लेख

भारत की अर्थव्यवस्था को रणनीतिक सूझबूझ की जरूरत

देश की प्रगति के लिए महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले कुछ क्षेत्रों में बड़े लाभ हासिल करने के लिए हमें रणनीतिक सूझबूझ की जरूरत होगी

Published by
अजय शाह   
Last Updated- February 01, 2025 | 10:43 PM IST

वैश्विक अर्थव्यवस्था फिलहाल खराब दौर से गुजर रही है। अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ (ईयू) दुनिया में तीन सबसे बड़े आर्थिक केंद्र हैं। परंतु, इन तीनों के समक्ष अंदरूनी या बाहरी चुनौतियां हैं। अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद उथल-पुथल की हालत है और नया प्रशासन नए शुल्क लगाने की तैयारी कर रहा है। माना जा रहा है कि अमेरिका के इस कदम से वैश्विक अर्थव्यवस्था को अब तक के इतिहास का सबसे करारा झटका लग सकता है।

चीन जिस ढर्रे के साथ आगे बढ़ रहा है वह टिकाऊ नहीं हो सकता मगर वहां की सरकार अपने रुख में बदलाव करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं दिख रही है। ईयू के लिए रूस एक बड़ी चुनौती बन गया है। रूस और ईयू के आपसी संबंधों की फिलहाल वही स्थिति है जो इस समय उत्तर कोरिया के साथ दक्षिण कोरिया और जापान की है। विश्व युद्धों के बाद यूक्रेन में सबसे बड़ा युद्ध छिड़ चुका है। भारत की अर्थव्यवस्था के तार भी दुनिया के लगभग सभी देशों के साथ जुड़ चुके हैं इसलिए दुनिया में होने वाले घटनाक्रम निश्चित तौर पर उस पर असर डालने की क्षमता रखते हैं। भारत में आर्थिक ताकत की अहमियत समझी जाने लगी है जो बात पहले नहीं दिखती थी।

जब आर्थिक वृद्धि दर मजबूत रहती है और आर्थिक सफलता मिलती है तब हम अधिक मजबूत स्थिति में होते हैं और सभी तरह की चुनौतियों से निपटने में भी सक्षम होते हैं। एक मजबूत अर्थव्यवस्था में कंपनियों के पास नेतृत्व के स्तर पर नए फैसले लेने की पूरी ताकत मौजूद रहती है और दुनिया में उथल-पुथल के बीच कारोबारी योजनाएं तैयार करने के लिए भी पर्याप्त पूंजी उपलब्ध रहती है। मगर फिलहाल भारतीय कंपनियां इस स्थिति में नहीं हैं। वित्त वर्ष 2023-24 के लिए जिन बड़ी गैर-वित्तीय कंपनियों ने अपने नतीजे जारी किए हैं उनकी बिक्री की वृद्धि दर (नॉमिनल) 6.5 प्रतिशत रही है। वर्ष 2023-24 के लिए नियत शुद्ध परिसंपत्तियों की वृद्धि दर भी 6.55 प्रतिशत (नॉमिनल) रही है। नीति निर्धारकों को पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए ताकि वर्ष 2025-26 और 2026-27 में ये आंकड़े बेहतर हो सकें।

भारत में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना के साथ कई तरह की समस्याएं हैं इसलिए वर्ष 2024-25 में जीडीपी का आंकड़ा 3.25 लाख करोड़ रुपये का अनुमान मोटे तौर पर ठीक लग रहा है। एक ऐसा भी दौर था जब 10,000 करोड़ रुपये की कोई नई योजना शुरू की जाती थी तो यह भारी भरकम मानी जाती थी। मगर अब यह रकम जीडीपी का महज 0.03 प्रतिशत भर है। केंद्र सरकार को प्राप्त होने वाला राजस्व भी जीडीपी का केवल 10 प्रतिशत है।

देश की अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए सरकार की कराधान क्षमता और व्यय शक्ति काफी कम प्रतीत होती है। बजट भाषण में जितनी बातें कही गई हैं उनमें ज्यादातर के पीछे कुछ निश्चित राजनीतिक तर्क नजर आ रहे हैं मगर आर्थिक नीतियां केवल इनसे नहीं साधी जा सकती। परियोजनाओं एवं कार्यक्रमों पर ध्यान दिए जाने से आर्थिक वृद्धि तेज करने में एक सीमा तक ही मदद मिलती है। सबसे जरूरी बात उन सभी तरीकों को दुरुस्त और ठीक करना है जिनका इस्तेमाल कर सरकार निजी क्षेत्र एवं इसमें काम करने वाले लोगों को उनका स्वाभाविक प्रदर्शन करने नहीं देती है। निजी क्षेत्र में डर का माहौल पैदा कर दिया गया है जिससे लोग सावधान हो गए हैं।

