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प्रजनन दर बढ़ाए बिना कैसे हल हो आबादी का सवाल?

हमें गिरती जन्मदर की समस्या का हल तलाशना चाहिए मगर इसके लिए महिलाओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने हेतु प्रोत्साहित करने के बजाय अन्य विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए। बता रहे हैं

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आर जगन्नाथन   
Last Updated- December 06, 2024 | 9:45 PM IST

जब से राजनेताओं और बुद्धिजीवियों ने इस सत्य को समझा है कि ‘जनांकिकी ही नियति है’, तब से वे जनसंख्या को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। यूरोप और अमेरिका में उन्होंने अवैध प्रवासियों का आगमन रोककर ऐसा करने का प्रयास किया क्योंकि प्रवासियों के कारण उनकी जनांकिकी बिगड़ रही है। भारत में हम केवल कुल प्रजनन दर (टीएफआर) बढ़ाकर ऐसा करने पर विचार कर रहे हैं। प्रति महिला 2.1 की कुल प्रजनन दर को आबादी के स्तर को स्थिर रखने के लिए उचित माना जाता है।

अक्टूबर में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्यों में घटती टीएफआर की बात कहते हुए संकेत दिया कि वे परिवारों को और बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की ताजा रिपोर्ट तथा ऐसी ही अन्य रिपोर्ट के मुताबिक जहां तमिलनाडु की टीएफआर 1.8 और आंध्र प्रदेश की 1.7 है वहीं बिहार 3 की टीएफआर के साथ सबसे ऊपर है। उत्तर प्रदेश और झारखंड की टीएफआर क्रमश: 2.4 और 2.3 है।

इससे संकेत मिलता है कि बड़ी आबादी वाले हिंदी प्रदेशों में भी दर घट रही है। कुछ दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने यह मुद्दा उठाया और कहा कि महिलाओं को तीन बच्चे पैदा करने चाहिए। हालांकि उन्होंने खुलकर यह नहीं कहा, लेकिन वह शायद मुस्लिमों की तुलना में हिंदुओं की कम होती प्रजनन दर की बात कर रहे थे।

दक्षिण के राज्यों की बात करें तो अगली जनगणना और परिसीमन के बाद उन्हें लोक सभा में कुछ सीटें गंवानी होंगी और वहां जन्मदर बढ़ाना प्राथमिकता नजर आ रहा है। यह कारगर नहीं होने वाला। महिलाएं केवल कुछ लाभ पाने या राजनीतिक वजहों से अधिक बच्चे नहीं पैदा करना चाहेंगी। जन्म दर में कमी आनी तब शुरू होती है जब आर्थिक हालात सुधरते हैं और महिलाओं को बेहतर शिक्षा और रोजगार मिलते हैं। जैसे-जैसे आर्थिक स्थिति सुधरती है, बच्चों को पालने का खर्च भी बढ़ता है क्योंकि स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं महंगी होती हैं। ऐसे में केवल नकदी या मातृत्व अवकाश से बात नहीं बनेगी।

राजनेता और समाज विज्ञानी सोचते हैं कि उनके पास मानवीय व्यवहार को निर्देशित करने या प्रोत्साहित करने के उपाय हैं लेकिन माओ के चीन या पोल पॉट के कंबोडिया जैसे दमनकारी शासकों की तरह उनके पास ऐसी ताकत नहीं होती। बात यह नहीं है कि आप प्रोत्साहनों और दंडों की उचित प्रणाली लागू करके निजी व्यवहार को प्रभावित नहीं कर सकते, बल्कि यह है कि केवल इसी पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करना अंतत: विपरीत परिणाम देगा।

याद कीजिए कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी के जबरन नसबंदी कार्यक्रम ने कितना अधिक नुकसान किया था। उस समय जनसंख्या वृद्धि को बहुत बड़ी समस्या माना जाता था। असली समस्या आबादी नहीं थी बल्कि अपर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन की थी। हरित क्रांति के बाद आबादी की चिंता कम हो गई। आज, चूंकि हम समस्या को इसके उलट मान रहे हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि हमें कामयाबी मिल जाएगी। हमें टीएफआर दर बढ़ाने के बजाय अन्य विकल्पों पर विचार करना होगा।

आइए जानते हैं कुछ ऐसी वजहें जिनके चलते शायद टीएफआर को नियंत्रित करके जनसंख्या नियंत्रण कर पाना मुश्किल हो सकता है। इससे सामाजिक तनाव भी बढ़ सकता है। पहली बात अगर सरकार ज्यादा बच्चों को पैदा करने को प्रोत्साहन देती है तो संभव है कि यह बात गरीबों या अवैध प्रवासियों को प्रोत्साहन दे।

दूसरी बात, किसी प्रदेश में लोक सभा सीटें कम होने के डर से टीएफआर को प्रभावित करने का विचार संविधान की इस भावना के विपरीत है कि जनसंख्या बढ़ने पर कुछ समूहों या श्रेणियों के लिए सीटें बढ़ा दी जाएं। 2001 की जनगणना में बढ़ी आबादी को देखते हुए लोक सभा में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सीटें क्रमश 79 से बढ़ाकर 84 और 41 से बढ़ाकर 47 कर दी गईं। अगर यह स्वीकार्य है तो इसी तर्क पर उत्तर प्रदेश, बिहार या झारखंड की हिस्सेदारी बढ़ने का विरोध करना बेतुका है। दक्षिण के राज्यों के हितों के बचाव के अन्य तरीके अपनाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए संविधान संशोधनों की सीमा बढ़ाकर या राज्य सभा की सीटों में उनकी हिस्सेदारी बढ़ाई जा सकती है।

