राज्यों में मुख्यमंत्रियों के आने-जाने के बीच राजनीतिक विमर्श काफी हद तक अर्थशास्त्र से मुक्त है। अमरिंदर सिंह को ही लीजिए जिन्होंने अपमानित किए जाने की शिकायत करते हुए पंजाब के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। लेकिन अगर यह सवाल पूछा जाए कि क्या अमरिंदर सिंह ने आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की मुहिम का नेतृत्व करने का अधिकार हासिल कर लिया था तो इसका जवाब जानने के लिए उनकी सरकार के प्रदर्शन पर गौर करना होगा। प्रति व्यक्तिराज्य घरेलू उत्पाद के मामले में पंजाब के औसत निवासी की राज्य आउटपुट में हिस्सेदारी चार वर्षों में सिर्फ 3.8 फीसदी ही बढ़ी है। इस तरह सालाना वृद्धि एक फीसदी से भी कम रही है।
सच कहें तो इन आंकड़ों पर महामारी का असर भी रहा है और पूरे भारत का प्रदर्शन इस मामले में बेहतर नहीं रहा है। लेकिन यह भी सच है कि कुछ राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया है। ममता बनर्जी की अगुआई वाले पश्चिम बंगाल ने अप्रैल 2017-मार्च 2021 की अवधि में 19.1 फीसदी की वृद्धि दर्ज की है। इसकी तुलना उत्तर प्रदेश से करते हैं जिसके मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगभग हर दिन अपनी सरकार की अभूतपूर्व उपलब्धियों का बखान करने वाले विज्ञापन समाचारपत्रों में दे रहे हैं और प्रधानमंत्री ने भी उनके राज्य को ‘उत्तम प्रदेश’ बता दिया है। फिर भी योगी सरकार के चार वर्षों में प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद सिर्फ 0.4 फीसदी ही बढ़ा है। शायद शौचालयों एवं एक्सप्रेसवे के निर्माण के मामले में तस्वीर थोड़ी अलग है।
विडंबना यह है कि उत्तर प्रदेश का आर्थिक आउटपुट अवरुद्ध होने के बावजूद यह उम्मीद जताई जा रही है कि योगी अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में जीतकर दोबारा सरकार बना लेंगे। इसी तरह पंजाब में भी कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहने की बात कही जा रही थी। ऐसा सिखों के पवित्र ग्रंथ के अपमान मामले में कोई ठोस प्रगति न होने के बावजूद था। अमरिंदर सिंह के कार्यकाल में राज्य में बिजली की भारी किल्लत होने से कई उद्योग बंद हो गए। कांग्रेस की हाराकिरी के पहले ये सारी चुनौतियां उस समय अचानक दूर हो गई थीं जब भाजपा और अकाली दल कृषि सुधार कानूनों के मुद्दे पर अलग हो गए।
सवाल उठता है कि क्या कमतर प्रदर्शन से कोई फर्क पड़ता है? अगर आप चुनावी नतीजों से इतर और देश के अन्य हिस्सों के घटनाक्रम को देखें तो यह मायने रखता है। पांच बड़े दक्षिणी राज्यों के बीच तेलंगाना का प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद चार वर्षों में 26.2 फीसदी की दर से बढ़ा है और तमिलनाडु ने भी 22.2 फीसदी की जोरदार बढ़त हासिल की है। दक्षिण भारत के तीन अन्य राज्यों में भी यह आंकड़ा औसतन 15 फीसदी की दर से बढ़ा है। पश्चिम भारत के दो बड़े राज्यों- महाराष्ट्र एवं गुजरात में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं जिनकी तीन साल में वृद्धि क्रमश: 14.1 फीसदी और 26.7 फीसदी रही। महाराष्ट्र और गुजरात के अलावा केरल के पास भी मार्च 2020 तक के ही आंकड़े हैं और 2019-20 के आंकड़े आने के बाद इस संख्या में गिरावट आनी लगभग तय है।
निर्धनतम पूर्वी राज्यों का प्रदर्शन भी अच्छा रहा है। पश्चिम बंगाल (19.1 फीसदी) के अलावा बिहार ने 21.8 फीसदी और ओडिशा ने 16.7 फीसदी की प्रभावी वृद्धि दर्ज की है। देश का हृदयस्थल कहे जाने वाले राज्यों का प्रदर्शन फीका रहा है। मसलन, राजस्थान का चार वर्षों में प्रति व्यक्ति राज्य घरेलू उत्पाद कुल 1.3 फीसदी ही बढ़ा है। इलाके के अन्य राज्य भी 10 फीसदी के आसपास रहे हैं।
इससे कोई खास निष्कर्ष निकालना मुश्किल है। लेकिन दूसरी जगहों की तुलना में भारत में चुनावी नतीजे और ‘वॉलेट अर्थशास्त्र’ के बीच तालमेल कम ही दिखता है। बेहतर प्रदर्शन करने वाली पार्टी को तमिलनाडु ने सत्ता से बेदखल कर दिया तो केरल में अपेक्षाकृत कमतर प्रदर्शन करने वाले वाममोर्चे की फिर से सरकार बन गई। अब देशव्यापी चुनावों पर नजर डालते हैं। भारत में इतनी ‘शाइनिंग’ नहीं थी कि वर्ष 2004 में भाजपा की सत्ता में वापसी हो सके। उसके बाद गरीबी कम करने में लगातार मिली कामयाबी ने कांग्रेस को वर्ष 2009 में फिर से सरकार बनाने की राह दिखाई। उसके पांच साल बाद अर्थव्यवस्था में मौजूद सुस्ती से नरेंद्र मोदी को सत्ता हासिल करने में मदद मिली। बीते चार साल से प्रति व्यक्ति खपत स्थिर रहने के बावजूद मोदी लोकप्रिय बने हुए हैं। शायद उनके वैकल्पिक आख्यान (कड़ी मेहनत, ढांचागत विकास, कल्याणकारी कदम एवं पहचान की राजनीति) ही ये फर्क पैदा करते हैं। लिहाजा लोग खुद नहीं पूछते हैं कि चार-पांच साल पहले क्या वे वास्तव में बेहतर स्थिति में थे? दरअसल करिश्माई नेताओं के साथ अक्सर ऐसा ही होता है।
