देश के पर्यावरण के समक्ष एक विचित्र चुनौती है। इसके संरक्षण के लिए बना मंत्रालय उन गतिविधियों को बढ़ावा देता नजर आ रहा है जो इसे नुकसान पहुंचाती हैं। हमने राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड को अफसरशाहों के दबदबे वाले रबर स्टांप में बदलते देखा है जो हर तरह की औद्योगिक गतिविधियों को मंजूरी प्रदान कर देता है। संरक्षित क्षेत्र में रेल लाइन तथा अन्य परियोजनाओं के लिए वन संरक्षण अधिनियम की अनदेखी की गई है। लॉकडाउन अवधि में ऑनलाइन बैठकों के लिए विशेषज्ञ समिति बनी है जबकि प्रभावित लोगों के पास कोई मंच नहीं है।
सरकार की निर्णय प्रक्रिया व्यवस्था में प्रतिस्पर्धी दबाव रहता है और वास्तविक नतीजे इस बात पर निर्भर करते हैं कि समांतर चतुर्भुज में कौन सी शक्ति अधिक तेजी से खींचती है। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का काम है प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण का संरक्षण करते हुए उन मंत्रालयों का प्रतिरोध करना जिनका लक्ष्य महज तीव्र गति से उत्पादन करना है। परंतु ऐसा नहीं हो रहा है।
पर्यावरण मंत्रालय की कमजोरी के कारण हवा की गुणवत्ता में कमी जैसी तात्कालिक और संसाधनों में कमी तथा पर्यावरण जोखिम जैसी दीर्घावधि की दिक्कतें सामने आ रही हैं। पर्यावरण के मोर्चे पर देश की नाकामी का एक मानक येल विश्वविद्यालय के पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में दिखता है। सन 2020 में जारी सूचकांक में भारत 180 देशों में 168वें स्थान पर रहा। जबकि 2014 में देश 174 देशों में 155वें स्थान पर था। सन 2020 के सूचकांक में अफगानिस्तान को छोड़कर अन्य सभी दक्षिण एशियाई देश भारत से बेहतर स्थिति में थे। इससे पर्यावरण कार्यकर्ताओं की चिंताओं को बल मिलता है।
इसका सबसे ताजा उदाहरण है पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना को शिथिल करने का प्रस्ताव। मौजूदा अधिसूचना 2006 में पारित की गई थी और इसके तहत सभी परियोजनाओं को दो मोटी श्रेणियों में बांटा जाता है-पहली श्रेणी वह जहां केंद्र सरकार की मंजूरी और जांच की जरूरत है और दूसरी श्रेणी वह जहां राज्य सरकार को निर्णय लेना होता है। दूसरी श्रेणी में आगे और बंटवारा किया गया और उसके एक हिस्से में समुचित जांच और मंजूरी की आवश्यकता थी जबकि दूसरे को केवल प्रभाव आकलन प्रस्तुत करना होता था और राज्य को यह अधिकार था कि वह परियोजनाओं को इनमेंं से किसी भी श्रेणी में रखे। इसी प्रावधान का इस्तेमाल करके पर्यावरण प्रभाव आकलन की आवश्यकताओं को शिथिल किया जा रहा है और कई ऐसी परियोजनाओं को बिना जांच और मंजूरी वाली श्रेणी में डाला जा रहा है जो अत्यधिक प्रदूषण फैलाने के लिए जाने जाते हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि संशोधन में प्रस्ताव रखा गया है कि दिशानिर्देशों का उल्लंघन करने वाले उद्योग मामूली जुर्माना चुकाकर बच सकते हैं। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि पर्यावरण संरक्षण को विकास विरोधी मान लिया गया है। यदि वृद्धि को सही ढंग से परिभाषित किया जाए तो ऐसा नहीं है। वृद्धि का अर्थ केवल वस्तुओं और सेवाओं की उपलब्धता बढ़ाना नहीं है। उसका अर्थ है संपत्ति बढ़ाना और संपत्ति का अर्थ केवल जमीन, उपकरण और अन्य वस्तुएं नहीं बल्कि मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधन भी है।
