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चार फीसदी घाटे के साथ व्यापार समझौतों पर ध्यान

बजट में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4 फीसदी पर रोकने, आयात शुल्क घटाने के प्रयास हों। एक प्रमुख एशियाई मुक्त व्यापार समझौते पर भारत का इरादा जाहिर किया जाए।

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शंकर आचार्य   
Last Updated- January 17, 2025 | 9:53 PM IST

नया वर्ष शुरू हो गया है और कुछ ही दिन में केंद्र सरकार का बजट भी आने वाला है। 2025-26 का बजट गजब के अनिश्चित वैश्विक माहौल में तैयार किया जा रहा है। डॉनल्ड ट्रंप जल्द ही अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर शपथ लेंगे। अमेरिका दुनिया की इकलौती महाशक्ति हैं, जिसकी वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 25 फीसदी हिस्सेदारी है। ट्रंप चीन ही नहीं कनाडा, मेक्सिको और भारत जैसे मित्र राष्ट्रों के खिलाफ भी शुल्क बढ़ाने और अपने उद्योगों के संरक्षण के कदम उठाने की घोषणा कर चुके हैं।

अमेरिका की विदेशी आर्थिक नीतियां आने वाले समय में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ), अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र तथा उसकी एजेंसियों जैसे बहुपक्षीय संस्थानों की भूमिका को और भी कम कर देंगी। इसके बजाय अमेरिका की विदेश नीति में लेनदेन वाली द्विपक्षीयता पर जोर दिया जाएगा। वैश्विक स्तर पर अनुमान लगाने वालों के मुताबिक वैश्विक आर्थिक वृद्धि में गिरावट आएगी। व्यापार प्रतिबंधों में इजाफा और अंतरराष्ट्रीय संघर्षों में तेजी की आशंका इसकी बड़ी वजह होगी।

भारत में कोविड तथा लॉकडाउन के कारण 2020-21 में वास्तविक जीडीपी 6 फीसदी तक कम हो गया था। परंतु अगले तीन सालों जीडीपी की रफ्तार तेजी से पटरी पर आई और 8 फीसदी से अधिक रही। उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति में भी तेजी आई लेकिन 2023-24 तक वह 6 फीसदी से कम ही रही। भुगतान संतुलन में चालू खाते का घाटा उस वर्ष जीडीपी के एक फीसदी से कम रहा और केंद्र तथा राज्यों का कुल राजकोषीय घाटा जीडीपी के 8.5 फीसदी के करीब रहा। कोविड के बीच वर्ष 2020-21 में यह 13 फीसदी तक चला गया था। बैंकिंग व्यवस्था अच्छी स्थिति में नजर आई और फंसे हुए कर्ज का अनुपात भी घट गया। साथ ही कंपनियों की बैलेंस शीट में मजबूती दिखी और आम तौर पर कमजोर दिखने वाले रोजगार के क्षेत्र में भी कुछ अच्छी खबरें सामने आईं।

मार्च 2024 के बाद के नौ महीनों में तस्वीर काफी बदल चुकी है और भीतर बैठी कुछ कमजोरियां और गहरा गई हैं। जनवरी-मार्च 2024 की तिमाही में जीडीपी उससे एक साल पहले की तुलना में 8 फीसदी बढ़ी थी मगर अप्रैल-जून तिमाही में आंकड़ा 6.7 फीसदी रह गया। जुलाई-सितंबर में तो यह सुस्त होकर 5.4 फीसदी तक लुढ़क गया। मुद्रास्फीति भी ऊपर ही रही और नवंबर 2024 में समाप्त होने वाले तीन महीनों में 6 फीसदी के करीब रही। हालांकि चालू खाते का घाटा जीडीपी के 2 फीसदी से पार शायद ही जा पाएगा मगर निर्यात के मोर्चे पर प्रदर्शन कमजोर बना हुआ है।

शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी 2023-24 तक कम होकर जीडीपी का 0.3 फीसदी हो गया, जो 20 साल में सबसे कम आंकड़ा था। शुद्ध विदेशी पोर्टफोलियो निवेश उठापटक के बीचे घट रहा है और भारतीय रिजर्व बैंक के विदेशी मुद्रा भंडार से भारी मात्रा में डॉलर बिकने के बाद भी रुपया गिरता गया है। सितंबर 2024 में रिजर्व बैंक के पास सबसे ज्यादा 700 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार था, जो दिसंबर तक कम होकर 644 अरब डॉलर रह गया।

