लेख

व्यापार की नई तस्वीर में भारत की तकदीर

वैश्विक व्यापार के बदलते दौर में भारत के पास ढेर सारे अवसर हैं। इनसे कैसे लाभ लिया जाए। बता रहे हैं अजय श्रीवास्तव

Published by
अजय श्रीवास्तव   
Last Updated- September 26, 2023 | 9:45 PM IST

विश्व व्यापार गंभीर बदलाव के दौर से गुजर रहा है। अमेरिका और यूरोपीय संघ की सरकारों ने व्यापार नीति के बजाय औद्योगिक नीति पर जोर देना शुरू कर दिया है। वे विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों का पालन करने के बजाय स्थानीय उत्पादन और रोजगार को प्राथमिकता दे रही हैं।

अमेरिकी सरकार तो गैर-अनुपालन डब्ल्यूटीओ शुल्क लगा रही है और घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अच्छी-खासी सब्सिडी दे रही है। इस बीच, यूरोपीय संघ नई आयात बाधाओं को जायज ठहराने के लिए जलवायु सरोकारों का इस्तेमाल कर रहा है। आर्थिक स्थिरता और राजनीतिक प्रभुत्व पर खुले व्यापार के जोखिम होते हैं। यह एक नई सोच है जिसने व्यापार विशेषज्ञों, शोधार्थियों और अकादमिशियनों को हैरानी में डाल दिया है।

आइए समझते हैं कि ये बदलाव क्यों हो रहे हैं और इन बदलती परिस्थितियों में भारत कैसे अपने हितों को सुरक्षित कर सकता है। अमेरिका ने शुरू में कंपनियों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए विनिर्माण को आउटसोर्स करने को बढ़ावा दिया जो मिल्टन फ्रायडमैन की 1970 के दशक की उस अवधारणा के अनुरूप था जिसके अनुसार कारोबारों को लाभ को ही सबसे अधिक तरजीह देनी चाहिए।

हालांकि इसके अप्रत्याशित परिणाम हुए और चीन दुनिया के विनिर्माण केंद्र के रूप में उभरने लगा। वॉशिंग मशीनों, लैपटॉप, दूरसंचार उपकरणों और खिलौनों के लिए चीन अनिवार्य बन गया। उसका एकाधिकार सोलर सेल, लीथियम-आयन बैटरियों और इलेक्ट्रॉनिक कलपुर्जों तक बढ़ता गया जिससे उसकी हठधर्मिता को बढ़ावा मिला।

चीन को अमेरिकी टेक्नोलॉजी और सैन्य प्रभुत्व के लिए खतरा मानते हुए अमेरिका ने इसके जवाबी प्रयास शुरू किए। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने चीन के अनेक आयात पर ऊंचे आयात शुल्क लगा दिए जबकि बाइडन प्रशासन ने चीन के सुपर कंप्यूटर और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) उद्योग को निशाना बनाया। लेकिन चीन पर लगाम कसना ही एकमात्र रणनीति नहीं थी।

Also read: Opinion: लोकतंत्र में विपक्ष के विचारों का हो सम्मान

इसके साथ-साथ अमेरिका ने व्यापक पैमाने पर पुनर्औद्योगीकरण कार्यक्रम की शुरुआत भी की जिसमें सेमीकंडक्टरों, महत्त्वपूर्ण खनिजों, ईवी बैटरियों और दवाओं के घरेलू उत्पादन के लिए प्रोत्साहन शामिल थे। अमेरिकी इन्फ्लेशन रिडक्शन ऐक्ट 2022 के तहत स्वच्छ ऊर्जा और आधुनिक विनिर्माण के लिए 370 अरब डॉलर आवंटित किए गए। जिस अमेरिका ने 1970 से 2015 तक औद्योगिक नीति के मुकाबले खुले व्यापार को प्राथमिकता दी थी, उसके रुख में यह एक बहुत बड़ा बदलाव था।

यूरोपीय संघ भी पीछे नहीं रहा। अकेले वर्ष 2023 में उसने पांच महत्त्वपूर्ण नियमन लागू किए जिनमें मुख्य था वन कटाई नियमन और कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मेकैनिज्म से जुड़ा कानून। इन नियमों के कारण कृषि और औद्योगिक सामान के वैश्विक व्यापार पर विपरीत असर पढ़ने की आशंका है जबकि इनके पूरी तरह लागू होने से यूरोपीय संघ के लिए हर वर्ष 500 से लेकर 800 अरब डॉलर संपत्ति का सृजन होने की संभावना है।

