किसी कंपनी के निदेशकों और शेयरधारकों के बीच होने वाले विवाद का हश्र अक्सर कंपनी का वजूद खत्म किए जाने के लिए कंपनी लॉ बोर्ड में याचिका दाखिल किए जाने के रूप में सामने आता है।
यह संभव है कि बोर्ड के सदस्यों द्वारा अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया जाए या कंपनी सही तरीके से प्रबंधन करने में नाकाम हो और इस वजह से कंपनी का वजूद खत्म किए जाने संबंधी याचिका दाखिल की गई हो, पर कंपनी लॉ बोर्ड को इस मामले में विशेषाधिकार है कि वह अपने हिसाब से फैसला ले।
यानी बोर्ड कंपनी बंद करने का फैसला देने को मजबूर नहीं है। कंपनी एक्ट की धारा 402 बोर्ड को यह विशेषाधिकार देती है कि वह कंपनी का वजूद खत्म किए जाने की स्थिति से हरसंभव बचे और दूसरे संभावित विकल्पों को खंगाले।
हालांकि यह भी संभव है कि बोर्ड द्वारा सुझाए गए रास्ते से विवाद में शामिल हर पार्टी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो, पर सुप्रीम कोर्ट भी इस बारे में कह चुका है कि बोर्ड की ताकत को लेकर उसके मन में किसी तरह का शक-शुबहा नहीं है और कंपनी के अस्तित्व को बचाए जाने की खातिर बोर्ड हर तरह के विकल्प पर विचार कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने एमएसडीसी राधारमन बनाम एमएसडी चंद्रशेखर के मामले में अपने हालिया फैसले में भी इसी बात पर जोर दिया है। यह मामला 80 वर्षीय पिता और उसके बेटे के बीच के विवाद से संबंधित था। पिता और बेटे मिलकर श्री भारती कॉटन मिल्स और विश्व भारती टेक्सटाइल्स नाम की दो कंपनियों का सामूहिक मालिकाना हक रखते थे। इन दोनों कंपनियों के कुल शेयर पिता-पुत्र के पास थे।
दोनों के बीच विवाद शुरू हुआ और यह विवाद इतना गहरा गया कि इसने कानूनी लड़ाई का रूप अख्तियार कर लिया। यहां तक कि बेटे ने पिता के खिलाफ फंडों में हेरफेर के आरोप में क्रिमिनल केस दर्ज कराए जाने की धमकी दे दी, जो कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर थे।
पिता ने कंपनी लॉ बोर्ड की शरण ली। बोर्ड ने पाया कि कंपनी से संबंधित मामले में जबर्दस्त गतिरोध पैदा हो गया है। समस्या के समाधान के लिए बोर्ड ने बेटे से कहा कि वह चार्टर्ड वैल्यूअर द्वारा तय की गई कीमत पर कंपनी के सभी शेयर खरीद ले। बेटे ने बोर्ड के इस आदेश के खिलाफ मद्रास हाई कोर्ट का रुख किया। पर हाई कोर्ट ने भी बोर्ड के आदेश में कोई खास तब्दीली नहीं की।
हाई कोर्ट ने कहा कि कंपनी एक्ट की धारा 402 के तहत बोर्ड को इस बात का अधिकार है कि वह कंपनी के कुशल संचालन के लिए अपने हिसाब से फैसले दे। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाई कोर्ट के फैसले की तस्दीक की।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जहां भी कंपनी के निदेशकमंडल के सदस्यों द्वारा अधिकारों के गलत इस्तेमाल (धारा 397) का सवाल है या सही तरीके से प्रबंधन नहीं किए जाने (धारा 398) की बात है, वहां कंपनी लॉ बोर्ड इस तरह का आदेश दे सकता है कि कंपनी का कोई खास सदस्य या कोई भी एक सदस्य या फिर खुद कंपनी द्वारा शेयरों की खरीद कर ली जाए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा – ‘बोर्ड का क्षेत्राधिकार काफी व्यापक है।
यदि उसे यह लगे कि कोई आदेश कंपनी के हितों की रक्षा कर सकता है तो वह ऐसा आदेश जारी कर सकता है।’कंपनी एक्ट में 1991 में किए गए संशोधन के बाद कंपनी लॉ बोर्ड को अधिकार सुपुर्द किए जाने से पहले हाई कोर्टों को इस तरह का विशेषाधिकार हासिल था।
1965 में एसपी जैन बनाम कलिंग टयूब्स लिमिटेड के मामले में दिए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था – ‘हमेशा ऐसा किया जाना न तो अच्छा है और न ही जरूरी है कि कंपनी का वजूद ही खत्म कर दिया जाए, खासतौर पर तब जब मामले को दूसरे जरिये से भी सुलझाया जा सकता हो।
यहां तक कि यदि कंपनी को बचाए जाने का कोई भी रास्ता नजर नहीं आ रहा हो, तो भी शेयरधारकों के हितों को देखते हुए हाई कोर्टों द्वारा विकल्पों की तलाश की जानी चाहिए, यदि होई कोर्ट ऐसा सोचते हैं कि उनके द्वारा दिए जाने वाले आदेश से कंपनी का वजूद कायम रह सकता है।’
सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में इस बात पर जोर दिया है कि कंपनी के हित को सर्वोपरि मानकर चला जाना चाहिए। कोर्ट ने इसकी व्याख्या इस तरह की – ‘ऐसे मामलों में कंपनी लॉ बोर्ड (सीएलबी) की भूमिका यह होनी चाहिए कि वह पहले यह देखे कि कंपनी और उसके शेयरधारकों का हित कितना महफूज है।
सीएलबी को यह जानने का प्रयास जरूर करना चाहिए कि उसके द्वारा यदि कंपनी को बंद किए जाने का आदेश दिया जाता है तो यह कंपनी के हित में होगा या अहित में। बोर्ड कंपनी को बंद किए जाने की याचिका खारिज कर सकता है, यदि उसे यह लगे कि मामले को सुलझाने का दूसरा विकल्प मौजूद है।’
मौजूदा चलन के मुताबिक कोर्ट द्वारा इन मामलों में ऐसे फैसले दिए जाते हैं, जिनसे ज्यादा से ज्यादा पक्ष को फायदा हासिल हो सके। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है – ‘ कानून द्वारा मुकदमे में शामिल सभी पक्षों को पूरी तरह संतुष्ट किया जाना मुमकिन नहीं है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं कि बोर्ड कानून द्वारा हासिल क्षेत्राधिकार के इस्तेमाल से ही इनकार कर दे।
यहां तक कि संसद भी जब कोई कानून बनाती है, तो वह भी उन तमाम हालात का ख्याल नहीं रखती, जो उस कानून के असर के रूप में सामने आ सकते हैं। दिल्ली हाई कोर्ट ने पियर्सन एजुकेशन इंक. बनाम प्रेंटिस हॉल इंडिया (2006) के मामले में दिए गए अपने आदेश में यहां तक कहा कि कंपनी लॉ बोर्ड को यह विशेषाधिकार है कि वह कंपनी के आर्टिकल ऑफ असोसिएशन के प्रावधानों के खिलाफ भी दिशानिर्देश जारी करे।