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रोजगार और देखभाल: आबादी के संकट को टालने के क्या हों उपाय?

एक नई और व्यवस्थित कार्यप्रणाली की जरूरत है, जो बड़े पैमाने पर पेचीदा समस्याओं का हल करने के लिए समुदाय-आधारित उद्यमों पर भरोसा करे, कारखानों वाले उद्यमों पर नहीं।

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अरुण मायरा   
Last Updated- July 11, 2025 | 11:06 PM IST

विश्व बैंक के अध्यक्ष अजय बंगा कहते हैं, ‘गरीबी के ताबूत में कील ठोकनी है तो किसी व्यक्ति को रोजगार दे दो।’ वह आबादी को टाइम बम बताते हुए कहते हैं कि अगले 12-15 साल में उभरते बाजारों में करीब 1.2 अरब लोग (उनमें सबसे ज्यादा भारत में) रोजगार तलाश रहे होंगे मगर नौकरियां मुश्किल से 40 करोड़ होंगी। इसी महीने उन्होंने यूएस काउंसिल ऑन फॉरन रिलेशंस से चेतावनी के लहजे में कहा, ’80 करोड़ नौकरियों की कमी आबादी से होने वाला फायदा नहीं है। अगर आपको अवैध आव्रजन और सैन्य तख्तापलट की फिक्र हो रही है तो देखते रहिए क्या होता है।’

दुनिया भर में आबादी का ढांचा बदल गया है। न केवल युवा नौकरी तलाश रहे हैं बल्कि बुजुर्गों को भी देखभाल की जरूरत है। लोग लंबी जिंदगी जी रहे हैं और रिटायरमेंट के बाद ज्यादा साल तक जी रहे हैं। चीन में 1950 में लोग औसतन 42 साल जीते थे, जो 2024 में बढ़कर 78 साल हो गए। भारत में यह उम्र 1950 में 37 साल थी, जो 2024 में 70.6 साल हो गई। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) में महिला और पुरुष रिटायर होने की उम्र के बाद 1970 में जितना जीते थे, 2020 में उससे आठ साल ज्यादा जी रहे हैं।

जब बुजुर्ग अपनी कामकाजी उम्र पार कर जाते हैं तो उन्हें अर्थव्यवस्थाओं पर बोझ माना जाता है। सरकारें कमाई कर रहे युवाओं पर कर लगाए बगैर पर्याप्त पेंशन तथा चिकित्सा देखभाल मुहैया नहीं करा सकती। ऐसे में युवाओं को ही भविष्य की अपनी जरूरतों के लिए बचत भी करनी पड़ रही है। नौकरियां कम होने के कारण कई सरकारों के पास बुजुर्ग नागरिकों की देखभाल करने के संसाधन ही नहीं बचे हैं।

फ्रांस में 2023 में जब सरकार ने रिटायर होने की उम्र 62 साल से बढ़ाकर 64 साल करने की कोशिश की तो दंगे भड़क गए। चीन में भी हाल ही में सरकार ने 1950 के बाद पहली बार महिला कर्मियों के लिए रिटायरमेंट की उम्र 50 साल से बढ़ाकर 55 साल करने और पुरुष कर्मियों के लिए 60 साल से बढ़ाकर 63 साल करने का प्रस्ताव रखा तो विरोध होने लगे। चीन के सोशल मीडिया पर एक पोस्ट तेजी से फैलने लगा, जिसमें लिखा था, ‘पूंजीवादी शोषण आम आदमी तक पहुंच गया है। वाह!’

अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन और वहां के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के आर्थिक नजरिये में आबादी की इस समस्या का कोई इलाज नहीं है। रीगन ने कहा था, ‘सरकार समाधान नहीं है, समस्या है।’ उनके हिसाब से सरकार और बजट को छोटा किया जाए। स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक बुनियादी ढांचे समेत सब कुछ निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया जाए। अगले 20 साल में युवाओं के बहुत बड़े जत्थे को रोजगार की जरूरत होगी और बुजुर्गों की बड़ी तादाद देखभाल मांगेगी।