तरस इस बात पर है कि यूरोपीय संघ अपने किसानों और उद्योगों को अरबों डॉलर की सब्सिडी देता है जबकि दूसरे देशों द्वारा दी गई सब्सिडी की जांच का अधिकार खुद लेना चाहता है। अकेले यूरोपियन ग्रीन डील से ही अगले 10 वर्ष में एक लाख करोड़ यूरो जुटाए जाने का लक्ष्य है जिसमें से 503 अरब यूरो यूरोपीय संघ के बजट से आएंगे।

भारत की बात

तमाम खामियों के बावजूद भारत के इस नई विनिर्माण व्यवस्था में जिसे अमेरिका का समर्थन है, महत्त्वपूर्ण देश के रूप में उभरने की संभावना है। ऐपल और माइक्रोन का भारत में निवेश इस रुझान को दर्शाता है।आइए इन निवेश के ज्यादा गहरे प्रभाव को समझते हैं।

वर्ष 2000 के दशक की शुरुआत में चीन के इलेक्ट्रॉनिक्स के बड़े केंद्र के रूप में उभार के लिए ऐपल जैसी उन पश्चिमी देशों की कंपनियां के समन्वित प्रयासों को श्रेय दिया जा सकता है जिन्होंने चीन की कंपनियों के साथ नजदीक से काम किया और कलपुर्जा सप्लायर के रूप में वैश्विक गुणवत्ता मानक हासिल करने में मदद की। इससे वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक्स डिजाइन और विनिर्माण के तंत्र में चीन का दबदबा बना।

लेकिन अब जबकि अमेरिका सक्रिय रूप से चीन का विकल्प ढूंढ रहा है तो सारा ध्यान भारत की ओर है।अक्टूबर 2022 में अमेरिकी निर्यात नियंत्रण नियमों के तहत 16 नैनोमीटर से छोटे चिपों के लिए चीन के उत्पादन की मदद सीमित कर दी गई। इस प्रतिबंध के कारण ऐपल को अपना कुछ उत्पादन भारत ले जाने को आंशिक रुप से बढ़ावा मिला क्योंकि आईफोन 15 प्रो मैक्स जैसे फोनों को, जिनमें तीन नैनोमीटर चिप का इस्तेमाल होता है, अब चीन में नहीं बनाया जा सकता।

भारत का स्मार्टफोन निर्यात 2022-23 में 12 अरब डॉलर को पार कर गया जिससे इस साझेदारी की महत्त्वपूर्ण संभावनाएं जाहिर होती हैं। सेमीकंडक्टर के क्षेत्र में भी हम माइक्रोन की साझेदारी के जरिए इस तरह के रुझान का अनुमान लगा सकते हैं।

Also read: बैंकिंग साख: सूक्ष्म वित्त क्षेत्र के लिए नया सवेरा

जहां तक भारत की बात है उसे विनिर्माण प्रतिस्पर्धा बढ़ाने और व्यापार प्रवाह को सहज बनाने के लिए निम्न आठ कदम उठाने चाहिए। ये इस तरह हैं –

1. विनिर्माण योजनाओं से जुड़े लाभ खत्म किए जाएं। इनमें विशेष आर्थिक क्षेत्र, निर्यातोन्मुखी इकाइयां और सीमा शुल्क से जुड़े विनिर्माण, जिनमें विभिन्न कर लाभ और आयात शुल्क ढांचा शामिल हैं। नई योजनाएं अक्सर बेहतर प्रोत्साहन देती हैं लेकिन इनमें बदलाव की लागत भी होती है जिससे वे कंपनियां बंद हो जाती हैं जो बदलाव नहीं अपनातीं।

2. मुक्त व्यापार समझौतों पर तभी हस्ताक्षर कीजिए जब वे भारत के आर्थिक हितों के अनुकूल हों। हिंद प्रशांत आर्थिक व्यवस्था में शामिल होने से बचिए क्योंकि इनमें डब्ल्यूटीओ के अतिरिक्त मानक भी हैं जिनसे भारत का हित नहीं सधता।

3. डिजिटल व्यापार, श्रम, पर्यावरण, कृषि और शुल्कों पर किसी भी तरह की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से पहले घरेलू कानून को ठीक कीजिए।

4. यूरोपीय संघ के लगाए अनुचित जलवायु कर का निर्णायक तौर पर जवाब दीजिए। हमने पहले भी जवाब दिया है। मार्च 2018 में जब अमेरिका ने भारत के इस्पात और एल्युमीनियम आयात पर शुल्क लगाए तो भारत ने अमेरिका के 29 विशेष उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ाकर जवाब दिया।