नीति निर्धारण में नेतृत्व की भूमिका की भी अपनी एक सीमा है। नेतृत्व इस लिहाज से मायने रखता है कि हम किस तरह एक मजबूत रणनीति तैयार कर पाते हैं। दुनिया के हालात भांप कर नीतियां तैयार करना, दुनिया में वस्तु स्थिति का विश्लेषण करना, बदलते हालात के अनुसार रुख बदलना और इन बातों को ध्यान में रखते हए संगठन में बदलाव करना अच्छे नेतृत्व का संकेत माने जाते हैं। केंद्र सरकार में उन लोगों की संख्या काफी कम है जो ऐसी समझ रखते हैं और फिर अनुकूल रणनीति तैयार करते हैं। सरकार में ज्यादातर गतिविधियां क्रियान्वयन पर केंद्रित हैं और रणनीतिक सोच तैयार करने की क्षमता बेहद कम है। बजट में जिन उपायों का जिक्र होता है वे नेतृत्व के निचले स्तरों पर काम करने वाले लोगों पर दबाव पैदा करते हैं। इससे रणनीतिक सोच तैयार करने के लिए उपलब्ध समय एवं संसाधन दोनों कम पड़ जाते हैं।

बजट में होने वाली लोकलुभावन घोषणाओं के पीछे राजनीतिक तर्क को दरकिनार नहीं किया जा सकता। राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए बजट भाषण में ऐसे शब्द शामिल किए जाते हैं। दरअसल जरूरत एक ऐसे प्रबंधन प्रणाली की है जिसके जरिये ये कम महत्त्वपूर्ण कार्य नेतृत्व के स्तर पर बिना अधिक दबाव डाल कर भी कम से कम समय में किया जा सके।

हमें 1991-2011 के बीच हुए आर्थिक घटनाक्रम एवं विकास से जरूर सीखना चाहिए। यह उपलब्धि चार क्षेत्रों में काम करने के बाद हासिल हुई जिनमें व्यापक आर्थिक स्थिरता, वित्तीय क्षेत्र का विकास, सरकारी नियंत्रण में कमी और सार्वजनिक वस्तु शामिल हैं। इन सभी क्षेत्रों में उस दौर के नीति निर्धारकों ने नए कार्यों की शुरुआत की और इसके लिए उन्होंने पिछले दशकों में हुई प्रगति से भी काफी कुछ सीखा। ऐसा नहीं था कि इनमें सभी कार्य तेजी से निपटा लिए गए, उनमें कई नीतियां विफल भी हो गईं। शुरू में निजी क्षेत्र के मन में कई तरह के सवाल थे। जुलाई 1991 में बजट भाषण के बाद 1995 तक निवेश में भारी तेजी लाने में कई वर्ष लग गए।

वर्ष 1995 तक निजी क्षेत्र में विश्वास जगा और एक नए भारत का उदय हुआ जो कई मायनों में अलग था और नई सोच के साथ आगे बढ़ रहा था। वाजिब सुधारों की नींव रखी गई और निजी क्षेत्र को निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। भारत में इतना भारी भरकम निवेश पहले कभी नहीं हुआ था और उसी का परिणाम था कि 20 वर्षों में देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) चार गुना बढ़ गया।

नीतिगत सुधारों के संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल, निजी क्षेत्र एवं निवेश का माकूल माहौल तैयार करने के लिए जरूरी कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर ऊर्जा खर्च करने के लिए हमें रणनीतिक एवं सधी सोच रखनी होगी। इसके लिए हमें कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। हमें कर नीति में सुधार और कर प्रशासन में जिस तरह राज्य की शक्तियां इस्तेमाल की जाती है उन तरीकों में बदलाव, नियम एवं नियामकों द्वारा निजी क्षेत्र को परेशान करने का सिलसिला रोकने, सरकारी शक्तियों के विकेंद्रीकरण के आवश्यक उपाय और जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बंद कर बदलती दुनिया के साथ तालमेल बैठाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इन सभी क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण प्रगति होने से भारत में निजी क्षेत्र एवं इससे संबंधित लोगों का नजरिया काफी हद तक बदल जाएगा।

इनमें प्रत्येक क्षेत्रों में सधी नीतियां तैयार करने वाले लोगों की जरूरत है। ये ऐसे लोग होंगे जिनमें आंकड़ों पर बारीक नजर रखने के साथ शोध और दूसरे नीतिगत प्रस्तावों पर बहस करने की खूबी होगी और नीतिगत दस्तावेज पर ध्यान केंद्रित करने की भरपूर क्षमता होगी। भाजपा सरकार की कुछ सफलताएं (जीएसटी, मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के लिए लक्ष्य निर्धारण, आईबीसी) एक रणनीतिक सोच का ही नतीजा रही हैं। नीतिगत मोर्चे पर जोखिम लेने की क्षमता रखने के साथ ऐसी कई शुरुआत और करने की जरूरत है जिनमें कुछ निश्चित रूप से बेहतर परिणाम लाएंगे।

सरकार की क्षमता में बदलाव काफी धीमी गति से होता है। इस समय कर प्रशासन या मुंबई महानगर में स्थानीय प्रशासन की उच्च क्षमता का जिक्र गर्व से होता है मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये 25 वर्षों के सतत प्रयास का नतीजा हैं। मगर निजी क्षेत्र में हालत में तत्काल सुधार के लिए सरकार की जरूरत नहीं होती है। नीतियां तैयार करने की कवायद से जुड़े लोगों को रणनीतिक सूझबूझ, तर्क शक्ति आदि का परिचय देना चाहिए और सुधारों की एक मजबूत बुनियाद रखनी चाहिए। इसके अलावा, उन्हें प्रगति की समीक्षा और मिलने वाली प्रतिक्रियाओं पर नजर रखने के लिए एक पुख्ता व्यवस्था भी करनी चाहिए।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published : February 1, 2025 | 10:43 PM IST