वर्ष 2024 को ऐसे साल के रूप में याद किया जाएगा, जिसमें दुनिया कई मायनों में बदल गई। ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा, जब दुनिया का कोई न कोई हिस्सा मौसम की अति का शिकार नहीं हुआ। इन विकट परिस्थितियों में गर्मी और ठंड के नए रिकॉर्ड बने और कुछ दिन के भीतर फिर टूट गए। पहले ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे समुदायों के लिए बार-बार आने वाली ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से उबर पाना लगभग असंभव हो जाता है। वैज्ञानिक इसे ‘एंथ्रोपोसीन युग’ कहते हैं। ‘एंथ्रोपोसीन युग’ भूविज्ञान के शब्दों में वह समय है, जब मानवीय गतिविधियों का जलवायु और पारिस्थितिकी-तंत्र पर गंभीर असर पड़ता है। हमने मानवीय प्रगति (अच्छे रहन-सहन एवं धन सृजन के लिए) के लिए जो उपाय किए हैं उनके प्रभाव सभी देशों और दुनिया की सीमा से परे दिखने लगे हैं।
यह अभूतपूर्व परिवर्तनों का दौर भी है – मनुष्यों के एक दूसरे के प्रति आचरण में बदलाव का, सही और गलत के वैश्विक नजरिये में बदलाव का और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) तकनीक की ताकत में बदलाव का। अगले कुछ साल में दुनिया की दशा और दिशा एआई की ताकत से ही तय होगी।
हमने सार्वजनिक विमर्श का तरीका भी बदल दिया है। अब हम जो महसूस करते हैं, उसे कहने में बिल्कुल भी नहीं हिचकते भले ही वे अप्रिय, घृणा फैलाने वाली या विनाशकारी ही क्यों न हों। हम इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की रक्षा का माध्यम समझने लगे हैं। मगर ऐसा करते-करते हम पूरी तरह नए युग की तकनीक पर आश्रित हो गए हैं। आज की बड़ी तकनीकी कंपनियों का लगभग सभी चीजों पर नियंत्रण हो गया है। इन कंपनियों का बढ़ता प्रभाव देशों की सीमाएं लांघकर दुनिया में सभी लोगों को अपनी जद में ले चुका है। इन कंपनियों ने अतीत की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बौना बना दिया है। तनिक विचार करें कि जिस तरह हम समाचार सुनते, देखते या पढ़ते हैं, जिस तरह हम खरीदारी करते हैं और जहां भी रहते हैं वहां हमारे जीवन का हरेक पहलू किस तरह इन कारोबारों का हिस्सा बन चुका है।
अब इन भारी भरकम तकनीकी कंपनियों के मालिक न केवल तकनीक एवं मीडिया को मनमाने ढंग से बदल रहे हैं बल्कि राजनीति की दिशा भी तय करने लगे हैं। वे अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं और सरकारों के कमजोर होते ही वे और मजबूत हो जाते हैं। ज्यादातर सरकारें इस भ्रम में हैं कि वे ही नीतियां तय कर रही हैं और उनकी नीतियां लोकहित में हैं। सच्चाई यह है कि सरकारों ने अपना यह उत्तरदायित्व बड़ी कंपनियों, निवेश बैंकों और निजी कारोबारों को दे रखा है। सार्वजनिक गतिविधियों की गुंजाइश कम होती जा रही है और निजी इकाइयों का दबदबा बढ़ता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र खत्म हो चुका है मगर यह जरूर है कि कारोबारों और उपभोक्ता वर्गों (आप और हम) की सांठगांठ के कारण यह बुनियादी तौर पर बदल चुका है।
अब दुनिया अधिक असुरक्षित एवं बेचैन हो रही है क्योंकि हरेक संकट आने वाले दूसरे संकट की जमीन तैयार कर रहा है। हम तेजी से असमानता की शिकार हो रही ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहां अमीर-गरीब की खाई बढ़ती जा रही है। इसके कारण और खराब व्यवस्था, जलवायु परिवर्तन के खतरों तथा संसाधनों की कमी के कारण लोगों का पलायन तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि वे परेशान हैं और नए अवसर तलाशने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। इन सबके कारण लोगों में क्रोध और असुरक्षा की भावना भड़क रही है, जिससे नए कारोबारियों एवं महाशक्तियों के नियंत्रण वाली तकनीक के इस युग में लोकतंत्र तेजी से घृणा एवं ध्रुवीकरण का शिकार हो रहा है। यह गुस्सा गरीबों तक सीमित नहीं है। अमीर भी ठगा महसूस कर रहे हैं या कम से कम आज के हालात को इसी रूप में देख रहे हैं।
