बिहार विधानसभा चुनावों से पहले लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के नेता राम विलास पासवान के निधन से एक बड़ा खालीपन पैदा हुआ है। इसका चुनाव के नतीजों और राज्य की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? ये सीधे सवाल हैं। मगर बिहार में सब कुछ पेचीदा है और कोई भी चीज जैसी दिखती है, वैसी नहीं है।
जब पासवान जीवित थे, उसी समय उनके 37 वर्षीय पुत्र चिराग ने घोषणा की थी कि लोजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में रहेगी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का समर्थन करेगी, लेकिन जनता दल यूनाइटेड (जदयू) का पुरजोर विरोध करेगी। इस फैसले से बहुत से खिलाडिय़ों को अपने राजनीतिक समीकरण बदलने पड़े। लोजपा को भाजपा के मोहरे के रूप में देखा गया, जो जेडीयू की सीटों की संख्या घटाएगी और चुनाव के बाद भाजपा को नीतीश कुमार की पार्टी को सरकार से बाहर करने या कम से कम किनारे लगाने में मदद देगी। गौरतलब है कि चिराग पिछले करीब एक साल से पार्टी को खुद ही चला रहे हैं। हालांकि इसकी व्यावहारिक वजह भी हैं।
बीती कहानी
जब पासवान ने वर्ष 2000 में लोजपा बनाई थी, उस समय इसे दलितों, विशेष रूप से दुसाध उपजाति की पार्टी माना जाता था। दुसाध बिहार की कुल आबादी में महज दो फीसदी के आसपास हैं। सेंटर फॉर डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के एक अध्ययन में कहा गया है कि जब लोजपा ने 2005 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ा तो उसे 65 फीसदी दुसाधों के मत मिले। तब से इस जाति के ज्यादातर लोगों ने उस गठबंधन को मत दिया है, जिनके साथ लोजपा ने चुनाव से पहले गठजोड़ किया। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनावों में 51 फीसदी दुसाधों ने राजग तो मत दिया। इससे गठबंधन को वे मत भी मिल गए, जो आम तौर पर उसे नहीं मिलते। इस तरह लोजपा एक वोट बैंक की प्रतिनिधि बन गई है।
इसमें पासवान के लोगों से जुड़ाव की अहम भूमिका थी। एक विद्वान डॉ. मनीषा प्रियम का बिहार और झारखंड की राजनीति पर कार्य व्यापक और प्रशंसनीय है। उन्होंने एक घटना को याद करते हुए कहा, ‘मैं एक चुनाव के दौरान फील्डवर्क के लिए हाजीपुर में थी और पासवान का चुनाव अभियान चल रहा था। लोगों की प्रतिक्रिया उत्साहजनक थी। मुझे याद है कि भीड़ एक वृद्ध महिला को पकड़े हुए थी और इस बात पर जोर दे रही थी कि पासवान उससे मिलें।’ उन्होंने मांग की, ‘इसके सिर पर हाथ रख दीजिये, यह ठीक हो जाएगी।’ उस महिला को कैंसर था। बहुत कम नेताओं की ऐसे प्रशंसक होते हैं।
राज्य में एक राजनीतिक ताकत के रूप में कांग्रेस की कमजोरी से लोजपा का उभार हुआ। लेकिन पासवान के पक्ष में एक और चीज थी। वह समाजवादी नेताओं- कर्पूरी ठाकुर से लेकर लालू प्रसाद और नीतीश कुमार तक जुड़े रहे और उनकी विचारधारा को जानते थे। इसलिए उनकी अपील केवल अपनी जाति तक सीमित नहीं थी। हालांकि वह ऐसी लगती थी। उनकी पार्टी ने अन्य बहुत सी जातियों को भी टिकट दिए। प्रियम ने कहा, ‘हालांकि उन्होंने दलितों का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन वह दलित नेता नहीं थे।’ असल में अन्य दलित जातियों ने भी उन्हें अपना नेता नहीं माना।
इसमें नीतीश कुमार को एक मौका नजर आया। जब उन्होंने यह विचार रखा कि अति पिछड़ों का एक गठबंधन होना चाहिए तो वह उन लोगों को अपील कर रहे थे, जिनकी पासवान जैसे लोगों ने अनदेखी की थी। यह निस्संदेह लोजपा के जनाधार पर तगड़ा प्रहार था। पासवान ने इसे लेकर पूरा धैर्य दिखाया। लेकिन लोजपा के दरवाजे हमेशा उन लोगों के लिए खुले थे, जो कुमार के दबदबे के खिलाफ थे।
युवा का उभार
हालांकि चिराग का स्वभाव ऐसा नहीं है। वह जोशीले , युवा और महत्त्वाकांक्षी हैं। उन्होंने महसूस किया कि पार्टी को अपने बलबूते नई पहल करनी चाहिए। उनकी पार्टी आगामी चुनावों के लिए अब तक 42 उम्मीदवार तय कर चुकी है। इनमें 8-8 उम्मीदवार भूमिहार और राजपूत जातियों के हैं। पासवान केवल छह हैं और मुस्लिम एक। शेष टिकट अन्य जातियों के लोगों को दिए गए हैं। भाजपा समेत अन्य दलों के बागियों का स्वागत किया जा रहा है। भाजपा के तीन बागी लोजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें धमकी दी गई थी कि अगर वे अपनी इसी राह पर चले तो उन्हें बुरे नतीजे झेलने पड़ेंगे।
बिहार से राज्य सभा में भाजपा के सांसद राकेश सिन्हा ने कहा, ‘पासवान ने गरीबों और वंचितों के प्रतिनिधि के रूप में ख्याति हासिल की। हालांकि वह दलित थे, लेकिन वह कभी सवर्ण जातियों के विरोध की राजनीति में नहीं पड़े, इसलिए उन्हें अगड़ी जातियों का भी समर्थन मिला।’ उन्होंने कहा कि भाजपा को जन समर्थन हासिल है और वह एकमात्र ऐसी पार्टी है, जिसका पूरे बिहार में सांगठनिक ढांचा है। इससे राजग को स्पष्ट बढ़त मिल रही है।
पासवान, कुमार और प्रसाद ने एक ही जगह से राजनीति शुरू की। तेजस्वी यादव, चिराग और नित्यानंद राय में बहुत कम समानताएं हैं, इसलिए बिहार में अगली पीढ़ी के नेता की जगह खाली है। एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने कहा, ‘चिराग के रूप में हमने एक बड़ा नेता खड़ा कर दिया है।’ उन्होंने एक उदाहरण दिया, ‘वर्ष 2012 की बात है। मोदीजी कैलाशपति मिश्रा के दाह संस्कार में शामिल होने के लिए पटना आए थे। उषा विद्यार्थी मोदी की बड़ी समर्थक थीं। वह मोदी की झलक पाने के लिए डिब्बों के ढेर के ऊपर चढ़ गईं। किसी ने उन्हें चेताया कि वह गिर सकती हैं। उन्होंने कहा तो क्या होगा। अगर वह गिरेंगी तो भी मोदीजी के चरणों में गिरेंगी। आज वह लोजपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रही हैं। हम भविष्य की चुनौतियों को कमतर नहीं आंक सकते।’
