जब भी वित्तीय क्षेत्र में कोई नई परिस्थिति पैदा होती है तो चार सवालों के जवाब हमें समुचित वित्तीय नियामकीय डिजाइन तक ले जाते हैं। जब हम इन्हें स्वामित्व और क्रिप्टोकरेंसी के इस्तेमाल पर लागू करते हैं तो उपभोक्ता संरक्षण को लेकर कुछ चिंताएं उभरती हैं और एक सामान्य रणनीति है जिसे उस समय लागू किया जा सकता है जब भारतीय वित्तीय सेवा प्रदाताओं का सामना भारतीयों से होता है।
कई लोगों के लिए वित्तीय नियमन वह है जो आज के वित्तीय नियामक करते हैं, जिससे ताकतवर राजनीतिक लॉबी संतुष्ट होती हैं या ऐसी चीजों में हस्तक्षेप करती हैं जो उन्हें पसंद नहीं होतीं। वित्तीय नियमन में राज्य के दबाव का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। एक ढांचागत और अनुशासित रुख होना चाहिए जिसकी मदद से हम हालात का विश्लेषण कर सकें तथा वित्तीय नियमन की उपयोगी भूमिका तलाश कर सकें। इसके लिए चार सवालों का पूछा जाना आवश्यक है।
व्यवस्थागत जोखिम: क्या एक वित्तीय फर्म या बाजार डिफॉल्ट की स्थिति में वित्तीय तंत्र की समग्र मजबूती के लिए समस्या खड़ी करता है? यदि ऐसा होता है तो मासूम प्रत्यक्षदर्शियों पर नकारात्मक बाह्यता थोपे जाने के रूप में बाजार की विफलता सामने आ सकती है। यह सरकार के हस्तक्षेप की वजह हो सकती है। वह विफलता की संभावना कम करने वाले नियमन या फिर निस्तारण को व्यवस्थित बनाने वाले नियमों के माध्यम से ऐसा कर सकती है। क्रिप्टोकरेंसी के मामले में भारत में अभी कारोबार का आकार बहुत छोटा है और व्यवस्थित जोखिम का कोई संकेत नहीं है। जब किसी एक कारोबारी की बैलेंस शीट करीब 3 लाख करोड़ रुपये या जीडीपी के एक प्रतिशत के बराबर हो जाए तो यह अवश्य विचारणीय हो जाता है।
निस्तारण: क्या कोई वित्तीय फर्म ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) के रास्ते निस्तारण की स्थिति में अहम कठिनाइयां पेश करती है? उदाहरण के लिए ऐसी वित्तीय फर्म का निस्तारण समझ में आता है जिसके पास खुदरा जमाकर्ता न हों। मसलन डीएचएफएल का मामला जहां आईबीसी प्रक्रिया के तहत कर्जदाताओं की समिति को अधिकार सौंप दिए गए। परंतु जब हमारा सामना बैंक के खुदरा निवेशकों से हो तो हमें विशिष्ट वित्तीय निस्तारण निकाय की आवश्यकता होती है।
जब हमारा सामना ऐसे भारतीय वित्तीय सेवा प्रदाताओं से होता है जो बैंक के समान तरीकों से क्रिप्टोकरेंसी जमा स्वीकार करते हैं तब इसके लिए वित्तीय निस्तारण निकाय में कवरेज की आवश्यकता होती है। परंतु क्रिप्टोकरेंसी के स्वामित्व और कारोबार की सहज प्रक्रिया में निस्तारण के प्रश्न नहीं खड़े होते हैं।
बुद्धिमतापूर्ण नियमन: यदि बैंक जैसा कोई संस्थान सुनिश्चित प्रतिफल की बात करता है या कोई बीमा कंपनी भविष्य में भुगतान का वादा करती है तो उपभोक्ताओं के मन में प्राय: यह चिंता रहती है कि ये वादे किस हद तक निभाये जाएंगे। ऐसे ग्राहकों के समक्ष मौजूद जोखिम का बचाव करने के लिए सरकार समझदारी भरे नियमन लागू कर सकती है ताकि नाकामी की संभावनाओं को कम किया जा सके। ये चिंताएं उस समय नहीं उत्पन्न होती हैं जब क्रिप्टोकरेंसी परिसंपत्तियों की खरीद या स्वामित्व या हस्तांतरण की प्रक्रिया से निपटा जाता है।
