भारतीय संसद ने 2016 में ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) का गठन किया ताकि देश को वित्तीय दिक्कत और फंसा कर्ज संभालने की चुनौतियों से उबारा जा सके। शुरुआती सालों में आईबीसी को संस्थागत तालमेल का फायदा मिला। विधायिका ने पहले पांच साल में संहिता में छह संशोधन किए ताकि क्रियान्वयन की चुनौतियां दूर की जा सकें और बदलते आर्थिक माहौल से कदमताल की जा सके। कार्यपालिका ने नियम-कायदे तैयार किए तथा भारतीय ऋणशोधन एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) और राष्ट्रीय कंपनी विधि पंचाट (एनसीएलटी) का गठन किया। साथ ही ऋण शोधन पेशेवरों के साथ उपयुक्त व्यवस्था तैयार की गई। न्यायपालिका ने संहिता की उद्देश्य और समझदारी भरी व्याख्या के जरिये इसे वाणिज्यिक एवं समयबद्ध बनाए रखा।
शुरुआत में इन प्रयासों के उल्लेखनीय परिणाम सामने आए। मामले तेजी से निपटे, देनदारों का रवैया बदला और कर्ज के मामले में अनुशासन बढ़ा। आईबीसी लागू होने के बाद तीन साल में ऋणशोधन के मामले निपटाने में भारत दुनिया में 136वें पायदान से चढ़कर 52वें पायदान पर आ गया। मगर अब रफ्तार थमती लग रही है। ऋणशोधन प्रक्रिया में कमियां दिख रही हैं मगर इस लेख में चिंता की दो वजहों पर बात करेंगे: न्यायपालिका और कार्यपालिका, जिनके हालिया कदमों से ऋणोधन अक्षमता निपटाने का आईबीसी का बुनियादी मकसद ही मात खाता दिखता है।
सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसलों ने संहिता की बुनियाद ही बदल दी है और विधायिका के लक्ष्य को कमजोर कर दिया है। भूषण स्टील ऐंड पॉवर लिमिटेड में अदालती फैसला परेशान करने वाला है, जहां न्यायालय ने वर्षों पहले लागू हो चुकी समाधान योजना को नकार दिया। फैसले में हुई देर ने भी बेचैन कर दिया। एक ऐसे कानून के तहत फैसला लेने में पांच साल लग गए, जिसमें तय समय के भीतर समाधान जरूरी कहा गया है। इससे लगता है कि कितना भी पुराना और राज्य की मंजूरी वाला वाणिज्यिक लेनदेन भी आगे जाकर फंस सकता है।
रेनबो पेपर्स लिमिटेड मामले में भी झटका लगा। वहां सर्वोच्च न्यायालय ने कंपनी की परिसंपत्तियों का जिम्मा सरकार को सौंप दिया, जबकि आईबीसी में सरकारी बकाये के भुगतान की प्रथामिकता का क्रम बदलने के बारे में स्पष्ट रूप से बताया गया है और कहा गया है कि सरकार का बकाया बिना रेहन के कर्ज के बाद आएगा। पश्चिमांचल के समन्वय पीठ ने देखा कि वैधानिक प्राथमिकता नियम या तो रेनबो मामले में न्यायालय के संज्ञान में नहीं लाया गया या उस पर ध्यान ही नहीं गया। उसने माना कि विधायिका सरकारी बकाये को ऋणदाताओं के बकाये के बाद रखना चाहती है।
एनसीएलटी पर बोझ कम करने और मामलों को जल्द स्वीकार करने के लिए विधायिका ने तय किया कि चूक यानी डीफॉल्ट होते ही कार्यवाही शुरू कर दी जाए। विधेयक में शामिल प्रावधानों नोट्स ने इस तर्क को बल दिया क्योंकि उनमें तेजी से बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए त्वरित मंजूरी जरूरी बताई गई थी। मगर विदर्भ इंडस्ट्रीज पॉवर लिमिटेड मामले में अदालत ने अलग रुख अपनाते हुए एनसीएलटी को कंपनी की व्यवहार्यता तथा वित्तीय सेहत जांचने के लिए कहा, जबकि एनसीएलटी को न तो इसका अधिकार है और न ही इसकी क्षमता उसके पास है। उसने कहा कि एनसीएलटी ‘वित्तीय ऋणदाता के आवेदन को तब तक स्वीकार करने से टाल सकता है, जब तक मंजूरी की अच्छी वजह उसके पास न हो।’
