सुधार का काम कभी पूरा नहीं होता। पिछले महीने अर्थशास्त्री एम गोविंद राव ने इसी समाचार पत्र में प्रकाशित आलेख में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में सुधार की दिशा और समय के बारे में ठोस तर्क दिए थे। उन्होंने कहा था कि अब बड़े सुधारों का वक्त आ चुका है क्योंकि अर्थव्यवस्था वैश्विक प्रतिकूलताओं के बावजूद बेहतर स्थिति में नजर आ रही है।
यह बात अलग है कि लोकतांत्रिक देशों में बड़े सुधार अक्सर संकट के समय ही अंजाम दिए जाते हैं। उनका यह भी मानना है कि वर्तमान जीएसटी ढांचा उत्कृष्ट नहीं है और हमें दुनिया भर में चल रहे श्रेष्ठ तौर-तरीके अपनाने चाहिए। साथ ही हमें कर की कम दरें और आपस में कम अंतर वाली दरें तथा सहज पारदर्शी ढांचा अपनाना चाहिए।
इन बातों से किसी को इनकार नहीं है और अधिकतर अर्थशास्त्री भी यही चाहते हैं। जिन्हें पुनर्वितरण वाले न्याय की अधिक फिक्र है, वे शायद इससे सहमत नहीं होंगे मगर उनकी बात बाद में करेंगे। राव का आलेख प्रकाशित होने के फौरन बाद हमें जीएसटी व्यवस्था की जटिलता का प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिला, जब कोयंबत्तूर के एक होटल कारोबारी डी श्रीनिवासन ने बताया कि उनके कारोबार में कर ढांचा कितना विचित्र है।
एक कार्यक्रम में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण मुख्य अतिथि थीं। वहां श्रीनिवासन ने कहा कि मिठाइयों पर 5 फीसदी, नमकीन पर 12 फीसदी और क्रीम भरे बन्स पर 18 फीसदी जीएसटी वसूला जाता है मगर सादे ‘बन’ पर बिल्कुल जीएसटी नहीं लगता।
इस बात पर बहुत राजनीतिक हो-हल्ला हुआ। केवल इसलिए नहीं हुआ कि भारतीय जनता पार्टी के एक स्थानीय कार्यकर्ता ने वीडियो लीक कर दिया, जिसमें होटल कारोबारी वित्त मंत्री से इसलिए माफी मांग रहा था क्योंकि उसने उन्हें सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा कर दिया था। मामला यह नहीं है कि किसने किसे शर्मिंदा किया। मामला एचएसएन कोड व्यवस्था के तहत वर्गीकरण की समस्या का है, जिसमें ब्यूरोक्रेट तय करते हैं कि किस वस्तु को किस श्रेणी में रखना है, खास तौर पर कर की कई दरें होने पर।
होटल कारोबारी का तो धन्यवाद किया जाना चाहिए क्योंकि उसने इस समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया लेकिन यह सोचना नासमझी होगी कि वर्गीकरण के त्रुटिपूर्ण तरीके को जीएसटी के नियम-कानूनों में मामूली रद्दोबदल से दूर किया जा सकता है। इसमें जो समस्या है वह अर्थशास्त्र से नहीं बल्कि इस बात से जुड़ी है कि कर से छूट वाली किसी वस्तु के कई इस्तेमाल हो सकते हैं और जब कि एक रियायती वस्तु के कई इस्तेमाल हो सकते हैं और जब इसमें इंसान को फैसला करने दिया जाता है तो उत्पादकों और उपभोक्ताओं के उस समूह को उन लोगों के मुकाबले बचाने या रियायत देने की कोशिश की जाएगी, जो अधिक खर्च कर सकते हैं। इसीलिए सादा बन 5 रुपये का है और दूसरी तरह के बन्स 10 गुना महंगे। अगर दोनों पर जीएसटी माफ हो जाता तो सामाजिक न्याय के योद्धाओं को कष्ट हो जाता।
अब वह बात, जिस पर मैं ध्यान दिलाना चाहता हूं। अर्थशास्त्री (कम से कम कुछ) कर नीतियों को सरल और प्रभावी बनाना चाहते हैं, लेकिन राजनीतिक अर्थव्यवस्था में ऐसे भी लोग हैं जो चाहते हैं कि नीतियां पुनर्वितरण के न्याय के हिसाब से बनाई जाएं। सहजता और निष्पक्षता विपरीत दिशा में चलती हैं। सरल शब्दों में कहें तो हर नीति के दो घटक होते हैं, एक अर्थशास्त्र के नियमों पर चलना चाहता है और दूसरा विचारधारा की बात करता है। ज्यादातर समाज समझौते कर लेते हैं।
