इलस्ट्रेशन- बिनय सिन्हा
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा अप्रैल में जारी किए गए विश्व आर्थिक परिदृश्य ने भारत के विकास से ताल्लुक रखने वाले लोगों में बहुत अधिक खुशी और उत्साह का संचार किया है। नीति आयोग के मुख्य कार्याधिकारी ने जब यह घोषणा की कि जापान को पछाड़कर भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है तो ऐसा करते हुए शायद उन्होंने जल्दबाजी की। हालांकि प्रधानमंत्री ने भी इस बात को दोहराया है।
आईएमएफ की रिपोर्ट दिखाती है कि 2024 में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 3.91 लाख करोड़ डॉलर था जबकि जापान का 4.03 लाख करोड़ डॉलर। परंतु अनुमान जताया गया था कि 2025 में भारत मामूली अंतर से जापान के जीडीपी को पार कर जाएगा। अनुमान के मुताबिक जापान के 4.196 लाख करोड़ डॉलर की तुलना में भारत का जीडीपी 4.197 लाख करोड़ डॉलर हो जाना था। यह छोटी उपलब्धि नहीं है। बीते दो दशकों के दौरान 6-7 फीसदी की औसत वार्षिक वृद्धि ने इसे संभव करने में मदद की है।
कुछ झटकों और वैश्विक अनिश्चितता के बावजूद अर्थव्यवस्था ने उल्लेखनीय मजबूती दिखाई है और इस दशक के समाप्त होने से पहले वह जर्मनी को पछाड़ कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने को तैयार है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में जरूर भारत वैश्विक रैंकिंग में काफी नीचे है। प्रधानमंत्री द्वारा तय लक्ष्य के मुताबिक 2047 तक विकसित देश बनने के लिए उसे बहुत लंबी दूरी तय करनी है। 2,878 डॉलर के नॉमिनल प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ भारत 197 देशों में 141वें स्थान पर है। क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के लिए समायोजित प्रति व्यक्ति के संदर्भ में वह 119 वें स्थान पर नजर आता है।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए 7 से 10 फीसदी सालाना वृद्धि दर की जरूरत होगी। इसमें मुद्रास्फीति के बारे में धारणा, विनिमय दर अवमूल्यन, और विकसित देश की श्रेणी के निर्धारण मानकों में बदलाव आदि कई कारक भी प्रभावी होंगे। बहरहाल एक बात जो स्पष्ट है वह यह कि ‘चलता है’ का रवैया भारत के मध्य आय के जाल को और मजबूत करेगा।
ऐसे में गंभीर ढांचागत और संचालन संबंधी सुधारों को तेजी से अंजाम देने की जरूरत है ताकि लक्ष्य हासिल हो सके। इसके अलावा बात केवल तय आय के स्तर तक पहुंचने की नहीं है, बल्कि इसका संबंध लाखों लोगों के लिए सार्थक रोजगार के अवसर तैयार करने से भी है। अनुमान है कि भारत की आबादी 2045 तक स्थिर हो जाएगी। ऐसे में कृषि क्षेत्र के अतिरिक्त श्रमिकों को अधिक उत्पादक क्षेत्रों मसलन विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में लगाना एक बड़ी चुनौती होगा।
जीडीपी वृद्धि को गति देने के लिए निवेश में इजाफा करना जरूरी है। यदि हम यह मान भी लें कि वृद्धिशील पूंजी उत्पादन अनुपात (आईसीओआर) को 5 से 4 तक सुधारने के लिए नई प्रौद्योगिकी और बेहतर प्रथाओं को शामिल करने से उत्पादकता में सुधार होगा – तो भी 10 फीसदी की नामिनल जीडीपी वृद्धि दर हासिल करने के लिए अभी भी सकल घरेलू पूंजी निर्माण को मौजूदा 30-31 फीसदी से बढ़ाकर जीडीपी का 40 फीसदी करने की आवश्यकता होगी। सरकार और निजी क्षेत्र की ओर से निवेश में भारी इजाफा करना होगा। बीते तीन साल में जहां सरकारी निवेश में तेजी दिखी है वहीं निजी निवेश धीमा बना हुआ है।
अन्य तमाम निवेशों के साथ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के लिए सही माहौल बनाना जरूरी है। इस तरह के निवेश से देश को अधिक उन्नत तकनीक का लाभ हासिल हो सकता है। कई हालिया रिपोर्ट बताती हैं कि भारत के उद्योग अपनी आय को देश में दोबारा निवेश करने के बजाय अपने मुनाफे को विदेश ले जा रहे हैं। वर्ष 2024-25 में देश में शुद्ध एफडीआई केवल 0.35 अरब डॉलर रहा जबकि सकल एफडीआई 81 अरब डॉलर था। ऐसा इसलिए क्योंकि 51.3 अरब डॉलर की राशि विदेश वापस भेज दी गई थी जबकि 29.20 अरब डॉलर की राशि विदेश में एफडीआई के रूप में गई। ऐसे में इस रुझान को लेकर आत्मावलोकन करने की आवश्यकता है। साथ ही जरूरी उपचारात्मक उपाय करने होंगे।
