संसद की स्थायी समिति की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत रक्षा शोध एवं विकास पर बहुत कम धनराशि खर्च करता है। रिपोर्ट में अमेरिका तथा अन्य देशों के साथ तुलना भी की गई है। यदि यह सही है तो हमें क्या करना चाहिए?
रक्षा पर विशुद्ध व्यय से शुरुआत करें तो अमेरिका इस पर करीब 780 अरब डॉलर की राशि व्यय करता है जो वैश्विक रक्षा व्यय का 40 फीसदी है। इसके बाद वाले 10 देश मिलकर भी इतना खर्च नहीं करते। चीन 250 अरब डॉलर के साथ वैश्विक रक्षा में 13 फीसदी और भारत 72 अरब डॉलर के साथ चार फीसदी का हिस्सेदार है। रूस, यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी, फ्रांस और जापान में से प्रत्येक 2.5 से 3 फीसदी राशि रक्षा पर खर्च करता है। भारत रक्षा शोध एवं विकास तथा उपकरणों पर भी अच्छी खासी राशि खर्च करता है। विशुद्ध संदर्भ में देखें तो अमेरिका का रक्षा शोध एवं विकास व्यय भारत के तीन अरब डॉलर से 30 गुना है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का आकार 23 लाख करोड़ डॉलर है जबकि भारत की अर्थव्यवस्था 3 लाख करोड़ डॉलर की है। यदि भारत भी अमेरिका के समान अपने सकल घरेलू उत्पाद का 0.4 प्रतिशत हिस्सा रक्षा शोध एवं विकास पर व्यय करे तो हमारा बजट चार गुना हो जाएगा इसके बावजूद हमारा व्यय अमेरिका की तुलना में सातवें हिस्से के बराबर होगा। इसलिए जब तक हमारी अर्थव्यवस्था बराबरी करने लायक विकसित नहीं हो जाती हम रक्षा व्यय अथवा रक्षा शोध एवं विकास में चीन और अमेरिका की बराबरी करने की सोच भी नहीं सकते। हमें मौजूदा रक्षा शोध एवं विकास से ही बेहतर नतीजे हासिल करने होंगे।
अधिकांश अमीर देशों से तुलना करें तो असली फर्क शोध एवं विकास कार्यों की फंडिंग में नजर आता है। अमेरिका में सार्वजनिक शोध एवं विकास को सरकार की ओर से फंडिंग की जाती है। यह फंडिंग निजी उद्यमों, सरकारी और निजी विश्वविद्यालयों तथा सार्वजनिक शोध संस्थानों को भी होती है। भारत में फंड तथा शोध विकास करने वालों में थोड़ा अंतर है और यहां सार्वजनिक तथा निजी शोध एवं विकास में स्पष्ट अंतर है। भारत में सार्वजनिक फंडिंग वाला शोध सार्वजनिक संस्थानों में होता है जबकि निजी फंडिंग वाले शोध एवं विकास कार्य निजी उपक्रमों में किए जाते हैं। सन 2019 में अमेरिकी सरकार ने 140 अरब डॉलर की राशि शोध एवं विकास पर व्यय की लेकिन उसने खुद केवल 60 अरब डॉलर की राशि व्यय की। अमेरिकी सरकार ने उच्च शिक्षा में शोध के लिए 50 अरब डॉलर की राशि की फंडिंग की जबकि निजी उद्योग में 30 अरब डॉलर लगाए।
रक्षा शोध एवं विकास पर भी यही बात लागू होती है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय अपने शोध एवं विकास फंड का 40 फीसदी हिस्सा अपनी प्रयोगशालाओं में लगाता है। 60 फीसदी राशि रक्षा मंत्रालय को दी जाती है लेकिन शोध कार्य निजी उद्यम एवं विश्वविद्यालय करते हैं।
भारत का मामला अलग है। भारत में सरकारी फंडिंग वाले राष्ट्रीय रक्षा एवं शोध व्यय के 63 फीसदी में से 7 फीसदी सरकारी उच्च शिक्षा तंत्र में जाता है जबकि 56 फीसदी सरकार की स्वचालित प्रयोगशालाओं में जाता है। देश में शोध एवं विकास करने वाली शीर्ष एजेंसियों में रक्षा शोध एवं विकास संस्थान (डीआरडीओ) शामिल है जो केंद्रीय रक्षा शोध एवं विकास व्यय में 27 फीसदी व्यय करता है। अंतरिक्ष विभाग 16 फीसदी तथा परमाणु ऊर्जा विभाग में 9 फीसदी है।
