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फ्री सुविधाओं पर राज्यों का जोर और शिक्षा की अनदेखी से हो सकता है दीर्घकालीन नुकसान

लोकलुभावन योजनाओं और निःशुल्क वस्तुएं या सेवाएं बांटने से गरीब लोगों के सशक्तीकरण की जगह सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर प्रतिकूल परिणाम सामने आ सकते हैं

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एम गोविंद राव   
Last Updated- December 15, 2025 | 9:54 PM IST

भारत के राजकोषीय संघवाद में सामाजिक सेवाएं प्रदान करना राज्यों का मुख्य उत्तरदायित्व है। आर्थिक सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए वे केंद्र सरकार के साथ मिलकर काम करते हैं। मगर बात जब राज्यों के राजकोषीय प्रदर्शन के मूल्यांकन की होती है तो ध्यान हमेशा उनके घाटे और कर्ज पर रहता है और उनके सार्वजनिक व्यय की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता है। वास्तव में, हाल के वर्षों में सार्वजनिक व्यय की गुणवत्ता तेजी से घटी है क्योंकि सब्सिडी और नकद अंतरण लोगों को सशक्त बनाने और उन पर होने वाले व्यय के लिए गुंजाइश कम कर देते हैं। सभी राजनीतिक दल अल्पकालिक चुनावी लाभ के लिए अधिक से अधिक लोकलुभावन वादे करने के साथ मुफ्त में चीजें बांट रहे हैं जिनसे भौतिक और मानव पूंजी दोनों के लिए आर्थिक संसाधन कम पड़ जाते हैं।

टिकाऊ राजकोषीय प्रबंधन के लिए घाटा और कर्ज नियंत्रित करना निश्चित रूप से जरूरी है।  हालांकि, विकेंद्रीकरण सिद्धांत का मूल आधार यह है कि व्यापक आर्थिक स्थिरता और राजस्व का पुनर्वितरण मुख्य रूप से केंद्र सरकार का (लेकिन केवल उसका नहीं) दायित्व है। संविधान निर्माताओं को इस बात का एहसास था इसलिए उन्होंने राज्यों के कर्ज लेने के प्रबंधन के लिए एक ढांचा तैयार किया।

अनुच्छेद 293 (3) के अनुसार अगर राज्य केंद्र सरकार से पहले कोई ऋण ले चुके हैं तो अतिरिक्त उधार के लिए उन्हें केंद्र से अनुमति लेनी होगी। हालांकि, 12वें वित्त आयोग ने केंद्र सरकार को वित्तीय मध्यस्थता से दूर रहने का सुझाव दिया मगर केंद्र सरकार मध्यस्थता करने से पीछे नहीं हट रही है। इसका सबसे ताजा उदाहरण पूंजीगत व्यय के लिए राज्यों को शून्य ब्याज दर पर दिए गए दीर्घकालिक केंद्रीय ऋण हैं।

राजकोषीय प्रबंधन कानून के तहत राज्यों के लिए राजकोषीय घाटा सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के 3 फीसदी तक सीमित रखना है इसलिए अब केंद्र सरकार को कर्ज की सीमा तय करनी होती है। बेशक, कुछ राज्य बजट से इतर उधारी का दायरा बढ़ाने के लिए दबाव डालते हैं मगर सीमा निर्धारित करने की जिम्मेदारी सीधे तौर पर केंद्र सरकार की है।

बड़ी मात्रा में कर्ज बोझ जमा होने से राज्यों पर ऊंची ब्याज दर का बोझ बढ़ जाता है जिससे अधिक उपयोगी कार्यों के लिए गुंजाइश कम होने लगती है। लिहाजा, कर्ज का बोझ सीमित करना ही उचित है। मगर एक मुश्किल राजकोषीय हालात में राज्य इस बोझ का एहसास करने के बावजूद अपनी राजकोषीय गुंजाइश का विस्तार करने की कोशिश करते रहते हैं। राज्यों के राजकोषीय प्रबंधन के मूल्यांकन में ध्यान लोक सेवाओं (जो मुहैया कराना उनका दायित्व है) पर होने वाले व्यय की गुणवत्ता पर होनी चाहिए।

दूसरी तरफ, केंद्र सरकार को वृहद आर्थिक प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए। अगर राज्यों का घाटा लगातार बढ़ता रहता है और वे कर्ज में रहते हैं तो इसका दोष केंद्र सरकार को दिया जाना चाहिए क्योंकि राज्यों के कर्ज लेने की मात्रा सीमित करने की जिम्मेदारी और अधिकार दोनों उसके पास हैं।

इस तरह, राज्यों के राजकोषीय प्रबंधन के प्रदर्शन मूल्यांकन में जोर लोक सेवाओं की गुणवत्ता पर होनी चाहिए। चुनावी लाभ के लिए सब्सिडी और रकम अंतरण का तेजी से बढ़ता चलन एक बड़ी चिंता बन गया है क्योंकि इससे सामाजिक और भौतिक बुनियादी ढांचे के लिए उपलब्ध रकम में सेंध लग जाती है। हालांकि, आर्थिक संसाधनों का पुनर्वितरण सरकार का एक वाजिब कार्य है क्योंकि बाजार इसे नहीं कर सकता है मगर सब्सिडी और रकम अंतरण बढ़ाने का निर्णय करते वक्त दो आवश्यक बिंदुओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

इनमें पहला है सब्सिडी और नकद अंतरण बढ़ाने से होने वाले अवसर के नुकसान। दूसरा, क्या कोई अन्य नीतिगत उपाय अर्थव्यवस्था पर कम वित्तीय बोझ डाले बिना कम लागत पर अधिक प्रभावी ढंग ऐसा ही लक्ष्य हासिल कर सकता है?