देश में निवेश-जीडीपी अनुपात में सुधार करने के लिए पूंजी की लागत कम करने के ठोस उपाय करने होंगे और लेनदेन की लागत को कम करना होगा। मुद्रास्फीति को लक्षित करने के ढांचे ने मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखने में मदद की। उम्मीद की जानी चाहिए कि मध्यम अवधि में दरें कम रखी जाएंगी ताकि ब्याज दरें कम रखने में मदद मिले। गत 6 जून को नीतिगत दर में 50 आधार अंकों की तेज गिरावट उधारी की लागत में उल्लेखनीय कमी करेगी, जबकि नकद आरक्षित अनुपात में 100 आधार अंकों की कटौती वित्तीय व्यवस्था में नकदी डालेगी और कम दर का लाभ तेजी से प्रसारित होगा।
राजकोषीय नीति की बात करें तो हमें स्पष्ट कार्य योजना की आवश्यकता है ताकि वृहद आर्थिक नीतियों में राजकोषीय दबदबे को कम किया जा सके और कारोबार के लिए उधारी की गुंजाइश बढ़ सके। अब वक्त आ गया है कि हम घाटे और ऋण के लक्ष्यों पर दोबारा विचार करें और एक कार्य योजना को अपनाएं। इसी प्रकार हमें व्यापार और निवेश में खुलापन लाना होगा। इसके लिए सुधारों को अपनाना होगा ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था प्रतिस्पर्धी बन सके।
कारक बाजार को मुक्त करने के लिए कई सुधारों की जरूरत पर चर्चा हुई है।
खासकर भूमि अधिग्रहण और श्रम बाजार सुधारों को लेकर चर्चा हुई है। परंतु संचालन और संस्थागत सुधारों की जरूरत को लेकर उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी होनी चाहिए थी। ये सुधार सरकार के कामकाज मसलन लोक सेवाएं प्रदान करने, संपत्ति के अधिकारों की रक्षा और अनुबंधों के तेज प्रवर्तन के लिए जरूरी हैं। ये कारोबारी माहौल बेहतर बनाने के लिए बुनियादी बातें हैं।
किसी लोकतांत्रिक देश में हम ‘भटकते’ और ‘स्थायी’ लुटेरों को नहीं सहन कर सकते जिनका उल्लेख मैनकुर ओल्सन ने अपने प्रसिद्ध लेख (डिक्टेटरशिप, डेमोक्रेसी ऐंड डेवलपमेंट) में किया था जो द अमेरिकन पॉलिटिकल साइंस रिव्यू वॉल्यूम 87, नंबर 3 में लिखा था। ऐसा इसलिए क्योंकि संपत्ति अधिकारों की रक्षा और अनुबंध प्रवर्तन की विश्वसनीय प्रतिबद्धताएं व्यापक आर्थिक विकास के लिए जरूरी हैं।
शासन प्रणाली में भी तत्काल सुधार की आवश्यकता है। इसमें न्यायिक सुधार शामिल हैं। प्रशासनिक, नियामकीय और न्यायिक व्यवस्था में सुधार पर पूरा ध्यान नहीं दिया गया। इस संदर्भ में द इकॉनमिस्ट की एक हालिया रिपोर्ट देश की न्यायपालिका की निष्प्रभाविता को रेखांकित करती है।
यकीनन हम इस दर्शन में यकीन करते हैं कि अगर इस नहीं तो अगले जन्म में न्याय हो जाएगा लेकिन कारोबार इस पर यकीन नहीं करते। वे देर तक प्रतीक्षा भी नहीं करेंगे। वर्ष 2024 के अंत तक सर्वोच्च न्यायालय में 82,496 मामले लंबित थे और फरवरी 2025 के आरंभ में उच्च न्यायालयों में 62,35,000 मामले लंबित थे। जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में इनकी संख्या 4.57 करोड़ से अधिक थी।
विश्व न्याय रिपोर्ट के अनुसार भारत न्याय देने के मामले में 142 देशों में 131वें स्थान पर है। इस मामले में वह पाकिस्तान और सूडान से भी नीचे है। भारत न्याय रिपोर्ट के अनुसार अदालतों में लंबित मामलों के 2030 तक 15 फीसदी बढ़ने का अनुमान है। विश्व बैंक का अनुमान है कि देश में अनुबंध प्रवर्तन में औसतन 1500 दिन लगते हैं जबकि विकसित देशों और चीन में 500 दिन से भी कम समय लगता है। चूंकि भारतीय अदालतें समय पर विवाद निपटाने में विफल रहती हैं इसलिए न्याय व्यवस्था नाकाम हो जाती है और साधन संपन्न लोग अनौपचारिक न्याय की दिशा में बढ़ जाते हैं। जब तक हम इस समस्या को दूर नहीं करते तब तक निवेश बढ़ाना और टिकाऊ आर्थिक वृद्धि हासिल करना एक सपना बना रहेगा।
(लेखक कर्नाटक क्षेत्रीय असंतुलन निवारण समिति के चेयरमैन हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)