कार्यपालिका की बात करें तो आईबीसी की अहमियत तय समय में काम करने के कारण ही है। संकट में फंसी कंपनी किसी लायक न बचे, इससे पहले समाधान योजना को स्वीकर कर लेना चाहिए। समाधान योजना मंजूर हो और दिवालिया होने से पहले ही लागू कर दी जाए। मुश्किल से गुजर रही कंपनियों में फंसे संसाधनों को बरबाद होने से पहले निकाल लेना चाहिए। इसी तरह बेजा लेनदेन के जरिये गया धन फौरन वापस लाना चाहिए वरना उसकी वसूली असंभव हो जाएगी।
दुर्भाग्य से आवेदन स्वीकार करने, समाधान योजना मंजूर करने आदि में एनसीएलटी को अक्सर कई साल लग जाते हैं। इतना अटकने पर समाधान योजना बेशक अव्यावहारिक हो जाए, आवेदकों को उसी पर टिके रहना पड़ता है। इससे भी बुरी बात है कि लागू होने के कई साल बाद भी योजना रद्द की जा सकती है। इस तरह के विलंब और अनिश्चितताओं ने आईबीसी में भरोसा खत्म कर दिया है और फंसी संपत्तियों का बाजार भी कम हो गया है।
इसकी वजह यह है कि एनसीएलटी के पास सदस्यों, विशेषज्ञता, बुनियादी ढांचे, तकनीक, संस्थागत संस्कृति या बोझ संभालने की क्षमता कम है। शुरू में 63 सदस्यों के साथ गठित एनसीएलटी का काम कंपनी कानून देखना था मगर अब उसे आईबीसी के पेचीदा मामले भी देखने पड़ रहे हैं, जबकि सदस्य नहीं बढ़े हैं। विशेषज्ञता के मसले पर पिछले वर्ष नवंबर में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्ण पीठ ने कहा, ‘सदस्यों के पास अक्सर उस क्षेत्र की जानकारी ही नहीं होती, जो पेचीदा मामले सुलझाने के लिए जरूरी है। समुचित जानकारी वाले विशेषज्ञों की नियुक्ति को तरजीह दी जानी चाहिए।’ एनसीएलटी में खास तौर पर कार्यपालिका वाले क्षेत्र में जल्द ही ढांचागत तथा कामकाजी कायाकल्प जरूरी है।
समाधान का काम ऑर्केस्ट्रा की तरह होता है, जहां हर किसी को एक साथ काम करना होता है। मगर राजस्व और प्रवर्तन अधिकारी अक्सर अलग सुर में गाते हैं। अंशधारक मिल-जुलकर समाधान योजना तैयार कर रहे होते हैं और कर विभाग कंपनी बकाया वसूलने के लिए कंपनी की संपत्तियां नीलाम करने लगता है या कोई जांच एजेंसी उसके खाते या संपत्तियां सील कर देती है, जिससे प्रक्रिया रुक जाती है। इस प्रक्रिया के प्रमुख सूत्रधार ऋणशोधन पेशेवर को पुलिस समेत हर किसी से सहयोग चाहिए। मगर एक मामले में पेशेवर को ही गिरफ्तार कर लिया गया।
कानून साफ कहता है कि एनसीएलटी की मंजूरी वाली समाधान योजना सभी अंशधारकों और सरकार को भी माननी पड़ेगी। जो दावा समाधान योजना में नहीं है, उसे खत्म मान लिया जाता है। इससे समाधान आवेदक नई शुरुआत कर सकता है। फिर भी कुछ कर अधिकारी तय मियाद में दावा नहीं पेश कर पाते। फिर वे समाधान योजना मंजूर होने के बाद भी दावा जमा करने की कोशिश करते हैं और सर्वोच्च न्यायालय पहुंच जाते हैं। मंजूर योजना में उनके दावे पूरे नहीं होने की बात कहकर वे नई मांग भी रख देते हैं।
सार्वजनिक कानूनों का मकसद है अपराध से आई संपत्ति को अपराधियों की पहुंच से दूर रखना और अपराधियों को दंडित करना। ये संपत्ति कभी सरकार की नहीं थीं मगर उनकी जब्ती का फायदा सरकार को ही होता है। मगर हो सकता है कि लेनदार ने ऐसी संपत्तियों के बदले ये कर्ज दिए हों, जो कंपनी की मिलकियत थीं मगर अपराध से तैयार की गई थीं। कंपनियों का पुनरुद्धार, संसाधनों का उपयोग और सुरक्षित लेनदारों की वसूली इन संपत्तियों पर निर्भर करती है। इसे स्वीकार करते हुए विधायिका ने अपराधियों पर मुकदमा चलाने की राज्य की शक्ति कम किए बिना समाधान की अनुमति देने के लिए आईबीसी में संशोधन किया। किंतु प्रवर्तन एजेंसियों और अदालतों का रुख एक जैसा नहीं लगता। जब तक न्यायपालिका और कार्यपालिका संहिता के मूल सिद्धांतों पर प्रतिबद्धता नहीं जतातीं, आईबीसी कमजोर ही रहेगी।