सब्सिडी और रकम अंतरण के कारण सापेक्ष मूल्य में आने वाले बदलाव अर्थव्यवस्था को अदृश्य रूप से नुकसान पहुंचा सकते हैं। दूसरा, प्रति तथ्यात्मक परिणाम क्या है? क्या अस्थायी मदद के जरिये पुनर्वितरण का कार्य करने के बजाय मानव पूंजी में निवेश बढ़ाकर और लोगों को सशक्त  बनाकर यह लक्ष्य बेहतर ढंग से हासिल नहीं किया जा सकता है?

‘विकासात्मक’ और ‘गैर- विकासात्मक’ श्रेणियों के संदर्भ में राज्य के व्यय की गुणवत्ता का मूल्यांकन गुमराह करने वाला हो सकता है। वर्गीकरण इस आधार पर किया जाता है कि व्यय के मद सामाजिक और आर्थिक सेवाओं या सामान्य सेवाओं के अंतर्गत आते हैं या नहीं। अधिकांश निःशुल्क चीजें सामाजिक या आर्थिक सेवाओं के तहत निर्धारित बजट में शामिल की जाती हैं भले ही वे दीर्घकालिक विकास में योगदान दे रही हों या नहीं। हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि सभी गैर-विकासात्मक व्यय बेकार नहीं होते हैं।

उदाहरण के लिए लोगों की सुरक्षा और संपत्ति अधिकार सुनिश्चित करने और अनुबंध लागू करने पर होने वाले व्यय विकास में योगदान देते हैं। ये सामान्य सेवाओं का हिस्सा हैं जो विकास के लिए जरूरी शर्तें हैं। भारतीय संदर्भ में जो जरूरी बात है वह है भौतिक और मानव पूंजी तैयार करने पर व्यय करना। मगर इस पर सार्वजनिक व्यय लगातार कम हो रहा है।

सब्सिडी और रकम अंतरण में ज्यादातर बढ़ोतरी ​शिक्षा पर खर्च में कटौती और कुछ हद तक पूंजीगत व्यय घटा कर की गई है। सभी राज्यों द्वारा मिलाकर शिक्षा पर कुल खर्च जीडीपी का महज 2.2 फीसदी है। वास्तव में, राज्यों द्वारा शिक्षा पर किया गया व्यय जीडीपी के अनुपात के रूप में 2011-12 के 2.5 फीसदी से घटकर 2023-24 में 2.2 फीसदी रह गया। राज्यों के कुल व्यय के अनुपात के रूप में इस अवधि के दौरान यह 17.7 फीसदी से घटकर 15.5 फीसदी रह गया। केंद्र प्रायोजित योजना के अंतर्गत मिलने वाले अनुदान में बढ़ोतरी के बाद भी यह नौबत है।

शिक्षा पर व्यय कम करने का सबसे आम एवं नियमित तरीका नियमित एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की भर्ती बंद कर उनकी जगह ‘अतिथि शिक्षकों’ को बहाल करना है जिनके पास पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं होता है। केंद्र-प्रायोजित योजनाओं में मुख्य रूप से खास उद्देश्यों के लिए रकम अंतरित की जाती है और इस तरह के अंतरण का उद्देश्य सेवाओं का न्यूनतम मानदंड सुनिश्चित करना है।

हालांकि, सर्व शिक्षा अभियान अपने 42 हस्तक्षेपों या पहल के बाद भी सेवा का न्यूनतम मानक सुनिश्चित करने में विफल रहा है। इन हस्तक्षेपों में पहुंच एवं प्रतिधारण, गुणवत्ता, बालक-बालिका अनुपात, समानता, शिक्षा का अधिकार कानून तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए निजी प्राइवेट स्कूलों में 25 फीसदी सीटों की अनिवार्यता, बुनियादी ढांचा विकास और कार्यक्रम प्रबंधन शामिल हैं।

अमीर और उच्च-मध्यम वर्ग (जो काफी मुखर हैं और नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं) जन शिक्षा व्यवस्था से बाहर निकल गए हैं और निजी शिक्षा को अपना लिया है। इससे गरीब सार्वजनिक शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट का बोझ उठाने के लिए विवश हो गए हैं। शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट का नतीजा यह होगा कि आने वाले समय में समाज में शैक्षणिक स्तर पर भी घोर असमानता दिखेगी। इससे आय में भी असमानता बढ़ेगी। गरीब बच्चों की अगली पीढ़ी के कमजोर होने से समाज में अशांति भी उत्पन्न हो सकती है।

इसी तरह, राज्यों के पूंजीगत आवंटन एवं जीडीपी का अनुपात पिछले एक दशक में 1.96 फीसदी पर स्थिर रहा है। हालांकि, अगर वर्ष 2023-24 में पूंजीगत व्यय के लिए केंद्र सरकार द्वारा दिए गए लगभग 1.3 लाख करोड़ रुपये के ब्याज मुक्त ऋण को शामिल नहीं करें तो यह अनुपात घटकर 1.5 फीसदी ही रह जाएगा।

दूसरे शब्दों में कहें तो राज्य अपने कुल पूंजीगत व्यय में जीडीपी के 0.5 फीसदी अंक के बराबर की कटौती कर उसकी जगह केंद्र से मिले ब्याज मुक्त ऋण का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका देश में विकास और रोजगार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इस प्रकार, बढ़ती ‘मु‌फ्त’ की चीजें गरीबों के सशक्तीकरण पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं जिसके भविष्य में गंभीर सामाजिक परिणाम भी हो सकते हैं।

(लेखक कर्नाटक क्षेत्रीय असंतुलन समाधान समिति के चेयरमैन हैं)

First Published : December 15, 2025 | 9:43 PM IST