कुल राजकोषीय घाटे में उतार-चढ़ाव का सिलसिला केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे में कमीबेशी की वजह से देखने को मिला। उसका राजकोषीय घाटा 2019-20 में जीडीपी का 4.6 फीसदी था मगर कोविड और लॉकडाउन के कारण 2020-21 में बढ़कर 9.2 फीसदी हो गया। 2023-24 में घाटा एक बार फिर कम होकर 5.6 फीसदी रह गया। चालू वित्त वर्ष में यह बजट में रखे गए जीडीपी के 4.9 फीसदी लक्ष्य से कम रह सकता है। केंद्र और राज्यों का कुल राजकोषीय घाटा जीडीपी का 7.5-8 फीसदी रह सकता है, जो 2020-21 से बहुत बेहतर है। मगर 2007-08 के 4 फीसदी के ऐतिहासिक न्यूनतम स्तर से यह फिर भी दोगुना होगा। एशिया के दूसरे विकासशील देशों से भी यह आंकड़ा काफी अधिक है।

अहम सवाल यह है कि गत तीन वर्षों में खजाने को मिली मजबूती 2025 में और भी उथल पुथल भरी वैश्विक अर्थव्यवस्था के दौरान वृहद स्थिरता कायम रखने के लिए काफी होगी? बजट में कोशिश हो कि 2025-26 में राजकोषीय घाटा और भी घटकर जीडीपी का 4 फीसदी ही रह जाए। ऐसा करने से सरकारी ऋण और जीडीपी का अनुपात भी नीचे लाने में मदद मिलेगी, जो मार्च 2024 में बहुत बढ़कर 84 फीसदी पर पहुंच गया था। मामूली कमी भी आई तो उससे सही मंशा का संकेत मिलेगा। इससे पिछले कुछ वर्षों के दौरान कुल सरकारी व्यय में बढ़ती ब्याज की हिस्सेदारी पर भी अंकुश लगेगा। ब्याज चुकाने का खर्च इतना बढ़ गया है कि विकास पर होने वाला कुछ जरूरी खर्च रोकना पड़ा है।

इस सदी के शुरुआती 12 सालों में देश का वस्तु और सेवा निर्यात मजबूती से बढ़ा। 2011 से 2014 के बीच निर्यात जीडीपी का 25 फीसदी तक हो गया, जो 2000 से 2002 के बीच 13 फीसदी ही था। 2011 से 2014 के दौरान वस्तु निर्यात जीडीपी का 17 फीसदी रहा और सेवा निर्यात का आंकड़ा 8 फीसदी रहा, जिसमें आईटी सेवाओं के निर्यात की बड़ी हिस्सेदारी रही। तभी से जीडीपी में सेवा निर्यात की हिस्सेदारी काफी ज्यादा रही है और पिछले दो साल में बढ़कर 9.5 फीसदी से ऊपर चली गई। किंतु वस्तु निर्यात बहुत ढीला रहा और जीडीपी की तुलना में उसका अनुपात कम हुआ है। 2016-17 में यह कम होकर 12 फीसदी के करीब रहा। 2021 से 2023 तक मामूली इजाफा छोड़ दें तो इसका आंकड़ा निराशाजनक ही रहा है। इस कारण 2023-24 में कुल निर्यात की जीडीपी में हिस्सेदारी 22 फीसदी से कम रही, जो एक दशक पहले 25 फीसदी थी।

पिछले एक दशक में वस्तु निर्यात घटने से कई चिंताएं खड़ी हो जाती हैं। सबसे पहले तो यह विदेशी मुद्रा का सबसे बड़ा स्रोत है। दूसरा, यह कम हुनर वाले रोजगार बड़ी तादाद में मुहैया कराता है। तीसरा, कुल मांग में इसकी बड़ी हिस्सेदारी है। चौथा, सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों को इसमें बहुत मौके मिल जाते हैं। पिछले एक दशक में जीडीपी में वस्तुओं की हिस्सेदारी गिरने के कई कारण हैं, जिनमें सबसे बड़ा कारण 2009-10 के बाद से रुपये की कीमत बढ़ना है। वैश्विक मूल्य श्रृंखला के भीतर पैठ बनाने में भारत की कमजोरी और 2015-16 से आयात शुल्क में इजाफा होते रहना भी इसकी वजह रही हैं। हालांकि जुलाई 2024 के बजट में इस शुल्क में कमी की गई थी, जो स्वागत योग्य है।

इन सब बातों को देखते हुए आगामी बजट में आयात शुल्क में और कमी की जानी चाहिए। कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल होने वाली सामग्री पर तो खास तौर पर शुल्क घटाया जाना चाहिए। साथ ही दो बड़े एशियाई क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौतों आरसेप और सीपीटीपीपी में शामिल होने की भारत की मंशा जताने पर गंभीरता से सोचना चाहिए। बजट के परे रिजर्व बैंक को अपने विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर की बिक्री कम करनी चाहिए ताकि वास्तविक प्रभावी विनिमय दर कम होकर वाजिब बन सके। पुरानी कहावत भी है, ‘समय पर लगा एक टांका नौ टांकों से बचाता है।’

(लेखक इक्रियर के मानद प्राध्यापक हैं और भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)

First Published : January 17, 2025 | 9:53 PM IST