैं। उपलब्ध सूचना के आधार पर हम एक पुनर्बहाली कारक की संकल्पना रखते हैं- वित्त वर्ष 2019-20 में हुए मूल्य संवद्र्धन का एक हिस्सा कोविड का प्रकोप खत्म होने पर साल भर में बहाल हो जाएगा। हम लोक प्रशासन, रक्षा, ऊर्जा एवं जलापूर्ति की सौ फीसदी बहाली की उम्मीद करते हैं। हमें प्राथमिक क्षेत्र में अच्छी रिकवरी (80 फीसदी), विनिर्माण, वित्त एवं अन्य शहरी सेवाओं में मध्यम रिकवरी (70 फीसदी) और खनन, निर्माण, व्यापार एवं आतिथ्य क्षेत्र में खराब रिकवरी (60 फीसदी) की उम्मीद है। इससे बुनियादी कीमतों पर सकल मूल्य-वद्र्धन (जीवीए) में 18.7 फीसदी की कमी दिखती है जो इस संकट के सामने न आने पर हासिल कर ली जाती। यह आंकड़ा 2019-20 के जीवीए की तुलना में 2020-21 के जीवीए में कटौती की सरल गणना से अलग (13 फीसदी कम) है। इसका प्रभाव यह मानकर चलता है कि कोविड महामारी नहीं आने पर शून्य वृद्धि हुई रहती।
वहीं मांग पक्ष के बारे में हम खपत व्यय, विदेश व्यापार और निश्चित एवं थोक निवेश में आई गिरावट की गणना करते हैं। इससे वर्ष 2020-21 में जीडीपी वृद्धि 17.8 फीसदी कम रहने का अनुमान मिलता है जिसके लिए कोविड महामारी जिम्मेदार है।
यह विश्लेषण बेहद बुरी स्थिति की ओर इशारा करता है। यह मानकर चलता है कि कीमतें 2019-20 के स्तर पर बनी रहेंगी। अगर ऐसा होता है तो जीडीपी में नुकसान संख्या समायोजन घटित होने से मांग के आकार के अनुमान के अनुरूप ही होगा। अगर कीमतों का स्तर स्थिर रहता है तो नॉमिनल जीडीपी ह्रास कम होगा। अगर संबद्ध कीमतें इस तरह बदलती हैं कि आय प्रभाव सकारात्मक है तो जीडीपी में नुकसान कम ही होगा। अगर बचत एवं जीडीपी का अनुपात गिरता है ( किसी भी संकट के समय आम तौर पर एहतियाती बचत नहीं रहती है) तो जीडीपी में आने वाली गिरावट और बढ़ जाएगी। आखिर में, मांग को लगने वाले आघात के आकार को देखते हुए एक सही ढंग से तैयार मांग प्रोत्साहन पैकेज आने से 2020-21 के जीडीपी में आने वाली गिरावट थामने में मदद मिलेगी।
हमारा प्रयास और एसबीआई का आकलन दोनों ही कोई पूर्वानुमान नहीं हैं। ये उन परिस्थितियों को समझने की कोशिश करते हैं जो बेहद अलग विश्लेषणात्मक ढांचों पर आधारित हैं। वे नीतिगत हस्तक्षेप का स्वरूप तय करने में उपयोगी हैं क्योंकि वे उभरती आर्थिक स्थिति के नजरिये से न्यायसंगत एवं अंशशोधित हैं।
कोविड संकट ने अर्थशास्त्रीय पेशे को बुनियादी चीजों के बारे में नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया है। अत्यधिक प्राचलिक परिवर्तन के दौर में आंकड़ों पर आधारित कवायदों का मूल्य कम ही है। साधारण साम्यावस्था सिद्धांत में निहित प्रारूप उस समय शक्तिहीन हो जाते हैं जब कोविड रूपी एक ही परिघटना मांग एवं आपूर्ति दोनों के झटके देती है। बढिय़ा नीतिपरक अर्थशास्त्र को ऐसे विश्लेषणात्मक ढांचे सुझाने की जरूरत है जिनका इस्तेमाल नीतियों को बनाने एवं संशोधित करने में किया जा सके। कोविड काल में सस्ती कंप्यूटिंग क्षमता नहीं बल्कि सहज-ज्ञान पर आधारित चिंतन एक बार फिर बड़ा काम करेगा।
(लेखक नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी के निदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

First Published : June 11, 2020 | 11:27 PM IST