1990 के दशक में जब दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को एक दूसरे से जोड़ने की पहल हो रही थी तब सबसे अधिक डर गरीबों को सता रहा था। उन्हें लग रहा था कि उनका रोजगार छिन जाएगा। अब स्थिति उलटी हो गई है। पहले से अधिक संपन्न दुनिया में अब काम करने वाला तबका ही नई अर्थव्यवस्थाओं के लाभ से वंचित रह गया है। वे उनके खिलाफ खड़े हो रहे हैं, जिन्हें वे ‘शिक्षित अभिजात्य वर्ग और विशेषज्ञ’ कहते हैं और उनके हिसाब से जिन्हें सेवा और वित्तीय अर्थव्यवस्था के उदय का फायदा मिला है। इस वर्ग संघर्ष का सबसे खतरनाक परिणाम विचारों का तिरस्कार है। लोग ज्ञान को दोषयुक्त, पूर्वग्रह से भरा और निजी हितों को बढ़ावा देने का जरिया समझ रहे हैं। हमने दुनिया में सूचना और कारोबारी तंत्र का ताना-बाना जिस तरह खड़ा किया है यह सोच उसी का नतीजा है। हालत यह हो गई है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों जैसा जो कुछ जनहित में है, उसे भी संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है।
डॉनल्ड ट्रंप के दोबारा आने के बाद तो लोक कल्याण के विषय का भी मजाक उड़ाया जा रहा है। यह ऐसी स्थिति है जहां अर्थव्यवस्था, जलवायु परिवर्तन और राजनीति एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हैं। जब दुनिया एक दूसरे से जुड़ी अर्थव्यवस्थाओं का ढांचा तैयार करने चली तो माना गया कि इससे संपन्न एवं सुरक्षित वैश्विक व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त होगा। उम्मीद यह थी कि नई व्यवस्था में कोई देश दूसरे देश पर आक्रमण नहीं करेगा क्योंकि एक-दूसरे के साथ सहयोग उनके ही हित में होगा। मगर उद्योग दूसरे देशों में स्थानांतरित करने का असल कारण उद्देश्य श्रम और पर्यावरण सुरक्षा पर आ रही लागत कम करना था। ये लागत चुकाने पर विनिर्माण करना काफी महंगा साबित होता। इसका मतलब था कि उत्पादन जहां गया कार्बन उत्सर्जन भी वहीं पहुंच गया।
कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन से जुड़े आंकड़ों के आधार पर हम कह सकते हैं कि चीन दुनिया में विनिर्माण का प्रमुख केंद्र बन गया है और दूसरे देश भी इसके साथ जुड़ने लगे हैं। दुनिया ऐसे पड़ाव पर खड़ी है जहां प्रदूषण रहित ऊर्जा तंत्र बढ़ाने की जरूरत महसूस हो रही है मगर नई वास्तविकताएं भी सामने खड़ी हैं। ‘दूसरी’ दुनिया खासकर चीन में पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुंचाए बिना उत्पादन करना अब भी सस्ता है। ट्रंप ने उद्योग-धंधे अमेरिका में वापस लाने के लिए व्यापार युद्ध शुरू करने की धमकी दे दी है। मगर इससे वित्त एवं पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े खर्च बढ़ जाएंगे क्योंकि दुनिया आपस में इस कदर जुड़ी और परस्पर निर्भर है कि देश आसानी से अलग नहीं हो सकते। व्यापार युद्ध कार्बन उत्सर्जन घटाने की मुहिम को भी नुकसान पहुंचाएगा क्योंकि यह सोच गहरा रही है कि पर्यावरण के अनुकूल वस्तु विदेश में बनी है तो उसे नकार देना चाहिए।
जलवायु परिवर्तन के खतरे के बीच दुनिया एक अलग यथार्थ में पहुंच चुकी है। इसे ध्यान में रखते हुए हमें एक अलग भविष्य के लिए योजना तैयार करनी चाहिए। हम अतीत को पकड़क नहीं बैठ सकते। अपने युग की गलतियों को ध्यान में रखते हुए हमें नए सवेरे का पुरोधा और नए निश्चय का प्रतीक बनना होगा। ऐसा नहीं किया तो आने वाले दशकों में दुनिया बिखर जाएगी और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याओं की आग में झुलस जाएगी। हमें हालात बदलने ही होंगे।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वॉयरन्मेंट से जुड़ी हैं)