5. सीमा शुल्क में कटौती की जाए, विशेषकर उन उत्पादों पर जिनमें आयातित कच्चे माल का इस्तेमाल होता है। कम शुल्क से तैयार सामान की लागत घटने से विनिर्माण के साथ-साथ निर्यात को बढ़ावा मिलता है, खासतौर से छोटी इकाइयों को लाभ होता है। जहां मेक इन इंडिया कार्यक्रम के लिए महत्वपूर्ण कुछ उत्पादों पर उच्च शुल्क बरकरार रखे जा सकते हैं वहीं आम रुझान लघु उद्योग क्षेत्र की निर्यात संभावनाओं को बढ़ाने के लिए आयात शुल्क में कटौती का होना चाहिए।

Also read: Editorial: नीतिगत बेतरतीबी

6. नैशनल ट्रेड नेटवर्क (एनटीएन) बनाकर एकल खिड़की व्यवस्था लागू करके निर्यात अनुपालन को सहज बनाया जाए। इस एकीकृत नजरिये से निर्यातकों को सीमा शुल्क, विदेश व्यापार महानिदेशालय, शिपिंग कंपनियों, बंदरगाहों और बैंकों से अलग से बात करने की जरूरत खत्म हो जाएगी। एनटीएन के जरिए प्रक्रिया को आसान बनाने से न केवल लागत और समय बचेगा बल्कि छोटे उद्योग निर्यातक बनने में सक्षम हो सकेंगे।

7. ऊर्जा आयात से निपटने की जरूरत है। वित्त वर्ष 2023 में 260 अरब डॉलर के साथ यह आयात भारत के कुल वाणिज्य आयात का 36.6 प्रतिशत था। अनुमानित वृद्धि के अनुसार ऊर्जा आयात बिल दिसंबर 2026 तक एक लाख करोड़ डॉलर पार कर सकता है। 80 के दशक में भारत कच्चे तेल की अपनी 85 प्रतिशत जरूरत मुख्य रुप से ओएनजीसी के बॉम्बे हाई ऑफशोर तेल क्षेत्र से पूरी करता था लेकिन आज हम अपनी जरूरत का 85 फीसदी आयात करते हैं। घरेलू तेल अन्वेषण पर दोबारा ध्यान देकर यह निर्भरता घटाई जा सकती है।

8. भारत का निर्यात प्रदर्शन बढ़ाने के लिए गैर शुल्क बाधाओं को हटाने को प्राथमिकता दीजिए। इन बाधाओं के कारण अक्सर मछली, खाद्य, रसायन या मशीनरी जैसे भारतीय उत्पादों की ज्यादा जांच होती है या उन्हें खारिज कर दिया जाता है। इससे निपटने के लिए भारत को अपना घरेलू तंत्र सुधारना चाहिए, खास तौर से उन मामलों में जो उत्पाद की गुणवत्ता से जुड़े हैं। उन साझेदार देशों से बातचीत के साथ-साथ जवाब देने की भी तैयारी करनी चाहिए अगर वे भारतीय आयात में बाधा डालने के लिए अनुचित मानक या नियम अपनाते हैं।

कुल मिलाकर वैश्विक व्यापार की उभरती नई तस्वीर नीतिगत बदलाव और रणनीतिक कदमों की जरूरत पर जोर देती है। जिस तरह से अमेरिका और यूरोपीय संघ स्थानीय उत्पादन और आर्थिक स्थिरता को प्राथमिकता दे रहे हैं, भारत भी विनिर्माण के नए दौर के मुहाने पर है।

ऐपल और माइक्रोन के निवेश इस संभावना के उदाहरण हैं। बदलती व्यवस्था में भारत भी अपनी भूमिका बढ़ाने के लिए तैयार है। भारत जैसे-जैसे इन चुनौतियों से निपट रहा है और अवसरों को अपना रहा है तो उसे वैश्विक व्यापार की उभरती नई व्यवस्था में अपने हितों की सुरक्षा के लिए पहले से सक्रिय होना होगा और अनुकूल बनना पड़ेगा।

(लेखक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के संस्थापक हैं, जो व्यापार, टेक्नोलॉजी और जलवायु परिवर्तन के मसलों पर केंद्रित अनुसंधान समूह है)

First Published : September 26, 2023 | 9:45 PM IST