तीसरा, दक्षिण भारत के राज्य लंबे समय से यह कहते रहे हैं कि उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण करके राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुरूप कदम उठाए हैं जबकि अब उनका लक्ष्य बदला हुआ नजर आता है। घटती प्रजनन दर की बात करें तो वे वास्तव में देश की जरूरत के अनुरूप काम नहीं कर रहे हैं। देश का प्रजनन दर आधारित जनांकिकीय लाभ हिंदी क्षेत्र से आ रहा है न कि दक्षिण से। ऐसे में पुरस्कृत तो उत्तर भारत को होना चाहिए।

चौथा, जनांकिकीय में बदलाव की असली समस्या सामाजिक तनाव की है। अगर किसी देश या समाज में जनसंख्या की कमी को प्रवासियों से पूरा किया जाता है तो एक सांस्कृतिक टकराव उत्पन्न होता है जिससे निपटने की जरूरत है। केवल परिवारों के निर्णय के स्तर पर जनांकिकी के रुझानों से उलझना मूर्खता होगी। जहां तक बाद अधिक लोक सभा सीटों की है, दक्षिण भारत को हिंदी क्षेत्र से अधिक से अधिक रहवासियों को अपने यहां स्थायी रूप से बसने को आमंत्रित करना चाहिए और उन्हें तमिल या तेलुगू सीखने को कहना चाहिए ताकि प्रवासी स्थानीय संस्कृति के साथ अच्छी तरह घुलमिल जाएं।

प्रजनन दर को प्रोत्साहित करने के बजाय यह अधिक वास्तविक लक्ष्य है। हालांकि प्रदेशों को महिलाओं और बच्चों के अनुकूल बनाने में कोई समस्या नहीं है, यह भी अच्छी बात है। घटती टीएफआर वाले देशों और राज्यों को उन तकनीक और कारोबार में निवेश करना चाहिए जो बुजर्ग आबादी की देखभाल में काम आए। वे सरकारी और निजी नौकरियों में सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने पर विचार कर सकते हैं। कामकाजी आयु में अधिक बचत को प्रोत्साहित किया जा सकता है। अब जबकि नए योगदान करने वाले लगातार कम हो रहे हैं तब पेंशन बहुत अधिक नहीं हो सकती। इसमें सरकारी कर्मचारियों और सशस्त्र बलों की पेंशन भी शामिल है। सरकार वरिष्ठ नागरिकों की मदद के लिए स्वचालित तकनीकों को भी प्रोत्साहन दे सकती है क्योंकि उनकी देखभाल के लिए ज्यादा बच्चे नहीं हैं।

असली समस्या है जनांकिकीय बदलाव की दर। खासतौर पर प्रवासियों के आगमन के साथ ऐसा होने पर सामाजिक अस्थिरता और अनचाहे तनाव आते हैं। राज्यों के लिए बेहतर होगा कि वे प्रवासियों को लेकर नियम सख्त करें। उन्हें जोर देना चाहिए कि दूसरी संस्कृतियों से आने वाले लोग स्थानीय संस्कृति सीखें और अपनाएं। डेनमार्क में अगर आपको नागरिकता चाहिए तो आपको स्थानीय भाषा और संस्कृति का ज्ञान होना जरूरी है। आपको डेनमार्क और वहां के समाज के साथ जुड़ाव जाहिर करना होगा। इसके साथ ही उन्हें डेनमार्क के लोकतांत्रिक मानकों सहित स्थानीय मूल्यों का पालन करना होगा।

भारत में जहां बहुसंख्यक समुदाय धार्मिक समूहों द्वारा हिंदुओं का धर्म परिवर्तित किए जाने को लेकर भयभीत रहता है वहां प्रवासियों को आने देने की एक शर्त यह होनी चाहिए कि वे धर्म परिवर्तन की गतिविधि में नहीं शामिल होंगे और हिंदू संस्कृति और मूल्यों का सम्मान करेंगे। नए प्रवासियों को अलग सांस्कृतिक केंद्र स्थापित करके रहने की इजाजत नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे अलगाववादी मानसिकता तैयार होती है। इसके साथ ही बिना नागरिकता अधिकार के वर्क परमिट के नियम उदार होने चाहिए ताकि कम वेतन वाले देशों से श्रमिक उच्च वेतन वाले देशों में जा सकें।

जनसंख्या देश की तकदीर तय कर सकती है लेकिन समस्या का हल महिलाओं से और अधिक बलिदान करने को कहने में नहीं है। भारत जैसे देश में तो कतई नहीं जहां परिवार पालने की जिम्मेदारी काफी हद तक महिलाओं के कंधे पर रहती है और अभी तो उन्होंने आजादी का सुख लेना शुरू किया है।

First Published : December 6, 2024 | 9:45 PM IST