चालू और अगले वित्त वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की अनुमानित उच्च वृद्धि दर ने शायद केंद्र सरकार के मंत्रियों और सरकारी अर्थशास्त्रियों को उत्साहित कर दिया है और वे मध्यम अवधि में स्थायी रूप से ऊंची वृद्धि दर का अनुमान जताने लगे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का अनुमान है कि भारतीय अर्थव्यवस्था चालू वर्ष में 9.5 फीसदी की दर से और अगले वर्ष 8.5 फीसदी की दर से बढ़ेगी। ये अनुमान ज्यादातर अर्थशास्त्रियों की आशाओं के अनुरूप ही हैं, लेकिन इन्हें मध्यम अवधि के रुझान के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। चालू वित्त वर्ष में तेजी वृद्धि गत वर्ष के कम आधार के कारण भी हो सकती है। विशुद्ध रूप से देखा जाए तो वर्ष 2021-22 में वास्तविक जीडीपी 2019-20 से मामूली बेहतर रहेगी। अगले वित्त वर्ष की वृद्धि दर भी चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही के कम आधार से प्रभावित रहेगी क्योंकि उस अवधि में भी कोविड-19 की दूसरी लहर के कारण आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हुई थीं।
सात फीसदी से अधिक की स्थायी वृद्धि के अनुमान या देश को 2024-25 तक पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की बात पर दोबारा सोचना होगा। भारत को इन लक्ष्यों की आकांक्षा अवश्य करनी चाहिए। बहरहाल, ऐसे लक्ष्य तभी हासिल किए जा सकते हैं जबकि मौजूदा हालात का सही आकलन हो और वृद्धि को गति देने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में अंतिम निजी खपत 2017-18 के स्तर के करीब थी। साफ कहा जाए तो आने वाली तिमाहियों में इसमें सुधार होगा लेकिन मध्यम अवधि में यह वृद्धि का महत्त्वपूर्ण वाहक नहीं बन सकती। हालांकि उच्च आय वर्ग की खपत में सुधार हो रहा है लेकिन कम आय वाले समूहों में यह कमजोर बनी रह सकती है क्योंकि उन्हें अपना बही खाता दुरुस्त करने में समय लगेगा। कम आय वर्ग के लोगों को ज्यादा नुकसान पहुंचा है क्योंकि महामारी ने असंगठित क्षेत्र पर ज्यादा असर डाला है।
आय के नुकसान, उपभोक्ताओं के आत्मविश्वास पर असर और खपत पर इसके प्रभाव ने औद्योगिक गतिविधियों को भी प्रभावित किया है। मौद्रिक नीति समिति के आंतरिक सदस्य के रूप में मृदुल सागर ने पिछली नीतिगत बैठक में कहा था कि 60 फीसदी उद्योग 2018-19 के स्तर से नीचे काम कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि व्यवस्था में कितनी क्षमता बेकार पड़ी है। इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में विनिर्माण क्षेत्र कुल क्षमता के 60 फीसदी पर काम कर रहा था। निजी निवेश में सुधार वृद्धि का बड़ा वाहक हो सकता है लेकिन उसमें अभी समय लग सकता है। कर्ज का बढ़ा हुआ स्तर और घाटा, सरकारी व्यय भी मध्यम अवधि में सीमित रह सकते हैं। निर्यात का प्रदर्शन बेहतर है लेकिन देश की आंतरिक केंद्रित व्यापार नीति और वैश्विक वृद्धि में संभावित धीमेपन को देखते हुए इसके स्थायित्व के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।
आईएमएफ के अनुसार मध्यम अवधि में भारत की संभावित वृद्धि 6 फीसदी के आसपास रह सकती है। इन हालात में यह तार्किक भी लगता है। बहरहाल, भारत को मध्यम अवधि में संभावित वृद्धि को गति प्रदान करने का पूरा प्रयास करना चाहिए। इस संदर्भ में वृहद आर्थिक आकलन को नियमित बनाने के लिए संस्थागत व्यवस्था और नीतिगत अनुशंसाएं होनी चाहिए। वित्त मंत्रालय मध्यम अवधि का आकलन करता है लेकिन वे मोटे तौर पर राजकोषीय प्रबंधन के उद्देेश्य से होते हैं। इन परिस्थितियों में नीति आयोग से कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था का मध्यम अवधि का आकलन नियमित रूप से पेश करे। इससे आम समझ तो बेहतर होगी ही, साथ ही सरकार भी देश की संभावित वृद्धि में सुधार लाने के लिए समय पर और सुसंगत हस्तक्षेप कर सकेगी।