नरेंद्र मोदी सरकार एक नई दिशा में कदम बढ़ाते हुए देश की आर्थिक वृद्धि में तेजी लाने का प्रयास कर रही है। इस बार सरकार का प्रयास अधिक कारगर साबित हो सकता है। सरकार ने अब एक नया तरीका अपनाया है और वह आर्थिक वृद्धि की कमान सीधे अपने हाथ में रखने के बजाय इसमें एक मददगार की भूमिका में आ गई है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार अपनी इस नई भूमिका में पूरी तरह सफल होगी मगर कारोबार बढऩे के लिए उसने जो प्रोत्साहन शुरू किए हैं वे जरूर उत्साह जगाने वाले हैं। एक सक्षम एवं मजबूत कारोबारी जगत रोजगार एवं संपन्नता ला सकता है और मोदी सरकार कारोबार को समर्थन एवं बढ़ावा देने की भूमिका में बनी रहती है तो ऊंची आर्थिक वृद्धि दर की उम्मीद की जा सकती है। जब नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बने थे तो कई लोगों को लगा था कि पिछले 10 वर्षों से कांग्रेस शासन काल में पनपा भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। लोगों को यह भी उम्मीद थी कि सुधार और नीतिगत मोर्चे पर धुंध छंटेगी और लालफीताशाही एवं मनमानी कर प्रणाली पर भी अंकुश लगेगा। देश के सामने पर्याप्प्त संख्या में रोजगार सृजित करना सबसे बड़ी चुनौती थी और यह अपेक्षा रखी गई कि सरकार इसमें हरसंभव मदद करेगी। मोदी ने भी चुनाव से पहले ‘न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप’ एवं ‘अधिकतम सरकारी समर्थन’ जैसी बातें कही थीं।
हालांकि आश्चर्य तब हुआ जब मोदी सरकार ने कारोबार जगत को स्वतंत्रता देने के बजाय सारे निर्णय अपने हाथों में ले लिए। मोदी सरकार ने कांग्रेस सरकार में शुरू हुई योजनाओं का नाम बदला, उनका दायरा बढ़ाया और लोगों के सामने नई योजनाओं-स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, क्लीन इंडिया- की झड़ी लगा दी। सरकार ने रोजगार सृजन को बढ़ावा देने के लिए कुछ खास नहीं किया। कांग्रेस की तर्ज पर उन्होंने ‘मुद्रा योजना’ नाम से ऋण मेला शुरू किया। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी के कड़े रुख का प्रदर्शन करने के लिए नोटबंदी की घोषणा हुई मगर इससे कारोबार को तगड़ा नुकसान पहुंचा। आनन-फानन में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के क्रियान्वयन से भी उतना ही नुकसान हुआ। कम से कम पांच वर्षों तक कारोबार की राह में बाधाएं बरकरार रहीं और कारोबार एवं उद्योग में सरकार का दखल बढ़ता ही गया।
पिछली सरकार की तरह ही मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में आर्थिक नतीजे अलग नहीं रहे। सितंबर 2019 तिमाही में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर फिसल कर 4.5 प्रतिशत रह गई जो 2013 के बाद सबसे निचले स्तर पर थी। सरकार आंकड़े 2 प्रतिशत अंक मजबूत दिखाने के लिए नई गणना विधि लेकर आई मगर इससे भी कोई लाभ नहीं हुआ। विनिर्माण क्षेत्र 15 महीनों के निचले स्तर पर पहुंच गया और निर्यात भी फिसलता गया। सरकारी बैंकों पर गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का बोझ बढ़ता गया।
मगर सितंबर 2019 में सरकार ने कर दर में भारी कटौती की घोषणा की और उसने आधार कंपनी कर (कॉर्पोरेट टैक्स) दर 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत और नई विनिर्माण कंपनियों के लिए 25 प्रतिशत से घटाकर 15 प्रतिशत कर दी। उसके बाद देश में कोविड-19 महामारी ने दस्तक दी जिसके बाद अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। लगभग उसी समय कई और कदम उठाए गए और सरकार कारोबार पर नियंत्रण स्थापित करने के बजाय इसे बढ़ावा एवं समर्थन देने वाली भूमिका में आ गई।
उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई): मार्च 2020 में सरकार चीन से आयात पर अंकुश लगाने के लिए पीएलआई योजना लेकर आई। तब से यह योजना 13 क्षेत्रों में लागू की गई है और 1.97 लाख करोड़ रुपये मूल्य के प्रोत्साहन दिए गए हैं। अगर सरकार कारोबार जगत की प्रतिक्रियाएं सुनती है और अव्यावहारिक शर्तें हटाकर त्रुटियां दूर करती हैं तो कुछ क्षेत्रों में पीएलआई योजना वाकई फायदेमंद साबित होगी। इससे आयात पर निर्भरता कम होने के साथ ही रोजगार सृजन में भी मदद मिलेगी। मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि सरकार एक माध्यम के रूप में काम कर रही है और कमान अपने हाथों में लेने के बजाय कारोबारों को प्रोत्साहन एवं रास्ता दिखा रही है।
डंपिंग के खिलाफ त्वरित प्रतिक्रिया: एक के बाद एक क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों, खासकर चीन की कंपनियों के सस्ते उत्पादों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने तेजी से कदम उठाए हैं। सबसे पहले सरकार ने इस्पात क्षेत्र में यह पहल की, भले ही उसने एक बड़ी इस्पात कंपनी के राजनीतिक प्रभाव में आकर ऐसा किया। बाद में रसायन, दवा, प्लास्टिक, सोलर ग्लास, एल्युमीनियम उत्पाद और धागा आदि खंडों में सरकार ने डंपिंग से निपटने के लिए प्रभावी कदम उठाए हैं।
निजी क्षेत्र के लिए योजनाएं: अक्षय ऊर्जा नीति के तहत सरकार पेट्रोल में एथनॉल की मात्रा 8 प्रतिशत से बढ़ाकर 2025 तक 20 प्रतिशत तक करना चाहती है। वैसे यह लक्ष्य अति महत्त्वाकांक्षी लग रहा है। चूंकि, एथनॉल गन्ना और अनाज से बनता है इसलिए इस योजना से काफी आकर्षक दाम पर एथनॉल खरीदा जाएगा और इसके कई फायदे भी होंगे। जहां तक चीनी उद्योग की बात है तो इससे इस कारोबार में अनिश्चितता कम होगी और नियमित राजस्व आता रहेगा। किसानों को इसका फायदा यह होगा कि उन्हें चीनी मिलों से नियमित भुगतान मिलेगा जिससे उनका जीवन आसान हो जाएगा। सरकार को भी कच्चे तेल का आयात कम करने के साथ प्रदूषण नियंत्रित करने में भी मदद मिलेगी। एथनॉल मिश्रण कार्यक्रम में क्षतिग्रस्त फसल से भी एथनॉल निकालने का प्रावधान है जिसका एक अलग ही फायदा होगा। जैव-ऊर्जा नीति के तीसरे हिस्से के तहत कृषि कार्यों के बाद बचे अवशेषों से बायोगैस निकालने की योजना है जो फिलहाल परीक्षण के चरण में है। इसके भी कई लाभ होंगे। पीएलआई योजना नई है मगर 2018 से प्रभावी जैव-ईंधन नीति को खासी रफ्तार दी जा रही है।
जैसे मैंने पहले कहा है सरकार की नई नीतियां पूरी तरह कारगर नहीं होगी मगर मगर यह सोचकर संतुष्ट हुआ जा सकता है कि कम से कम दिशा तो बदली है। कारोबारियों का कहना है कि सरकार के साथ बातचीत में बदली सोच का अंदाजा मिल रहा है। प्रधानमंत्री ने पिछले छह वर्षों के दौरान निजी क्षेत्र को निराश जरूर किया है लेकिन अब वह पूरी तरह इसके समर्थन में आ गए हैं। उन्होंने कहा था कि निजी क्षेत्र को कोसने की प्रवृत्ति अब बरदाश्त नहीं की जाएगी। हालांकि हाल में टाटा और इन्फोसिस की सार्वजनिक रूप से आलोचना थोड़ा विरोधाभास जरूर है। उन्होंने कहा था, ‘क्या सरकार के अफसर सभी काम अकेले कर सकते हैं? देश को अधिकारियों को हवाले कर हमने आखिर किस तरह की क्षमता हासिल की है? प्रधानमंत्री की इन बातों से दृष्टिकोण में परिवर्तन की झलक साफ मिलती है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि फिलहाल केवल दिशा बदलती दिख रही है। सरकार का निरंकुश चेहरा हर जगह मौजूद है जो आर्थिक क्रियाकलापों को नुकसान पहुंचा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार नहीं हो रहा है और सरकारी बैंकों में उत्तरदायित्व का अभाव पहले की तरह ही कायम है। दूरसंचार मामला इसलिए निपट गया क्योंकि दूसरा और कोई विकल्प नहीं था और केयर्न के साथ मामला इसलिए सुलझ गया क्योंकि अंतरराष्ट्रीय पंचाट के निर्णय से सरकार की दुनिया में किरकिरी हो गई थी। उद्यमशीलता को वाजिब एवं आवश्यक स्वतंत्रता के साथ तरह कार्य करने की अनुमति देने में अभी वक्त लगेगा मगर इतना तो दिख रहा है कि सरकार का दृष्टिकोण बदला है।
(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं। )