नीति आयोग की रिपोर्ट ‘रिफॉर्मिंग दि सीनियर केयर पैराडाइम’ में अनुमान है कि भारत का बूढ़ा होता समाज निजी क्षेत्र के लिए बुजुर्गों की देखभाल का 7 अरब डॉलर का बाजार तैयार कर रहा है। लेकिन निजी क्षेत्र इसका हल नहीं हो सकता। वह ज्यादा कारगर तो हो सकता है मगर उसे शेयर बाजार जैसी समता के लिए बनाया गया है सामाजिक समता के लिए नहीं। कारोबारी संस्थाएं उनकी सेहत का ध्यान रखने के लिए नहीं बनी हैं, जो दाम नहीं चुका सकते। उनके ग्राहकों को अपनी जेब से या बीमा के जरिये दाम चुकाना होगा। जो बीमा का प्रीमियम नहीं दे सकते, उन्हें स्वास्थ्य सेवा से बाहर कर दिया जाता है। अमेरिका का निजी स्वास्थ्य उद्योग दुनिया में सबसे महंगा है और वहां नतीजे जन स्वास्थ्य सेवाओं वाले देशों से बदतर हैं।

अर्थव्यवस्था में उसी काम की कीमत समझी जाती है, जिससे पैसा आता है। घर पर अपने बच्चे संभाल रही महिला को आर्थिक रूप से उत्पादक या कामकाजी नहीं माना जाता। जैसे ही वह बच्चे छोड़कर किसी कारखाने में काम करने लगती है, वह उत्पादक कामगार बन जाती है। अर्थव्यवस्था में लेनदेन मुद्रा से ही होता है। मगर परिवार या समुदायों में मुद्रा इस तरह काम नहीं करती। लोग एक-दूसरे की देखभाल इसलिए करते हैं क्योंकि वे करना चाहते हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें रकम मिलती है। किसी मनुष्य की कीमत मौद्रिक कसौटी पर नहीं आंकी जानी चाहिए।

बुजुर्ग समाज पर बोझ नहीं हैं, जैसा आर्थिक चश्मा दिखाता होगा। वे समाज की संपत्ति हैं, जिनकी आधुनिक समाज में दुखद रूप से अनदेखी की जाती है। इसलिए समय आ गया है कि हम ‘ख्याल रखने वाले समाज’ की और उसके लिए जरूरी उपक्रमों की नए सिरे से कल्पना करें। अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ाने के लिए समाज की गुणवत्ता को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए बल्कि अर्थव्यवस्था में ऐसे बदलाव करने चाहिए, जिनसे समाज की गुणवत्ता बढ़े।

हमें ‘उद्योग-आधारित’ समाधानों के बजाय ‘समुदाय-आधारित’ समाधान चाहिए। औद्योगिक अर्थव्यवस्थाएं आर्थिक रूप से कारगर उपक्रमों की क्षमता और वृद्धि के लिए बनाई जाती हैं। परिवार और समुदाय जैसी पारंपरिक सामाजिक संस्थाओं को अर्थशास्त्री ‘अनौपचारिक’ संस्था मानते हैं और उन्हें खत्म किया जा रहा है ताकि कामगारों को ‘औपचारिक’ संस्थाओं की ‘नौकरियों’ में लगाया जा सके। ये औपचारिक संगठन ज्यादा से ज्यादा कारगर उत्पादन के लिए गढ़े गए हैं, जहां कामगारों को बदले में धन दिया जाता है। अर्थव्यवस्था के औपचारिक जामा पहनने के साथ ही सामाजिक मूल्यों की जगह आर्थिक मूल्यों ने ले ली है।

अलग-अलग खेमों में बैठे विशेषज्ञों के ऊपर से थोपे गए समाधान वैश्विक पर्यावरण और समाज की जटिल समस्याएं हल करने में एकदम विफल रहे हैं। अब एक नई और व्यवस्थित कार्यप्रणाली की जरूरत है, जो बड़े पैमाने पर पेचीदा समस्याओं का हल करने के लिए समुदाय आधारित उद्यमों पर भरोसा करे कारखानों वाले उद्यमों पर नहीं। इस कार्यप्रणाली में लोगों के लिए लोगों द्वारा और लोगों के ही स्थानीय, समुदाय वाले समाधान होने चाहिए।


(लेखक की पुस्तक ‘रीइमेजिनिंग इंडियाज इकॉनमी: द रोड टु अ मोर इक्विटेबल सोसाइटी’ इसी वर्ष जून में स्पीकिंग टाइगर बुक्स ने प्रकाशित की है)

First Published : July 11, 2025 | 11:06 PM IST