भारत के लिए 2025 की शुरुआत कुछ दुख भरी रही क्योंकि पिछले साल के अंत में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का निधन हो गया। सिंह वह व्यक्ति थे जिन्होंने 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत कर देश को तेज वृद्धि की राह पर ले जाने में मदद की। इस समय अर्थव्यवस्था में सुस्ती आ रही है और वित्त वर्ष 2024-25 की दूसरी तिमाही में वृद्धि दर घटकर 5.4 फीसदी ही रह गई। बीते तीन सालों में इसका प्रदर्शन अनुमान से बेहतर रहा है। वित्त वर्ष 22 में यह 8.7 फीसदी, वित्त वर्ष 23 में 7.2 फीसदी और वित्त वर्ष 24 में 8.2 फीसदी की दर से बढ़ी। इस वृद्धि में सार्वजनिक पूंजीगत व्यय, वैश्विक क्षमता केंद्रों (जीसीसी) में निवेश और बढ़ते सेवा निर्यात की अहम भूमिका रही।
सरकारी विशेषज्ञों और विश्लेषकों को लगता है कि पिछली तिमाही में वृद्धि में आई गिरावट अस्थायी है। यह तो जल्दी पता चल जाएगा लेकिन कुछ भी हो, देश में निजी निवश ज्यादा नहीं बढ़ रहा और जीसीसी में निवेश अपने चरम पर पहुंच चुका है, इसलिए भारत में वृद्धि कमजोर ही पड़ेगी। इसे मजबूत करना है तो लंबे अरसे से अटके दूसरी पीढ़ी के सुधार जल्द ही करने होंगे।
चिंता की बात यह भी है कि वैश्विक स्तर पर अनिश्चितता बढ़ रही है। अपने हालिया वैश्विक आर्थिक अनुमान में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने 2024 से 2029 के दौरान वैश्विक वार्षिक वृद्धि दर 3.1 फीसदी ही रहने की बात कही है। 2000 से 2019 के दौरान यह 3.7 फीसदी थी, जबकि उस बीच वैश्विक वित्तीय संकट भी आया था। अनुमान में वृद्धि दर और भी घटने की चेतावनी दी गई है।
वृद्धि को और धीमा करने वाले चार जोखिम बताए गए हैं: संघर्षों में इजाफा, शुल्क और व्यापार नीति पर अनिश्चितता, कम प्रवासन और बिगड़ते वैश्विक वित्तीय हालात। चारों मिलकर वृद्धि में 1.5 फीसदी कमी ला सकते हैं। पहले दो जोखिम यानी संघर्ष और व्यापार नीति से वैश्विक वृद्धि में आधा-आधा फीसदी कमी हो सकती है तथा बाकी दोनों यानी कम प्रवासन और वित्तीय तंगी से चौथाई-चौथाई फीसदी सुस्ती आ सकती है। पहला जोखिम यानी संघर्ष बढ़ना शायद घटित ही नहीं हो मगर दूसरा यानी शुल्क दर और तीसरा यानी कम प्रवासन लगभग पक्के हैं और इनसे वैश्विक वृद्धि में 1 फीसदी तक कमी आ सकती है। बढ़ती व्यापार और राजकोषीय अनिश्चितता के साथ अमेरिकी फेडरल रिजर्व संकेत दे ही चुका है कि वह ब्याज दर में कटौती की रफ्तार घटाएगा यानी वित्तीय स्थिति पहले ही तंग हो रही है।
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध हुआ तो चीन प्लस वन नीति के तहत भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ सकता है। मगर आईफोन को छोड़ दें तो ज्यादा निवेश चीन से हटकर भारत नहीं आया है। उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन (पीएलआई) के तहत सब्सिडी होने के बाद भी भारत की लालफीताशाही, श्रम और भूमि कानून तथा द्विपक्षीय निवेश संधियों पर इसके रवैये से निवेश जुटना मुश्किल है। इसके अलावा आईफोन और औषध उत्पाद बनाने के लिए चीन के कच्चे माल पर निर्भरता के कारण अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से भारत को ज्यादा फायदा नहीं मिल सकता।
कुछ विशेषज्ञों की राय है कि भारत को क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) या प्रशांत-पार साझेदारी पर व्यापक और प्रगतिशील समझौते (सीपीटीपीपी) पर हस्ताक्षर कर देने चाहिए। लेकिन चीन से होने वाले आयात पर शुल्क लगाने के बाद भी उस देश के साथ हमारा व्यापार घाटा बहुत अधिक है और आरसेप में शामिल होने से निकट भविष्य में घाटा और भी बढ़ जाएगा। चीन ने भी सीपीटीपीपी की सदस्यता के लिए आवेदन किया है। ब्रिटेन के साथ व्यापार समझौता अभी अटका हुआ है, जिसमें यूरोपीय संघ के कार्बन कर के प्रस्ताव ने और भी अड़ंगा लगा दिया है। यूरोपीय संघ के और भी बड़े बाजार के साथ बातचीत इससे भी ज्यादा जटिल है।