उपभोक्ता संरक्षण: वित्तीय फर्म अक्सर उपभोक्ताओं के साथ उचित आचरण नहीं करतीं। इसकी वजह से उपभोक्ता औपचारिक वित्त से दूरी बनाते हैं और अनौपचारिक वित्त या सोने अथवा विदेशी परिसंपत्तियों का रुख करते हैं। वित्तीय तंत्र के कामकाज में नियामकीय हस्तक्षेप की मदद से बेहतरी लाने का प्रयास जरूरी है।
हजारों क्रिप्टोकरेंसी परिसंपत्तियों जिनमें कुछ धोखाधड़ी वाली भी हैं, के साथ दिक्कत यह है कि कुछ उपभोक्ता गलती करते हैं और उसके बाद एक परिसंपत्ति वर्ग के रूप में क्रिप्टोकरेंसी से दूरी बनाते हैं। यह वैसा ही है जैसे कुछ गलत लोगों के कारण पूरे क्षेत्र से दूरी बना ली जाए।
भारतीय नियामक मुद्रा प्रबंधन जैसी सहज तकनीक अपनाकर मामला हल कर सकते हैं। मुद्रा प्रबंधन में सीधे-साधे उपयोगकर्ताओं को अत्यधिक नियमित म्युचुअल फंड में निवेश करना चाहिए लेकिन अगर एक बार उपयोगकर्ता का न्यूनतम आकार बढ़ जाता है तो माना जाता है कि वे जानकार होंगे या उनके पास जानकारी जुटाने के संसाधन होंगे। ऐसे में वे हेज फंड जैसी परिसंपत्ति का रुख कर सकते हैं।
यह तरीका क्रिप्टोकरेंसी की दुनिया में भी उपयोगी हो सकता है। भारतीय नियामक क्रिप्टोकरेंसी पेश कर रही वित्तीय कंपनियों को कह सकती हैं कि कम से कम पांच लाख रुपये के कारोबार की इजाजत हो। ऐसा करने से नौसिखिया दूर रहेंगे और केवल समझदार और विवेकवान कारोबारी ही आगे आएंगे।
वित्तीय क्षेत्र में घाटा होना आम बात है। जब कोई शेयर बाजार में शेयर खरीदता है तो 50 फीसदी गुंजाइश यही होती है कि अगले दिन शेयर कीमत नीचे जाएगी। अगर कोई व्यक्ति एक रुपया कमाता है तो कोई अन्य व्यक्ति इतना ही पैसा गंवाता है। घाटा होना बाजार की विफलता नहीं है। अगर जोखिम को पूरी तरह समाप्त करना है तो अमेरिकी सरकार के बॉन्ड खरीदने होंगे।
सभी को लाभ प्राप्त हो यह तय करना नियामक का काम नहीं है। उसका काम यह भी नहीं है कि लोगों को घाटे से बचाये। वह बेवकूफियां करने से भी नहीं रोक सकता। वित्तीय और आर्थिक नीति का काम है बाजार की नाकामी को रोकना। व्यवस्था के जोखिम, निस्तारण, समझदारी भरे नियमन और उपभोक्ता संरक्षण इसी सिलसिले का हिस्सा हैं।
वित्तीय नियमन और वित्तीय सलाह के बीच बहुत अंतर है। हम यह सोच सकते हैं कि क्रिप्टोकरेंसी रखना अमुक व्यक्ति के लिए ठीक नहीं है लेकिन यह मशविरे का क्षेत्र है। मैंने कभी क्रिप्टोकरेंसी नहीं रखी और मुझे उसकी मौजूदा स्थिति को लेकर तमाम संदेह हैं। लेकिन मैं अचल संपत्ति और सोने जैसे निवेश को लेकर भी आशंकित रहता हूं। परंतु परिसंपत्तियों के अच्छा या बुरा होने को लेकर मेरे विचार केवल विचार ही तो हैं।
वित्तीय नियमन विचार का मामला नहीं है। यह वित्तीय क्षेत्र में बाजार की विफलता कम करने, राज्य के बल प्रयोग को नियंत्रित करने, विभिन्न प्रकार की समस्याओं को दूर करने के लिए राज्य द्वारा व्यवस्थित हस्तक्षेप करने जैसे कदमों से संबंधित है। ऐसे हर कदम, हर हस्तक्षेप के पीछे उपयुक्त तर्क, प्रमाण और कारण होना चाहिए। यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि राज्य की शक्ति का प्रयोग क्यों किया गया।
(लेखक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं)