इन तमाम बातों को ग्रीन नैशनल अकांउट्स इन इंडिया, अ फ्रेमवर्क नामक 2013 की रिपोर्ट में विस्तार से समझाया गया है। यह रिपोर्ट राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समूह ने तैयार की थी जिसकी अध्यक्षता प्रोफेसर पार्थ दासगुप्ता के पास थी जो केंब्रिज विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्री हैं। दासगुप्ता विश्व के जाने माने पर्यावरण अर्थशास्त्री हैं और उनकी बौद्धिक क्षमता रिपोर्ट में साफ नजर आती है। (स्पष्टीकरण: मैं उस विशेषज्ञ समूह का एक सदस्य था)
इस रिपोर्ट से उपजे कुछ सवाल इस बात को आगे और अधिक स्पष्ट करने का काम करेंगे:
‘आर्थिक आकलन के लिए आंकड़ों की आवश्यकता होती है लेकिन बेहतरी की अवधारणा भी इसके लिए जरूरी है। खुलकर कहें तो बिना बेहतर की अवधारणा के हम नहीं कह सकते कि हम किन आंकड़ों का अध्ययन करेंगे।’
‘आर्थिक आकलन जिस आधार पर किया जाना चाहिए, उसे संपत्ति की व्यापक धारणा के साथ अंजाम देना चाहिए। इसमें पुनरुत्पादन लायक पूंजी मसलन सड़क, बंदरगाह, केबल, भवन, मशीनरी, उपकरण आदि शामिल हों। इनके अलावा मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधन मसलन जमीन, पर्यावास आदि को शामिल किया जाना चाहिए।’
‘किसी निवेश परियोजना से उत्पन्न होने वाले सामाजिक लाभ के मौजूदा प्रवाह का वर्तमान रियायती मूल्य उस समय सकारात्मक होता है जब वह परियोजना संपत्ति में इजाफा करने में सहायक हो।’
‘ किसी वन के साथ छेड़छाड़ किए बिना उसे सघन होने देना भी उसमें निवेश करना है। प्राकृतिक परिस्थितियों में मछली मारने की गतिविधि को अंजाम देना भी उस काम में निवेश करना होगा।’
क्या पर्यावरण संरक्षण मुनाफा कमाने वाले कारोबारियों के लिए बाधा है? वास्तव में यदि ऐसे कारोबार दूरगामी दृष्टि लेकर चलें तो यह कोई बाधा नहीं है। कोई भी व्यावहारिक कारोबार हमेशा इस बात को लेकर चिंतित रहेगा कि वह उन संसाधनों की रक्षा करे जिन पर उसका कारोबार निर्भर है। वह नहीं चाहेगा कि स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण पर उसकी गतिविधियों का नकारात्मक असर हो। क्योंकि ऐसी स्थिति में पर्यावरण प्रभाव को लेकर संवेदनशील ग्राहकों और अन्य लोगों के मन में उसकी छवि खराब होगी। यह दलील भी दी जा सकती है कि दशकों तक चलने की दूरगामी दृष्टि वाले कारोबार पर्यावरण चुनौतियों को लेकर उन सरकारों की तुलना में ज्यादा संवेदनशील हो सकते हैं जिनका ध्यान चुनावों पर केंद्रित रहता है। प्राय: ऐसी सरकारें अल्पावधि के प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करती हैं। पर्यावरण निगरानी मानकों को शिथिल करने का असली दबाव ऐसे कारोबारों से आता है जो शीघ्र मुनाफा कमाने के चक्कर में रहते हैं।
इन हालात को कैसे बदला जा सकता है? पर्यावरण कार्यकर्ताओं का विरोध ठप है क्योंकि लॉकडाउन के कारण लोग एकत्रित नहीं हो सकते। ऐसे में अब तक उनकी अनदेखी करता आया मंत्रालय अब क्यों ध्यान देगा। इकलौती आशा समझदार कारोबारियों से है कि वे बोलेंगे कि पर्यावरण मानकों को शिथिल करना दीर्घावधि में विकास के हित में नहीं है।
हमारा देश घनी आबादी वाला देश है और हमें उस संरक्षण की आवश्यकता है जो पर्यावरण हमें स्वच्छ हवा, स्वच्छ जल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के रूप में प्रदान करता है। जलवायु परिवर्तन बढऩे के साथ विपरीत मौसमी घटनाएं भी बढ़ रही हैं। ऐसे में हमें संरक्षण की आवश्यकता और अधिक होगी। परंतु मौसम हमें तभी बचाएगा जब हम उसे बचाएंगे-प्रकृति रक्षति रक्षिता। सरकार को इस साधारण से सत्य को समझना होगा।