भारत हर सूरत में डॉनल्ड ट्रंप की शुल्क वाली सूची में होगा। वह पहले ही भारत को ‘टैरिफ किंग’ बता चुके हैं और जवाबी शुल्क लगाने की धमकी भी दी है। भारत के लिए अमेरिका सबसे बड़ा निर्यात बाजार है और ट्रंप के पिछले कार्यकाल की तरह शुल्क की जंग में फंसने के बजाय इस देश के साथ व्यापार तथा निवेश संधि पर आगे बढ़कर बात करना समझदारी होगी। भारत-अमेरिका व्यापार बढ़ाते हुए द्विपक्षीय व्यापार घाटे को कम करना ही लक्ष्य होना चाहिए। दोनों देशों के बीच व्यापार 2030 तक बढ़कर सालाना 500-600 अरब डॉलर हो जाने का अनुमान जताया जा रहा है। भारतीय बाजारों में पेट्रोलियम, तेल उत्पाद, एलएनजी, परमाणु एवं ऊर्जा उपकरण तथा रक्षा जैसे चुनिंदा अमेरिकी आयात की इजाजत देकर यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
प्रवासन की बात करें तो ट्रंप एच1-बी वीजा और ग्रीन कार्ड के जरिये वैध प्रवासन के हिमायती लगते हैं। बहरहाल करीब आठ लाख भारतीय बिना दस्तावेजों के अमेरिका में रहते हैं। अगर उन्हें वापस भेजने के लिए बड़ा अभियान चला तो भारत पर बहुत असर पड़ेगा। धीमी वृद्धि ही इकलौती चिंता नहीं है। चालू खाते का घाटा कम होने के बावजूद रुपया कमजोर हो रहा है क्योंकि धन भारत से बाहर जा रहा है। माना जा रहा है कि फेड 2025 में ब्याज दर कटौती धीमी कर देगा, जिसके कारण विदेशी फंड तेजी से धन निकाल रहे हैं। रुपये में लगातार कमी आ रही है और डॉलर के मुकाबले अब वह 86 पर पहुंचने वाला है। इससे भारतीय व्यापार की होड़ करने की क्षमता बढ़ेगी मगर कीमत भी बढ़ेंगी और असुरक्षित ऋण जोखिम में पड़ जाएगा। राजकोषीय नीति के समक्ष कठिन विकल्प हैं। सार्वजनिक ऋण सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 83 फीसदी पर पहुंच चुका है और चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 4.9 फीसदी के बराबर रह सकता है। खजाने को मजबूत करने की राह पर सीधे चला गया तो 2025-26 में राजकोषीय घाटा घटकर जीडीपी के 4.2 फीसदी पर रह जाएगा। मगर 2014 में राष्ट्रीय जतांत्रिक गठबंधन सरकार आने के बाद से किसी वर्ष के घाटे से यह आंकड़ा ज्यादा ही होगा।
बहरहाल अर्द्धवार्षिक समीक्षा में तो यह घाटा जीडीपी के 4.5 फीसदी से कम रहने का वादा किया गया है। सार्वजनिक पूंजीगत व्यय को बरकरार रखते हुए खजाने को और भी तेजी से मजबूत करने का एक ही रास्ता है – तेजी से निजीकरण, जो अभी तक बहुत धीमा रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक कह चुका है कि राज्यों की वित्तीय स्थिति को भी मजबूत बनाने और उसकी गुणवत्ता सुधारने की जरूरत है।
निजी निवेश में सुस्ती पहेली बनी हुई है। 2024 के आरंभ में चुनावी अनिश्चितता को इसकी वजह मान लिया गया था मगर अब अर्थव्यवस्था के एक ही हिस्से में सुधार की वजह से मांग में आई कमी को ही इसकी वजह बताया जा सकता है। इस समय केवल 75 फीसदी क्षमता का इस्तेमाल हो रहा है और बढ़ते आयात के कारण नए निवेश का ज्यादा फायदा नहीं हो रहा है।
भारत को अधिक समावेशी वृद्धि मॉडल और दूसरी पीढ़ी के सुधारों की जरूरत है। श्रम एवं भूमि अधिग्रहण कानून आसान बनाने और लालफीताशाही कम करने के लिए राज्य सरकारों के साथ सहयोग किया जाए तो श्रम के अधिक इस्तेमाल वाले विनिर्माण में निवेश आसानी से बढ़ जाएगा, जो जरूरी भी है। वस्तु एवं सेवा कर जैसे कदमों के लिए भारत को ‘सहकारी संघवाद’ की जरूरत पड़ती है मगर श्रम तथा भूमि सुधार जैसे क्षेत्रों के लिए और लालफीताशाही खत्म करने के लिए ‘प्रतिस्पर्द्धी संघवाद’ जरूरी है, जहां प्रगतिशील राज्य रास्ता दिखा सकते हैं। लाखों रोजगार तैयार करने और निवेश आकर्षित करने की क्षमता वाले पर्यटन पर बल देने की जरूरत है। अब चुनाव हो चुके हैं तो आगामी बजट में इस दिशा में आगे बढ़ने का अवसर है।
रिजर्व बैंक ने वित्त वर्ष 25 के लिए वृद्धि का अनुमान घटाकर 6.7 फीसदी कर दिया है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 6.5 फीसदी का अनुमान लगाया है। पिछले तीन सालों में औसतन 8 फीसदी से ऊपर की शानदार वृद्धि होने के बाद भी देश का जीडीपी उस स्तर से नीचे ही रहेगा, जहां वह महामारी नहीं आने पर होता। वैश्विक हालात बिगड़ने और ट्रंप के व्यापार तथा प्रवासन झटकों से वृद्धि दर घटकर 6 से 6.5 फीसदी रह सकती है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। अगर भारत दोबारा 7.5 से 8 फीसदी की ज्यादा समावेशी वृद्धि चाहता है तो अभी तक अटके दूसरी पीढ़ी के सुधारों को अंजाम देना होगा। देखते हैं कि भारत ऐसा कर विकसित भारत के उस रास्ते पर चलता रहता है या नहीं, जिसकी शुरुआत मनमोहन सिंह ने 1991 में उदारीकरण के साथ की थी।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी के डिस्टिंगुइस्ड विजिटिंग स्कॉलर हैं)