अधिकांश पर्यवेक्षक कहेंगे कि देश में रक्षा शोध की गति धीमी है। हमारी दो सबसे बड़ी परियोजनाएं मुख्य आयुध टैंक अर्जुन और हल्का लड़ाकू विमान तेजस, 40 साल से प्रक्रिया में हैं। परंतु ये दोनों अभी भी रक्षा क्षेत्र की पहली पसंद नहीं हैं। इसके बजाय हमारी सेना के ज्यादातर टैंक रूस से आयात किए गए हैं तथा हमारी वायु सेना भी रूसी सुखोई तथा मिग विमानों पर निर्भर है। हमारा दावा सामरिक स्वायत्तता का है लेकिन मेरा मानना है कि अगर हम रूसी हथियारों पर इस कदर निर्भर न होते तो शायद संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन से जुड़े मतदान पर हमारा रुख अलग होता।
हालिया बजट में घोषणा की गई कि डीआरडीओ की फंडिंग का 25 प्रतिशत हिस्सा उच्च शिक्षा तथा निजी क्षेत्र के लिए अलग रखा जाएगा। यह एक बड़ी घोषणा है। सही ढंग से क्रियान्वयन होने पर यह नवाचार को बढ़ावा देने वाला साबित होगी तथा रक्षा उद्योग को मजबूती प्रदान करेगी। डीआरडीओ का वर्तमान वर्ष का बजट 21,000 करोड़ रुपये है। समूचे भारत के उद्योग जगत की ओर से शोध एवं विकास पर 55,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे जबकि उच्च शिक्षा में 9,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे। डीआरडीओ से 5,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त फंडिंग अगर रक्षा के लिए हो तो बहुत बड़ा अंतर आएगा। आईडेक्स नामक एक योजना स्टार्टअप में रक्षा नवाचार को फंड करती है। हालांकि इसका आंकड़ा काफी कम है। इसने तीन वर्षों में 100 फर्मों को 70 करोड़ रुपये फंड किए हैं।
प्रभावी क्रियान्वयन के लिए यह आवश्यक है कि 25 फीसदी का आकलन 21,000 करोड़ रुपये के पूरे बजट में से किया जाए। यदि इसका असर डीआरडीओ की प्रयोगशालाओं में काम करने वाले लोगों के वेतन बिल पर पड़ता है तो कर्मचरियों को उच्च शिक्षा या उद्योग के व्यय में शामिल किया जाना चाहिए या कहीं न कहीं से पैसा जुटाया जाना चाहिए। सबसे शक्तिशाली तरीका होगा प्रतिस्पर्धी प्रक्रिया जहां कंपनियां और विश्वविद्यालय किसी खास रक्षा उपकरण के विकास या किसी खास विषय पर शोध के लिए बोली लगाएं और राशि इस बजट से दी जाए। आईडेक्स स्टार्टअप भी इसमें भागीदारी कर सकते हैं। तेज नवाचार के रूप में सफलता के कारण समय के साथ निजी उद्योग की हिस्सेदारी डीआरडीओ के बजट के आधे तक बढ़ सकती है।
दुनिया भर में रक्षा व्यय कम ही रहता है। रक्षा शोध एवं विकास में और कम पैसे खर्च किए जाते हैं। उदाहरण के लिए परमाणु हथियारों के शोध पर होने वाला खर्च ऊर्जा विभाग में दिखाया जाता है। परंतु उपरोक्त आंकड़ों से गुजरते हुए मुझे यही लगा कि भारत की समस्या रक्षा शोध एवं विकास में खर्च की जाने वाली राशि नहीं बल्कि यह है कि हम उसे कहां खर्च करते हैं यानी स्वायत्त सरकारी प्रयोगशालाओं में। अगर इस व्यय के बड़े हिस्से को निजी क्षेत्र में व्यय किया जाए तथा उसे निजी क्षेत्र के रक्षा उपकरण उत्पादन से जोड़ा जाए तो देश के रक्षा उद्योग में नवाचार पूरी तरह बदल सकता है। तब भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक होने से आगे बढ़ सकता है। रक्षा शोध एवं विकास से होने वाला नवाचार देश को रक्षा उत्पादन में स्वायत्त बना सकता है। ऐसा करते हुए हम विदेश नीति में जरूरी रणनीतिक स्वायत्तता भी हासिल कर सकते हैं।
(लेखक फोब्र्स मार्शल के सह-चेयरमैन, सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष और सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी इनोवेशन ऐंड इकनॉमिक रिसर्च के चेयरमैन हैं)
