बजाज ऑटो के प्रबंध निदेशक एवं मुख्य कार्याधिकारी राजीव बजाज ने पिछले सप्ताह यह कहकर खतरे की घंटी बजा दी कि अगर चीन ने दुर्लभ खनिजों का निर्यात रोक दिया तो भारत के इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग का पहिया थम जाएगा। इलेक्ट्रिक वाहनों में इस्तेमाल होने वाले चुंबक (चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करने के लिए) के लिए दुर्लभ खनिज महत्त्वपूर्ण होते हैं।
बजाज की चिंता बेवजह नहीं है। भू-राजनीतिक तनाव बढ़ने और व्यापार युद्ध की लपटें भड़कने के साथ ऐसी सुर्खियां हमें कुछ असहज वास्तविकताओं से साक्षात्कार कराती हैं। दुनिया आपूर्ति व्यवस्था में चीन के दबदबे पर काफी निर्भर है और भारत भी इसका अपवाद नहीं है। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई), रोबोटिक्स, हरित ऊर्जा और रक्षा जैसे कई क्षेत्रों में चीन का उत्थान कोई कोरी कल्पना नहीं बल्कि वास्तविकता बन चुकी है। चीन का उभार महज संयोग नहीं बल्कि वहां की सरकार की महत्त्वाकांक्षा, सुनियोजित क्रियान्वयन और संसाधनों के बेहद उम्दा इस्तेमाल का नतीजा है।
चीन के ताकतवर बनने का असर दक्षिण एशिया में खास तौर पर दिखेगा। स्वतंत्र विश्लेषकों का कहना है कि कुछ दिनों पहले भारत और पाकिस्तान के बीच हुई संक्षिप्त सैन्य झड़प में चीन से मिली सैन्य तकनीक के कारण इस्लामाबाद को शुरुआती अस्थायी बढ़त मिली होगी। पाकिस्तान अपने कुल रक्षा आयात का 80 फीसदी हिस्सा चीन से हासिल करता है। भारत और पाकिस्तान दोनों ने एक दूसरे पर हमले किए और दोनों ही पक्ष एक दूसरे को भारी नुकसान पहुंचाने का दावा कर रहे हैं मगर वास्तविक विजेता तो चीन रहा। चीन दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन को अपनी बढ़ती ताकत के साथ प्रभावित कर रहा है।
पिछले सप्ताह भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का जश्न मना रहा था मगर ऐसी निरर्थक उपलब्धियां गहरे असंतुलन को झुठला देती हैं। उदाहरण के लिए चीन के साथ व्यापार एकतरफा ही रहा है। वित्त वर्ष 2024-25 के पहले दस महीनों में चीन को भारत से निर्यात लगभग 15 फीसदी कम होकर 11.5 अरब डॉलर रह गया। इसकी तुलना में चीन से भारत को निर्यात 3.3 फीसदी बढ़कर 101.7 अरब डॉलर हो गया। चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार होने के साथ ही उसका सबसे बड़ा रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धी भी है। यह एक ऐसा विरोधाभास है जिसे भारत को बिना किसी देरी के स्वीकार कर लेना चाहिए।
पिछले कई वर्षों से चीन को विनिर्माण के लिए एक किफायती केंद्र के रूप में देखा जाता रहा है। मगर अब ऐसी बात नहीं रह गई है। जब शी चिनफिंग ने 2012 में सत्ता संभाली तो उन्होंने मूल्य श्रृंखल में चीन को ऊपर ले जाने की अपनी मंशा किसी से छुपाई नहीं। वर्ष 2015 में शुरू ‘मेड इन चाइना 2025’ के खाके में कुछ रणनीतिक क्षेत्रों जैसे एरोस्पेस और सेमीकंडक्टर से लेकर स्वच्छ ऊर्जा और जैव-तकनीक को प्राथमिकता दी गई। कई लोगों ने इसे महज एक आकांक्षा बता कर खारिज कर दिया लेकिन चीन चुपचाप अपने इस उद्देश्य की पूर्ति में लगा रहा।
नतीजे भी सामने आ रहे हैं और ये भारी भरकम हैं। कई अत्याधुनिक क्षेत्रों में चीन न केवल तेजी से आगे बढ़ रहा है बल्कि नेतृत्व भी कर रहा है। यह दुनिया में अधिकांश इलेक्ट्रिक वाहन, सोलर पैनल, पवन चक्की (विंड टरबाइन) और ड्रोन तैयार करता है। दुनिया में दुर्लभ खनिजों के प्रसंस्करण पर इसका 60 फीसदी तक नियंत्रण है और यह दुनिया में सक्रिय दवा सामग्री (बल्क ड्रग) की कुल जरूरत के 40 फीसदी हिस्से की आपूर्ति भी करता है। चीन में सबसे अधिक उच्च गति वाले रेल तंत्र हैं और यह सालाना सबसे अधिक औद्योगिक रोबोटिक्स स्थापित करता है।
संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन के अनुसार वर्ष 2030 तक वैश्विक विनिर्माण में चीन की हिस्सेदारी 45 फीसदी तक पहुंच जाएगी, जो इस समय 30 फीसदी है और 2000 में महज 6 फीसदी थी। जो थोड़ी बहुत खामियां हैं उन्हें भी दुरुस्त किया जा रहा है। सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन अभी भी चुनौती है मगर फाइनैंशियल टाइम्स के अनुसार हुआवे पश्चिमी देशों की पाबंदियों की काट निकालने के लिए एक स्वदेशी चिप आपूर्ति व्यवस्था तैयार कर रही है।
एआई के मामले में भी चीन की कंपनियां तेजी से अंतर पाट रही हैं। इस साल के शुरू में चीन की स्टार्टअप कंपनी डीपसीक ने ओपनएआई को टक्कर देने के लिए एक एआई मॉडल की शुरुआत की। इसने काफी कम लागत पर यह कारनामा कर दिखाया जिसके बाद दूसरी तकनीकी कंपनियां भी इस दिशा में कदम बढ़ाने लगीं। चीन इतने भर से ही संतुष्ट नहीं है और अब भविष्य में अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए जमीन तैयार करने में जुट गया है। चीन ने मार्च में फ्रंटियर टेक्नोलॉजी (आधुनिक तकनीक के विकास का अगला चरण) जैसे क्वांटम कंप्यूटिंग और रोबोटिक्स में निवेश करने के लिए 138 अरब डॉलर के वेंचर कैपिटल फंड की शुरुआत की है। वहां शोध एवं विकास पर भी व्यय लगातार बढ़ता जा रहा है। बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) ने चीन का प्रभाव दक्षिण और मध्य एशिया में बढ़ा दिया है जिसमें भारत का पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान भी शामिल है।
चीन की सभी क्षेत्रों में ताबड़तोड़ प्रगति भारत के लिए कई लिहाज से अहमियत रखती है। तकनीकी और आर्थिक मोर्चों पर चीन का दबदबा बढ़ने के साथ भारत को कई प्रकार की असमंजस की स्थितियों से जूझना होगा। चीन से आयात पर अधिक निर्भरता से घरेलू उद्योगों को नुकसान पहुंच रहा है। किसी खास तकनीक में अवरोध का खतरा भी बढ़ रहा है क्योंकि चीन 5जी और एआई में नए मानक तय कर रहा है। राजनीतिक स्तर पर भी चीन का रुतबा बढ़ता जा रहा है। यह भारत के पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक संबंध बढ़ा रहा है और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अपनी सैन्य ताकत का एहसास करा रहा है। चीन की सॉफ्ट पावर भी बढ़ती जा रही है। ऑनलाइन खंड में भी चीन प्रचार युद्ध जीत रहा है और स्वयं को सामाजिक व्यवस्था और तकनीक-समर्थ देश के रूप में प्रचारित कर रहा है। वर्ष 2025 में ‘डेमोक्रेसी परसेप्शन इंडेक्स’ के लिए 100 देशों में 1.10 लाख से अधिक लोगों से बात की गई, जिनमें चीन की लोकप्रियता अमेरिका की तुलना में अधिक रही।
तो अब भारत को क्या करना चाहिए? आर्थिक बदलाव का सूत्र या ब्लूप्रिंट (खाका) किसी से छुपा नहीं है। जापान ने इसे आगे बढ़ाया। दक्षिण कोरिया, ताइवान और सिंगापुर (आंशिक रूप से थाईलैंड और मलेशिया) ने इसकी नकल की। चीन ने इसका आकार कई गुना बढ़ा दिया। जहां तक भारत की बात है तो यहां आगे बढ़ने के लिए सभी जरूरी खूबियां हैं। यहां युवाओं की एक बड़ी आबादी है, एक जीवंत उद्यमशील वर्ग है और एक मजबूत शैक्षणिक आधार भी है। बस कमी है तो गंभीर इच्छाशक्ति और लक्ष्यों के प्रति गंभीर होने की।
मगर चीन की तरह बाज की नजर और दीर्घ अवधि के लक्ष्य तय कर उनके त्वरित क्रियान्वयन की क्षमता रखने की उम्मीद भारत के नेताओं एवं अधिकारियों से नहीं की जा सकती। मगर भ्रष्टाचार पर प्रहार कर शुरुआत जरूर की जा सकती है। चिनफिंग ने अपनी नीतियों में भ्रष्टाचार के खात्मे को प्रमुखता दी थी। ऐसे अभियान संपन्नता लाने की गारंटी तो नहीं देते लेकिन इनसे यह संकेत जरूर जाएगा कि भारतीय नेतृत्व कम से कम राष्ट्र निर्माण को लेकर गंभीर है। फिलहाल जैसा चल रहा है उससे तो बात बनने वाली नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की शैली में कहें तो चीन के तरकश में सभी लक्ष्य साधने के बाण मौजूद हैं।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन में ट्रस्टी हैं)