असली समस्या पर आने से पहले मैं बता दूं कि अच्छे सॉफ्टवेयर और तकनीक की मदद से जटिलता आसानी से दूर की जा सकती है। अगर अनुपालन के झंझट को अच्छी तकनीक के जरिये आसान कर दिया जाए तो श्रीनिवासन को इस बात से कोई दिक्कत नहीं होगी कि बन पर शून्य और क्रीम वाले बन पर 18 फीसदी जीएसटी लग रहा है।
उपभोक्ता के लिए भी कीमत ही मायने रखती है, उसमें शामिल कर नहीं। यह भी एक वजह है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी-भरकम केंद्रीय और राज्य कर लगने के बाद भी उसकी मांग पर कोई असर नहीं पड़ता, जबकि ज्यादा से ज्यादा लोग जानने लगे हैं कि उस पर कितना अधिक कर लग रहा है।
दिलचस्प है कि ज्यादातर देशों ने सरल कर व्यवस्था अपनाई है मगर दुनिया की सबसे गतिशील अर्थव्यवस्था अमेरिका में राष्ट्र, राज्य और जिला स्तर पर कई तरह के आय एवं उत्पाद कर लगते है। वहां अनुपालन की व्यवस्था भी इतनी सख्त है कि भारत की जीएसटी व्यवस्था तो उसके सामने खेल लगती है।
जब जीएसटी परिषद में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सत्ता वाले राज्यों का प्रतिनिधित्व होगा तो दरों में इजाफा होना लाजिमी है। एक दलील यह भी है कि अगर गड़बड़ ही नहीं है तो ठीक क्यों करना? फिलहाल जीएसटी से राजस्व में अच्छी वृद्धि हो रही है और आर्थिक रूप से यह अधिक कारगर भी है (उदाहरण के लिए चुंगी और दूसरी बाधाएं हटने से राज्यों के बीच वस्तुओं की आवाजाही तेज हो गई है)।
अधिकतर कारोबारों ने जीएसटी के साथ तालमेल बिठा ही लिया है। अचानक कोई बड़ा बदलाव करने की कोशिश छोटे समय के लिए हो तो भी व्यवस्था को बिगाड़ देगी। जो भी करना है, उसे बहुत सोच-समझकर सावधानी के साथ करना होगा। दरें कम करने और रियायतें तथा छूट घटाने की कोशिश में राजस्व वृद्धि से भी अधिक बाधाएं उत्पन्न हो गईं तो क्या होगा?
दरों को सरल और किफायती बनाने की ही कोशिश नहीं होनी चाहिए। यही करना है तो हम आयकर की भी एक ही दर रखने तथा रियायतें खत्म करने की मांग कर सकते हैं। हालांकि नई आयकर व्यवस्था में सहजता की दिशा में पहल की गई है।
अगर हम आयकर में प्रगतिशील दरें चाहते हैं मगर अप्रत्यक्ष कर में केवल एक दर वाली प्रतिगामी व्यवस्था चाहिए तो हम क्या हासिल करना चाहते हैं? हमें ऐसी व्यवस्था के लिए काम करना होगा, जो हमारे मिजाज के हिसाब से सही हो, किसी विचारधारा या सिद्धांत के हिसाब से नहीं। प्रगतिशील लेकिन अधिक सरल जीएसटी दर से अच्छा राजस्व मिलता है तो बेहतर राजस्व देती है तो वही सही। उसे केवल इसलिए नहीं त्याग देना चाहिए क्योंकि सिद्धांत कहता है कि एकल जीएसटी दर ही बेहतर है।
प्रगतिशील जीएसटी इकलौता ऐसा कर है, जो खर्च पर लगने वाले कर के करीब है। यही वह कर है, जो तमाम मुफ्त सौगातें पाने वाले अमीर किसान सरकार को देते हैं।
हमें जीएसटी में सधे तरीके से सुधार करना चाहिए। एक समय में एक उत्पाद समूह पर काम करना चाहिए और जीएसटी की प्रगतिशील दर के बारे में केवल इसीलिए चिंता नहीं करनी चाहिए कि सिद्धांत के मुताबिक उसे अधिक कारगर होना चाहिए। अगर लोग विलासिता की वस्तुओं पर अधिक कर चुकाना चाहते हैं तो क्यों न चुकाने दिया जाए? इतनी अधिक असमानता वाले भारत में विलासिता की वस्तुओं को सस्ता बनाकर क्या हासिल होगा? कराधान के लिए बुनियादी विचार यह होना चाहिए कि क्या कारगर है, यह नहीं कि सैद्धांतिक तौर पर क्या सबसे अच्छा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)