संपादकीय

Editorial: संसाधनों का समुचित आवंटन

अर्थशास्त्री बैरी आइचेनग्रीन और पूनम गुप्ता ने अपने हालिया पत्र में दिखाया कि आधे से अधिक भारतीय राज्यों का कर्ज उनके सकल घरेलू उत्पाद यानी जीएसडीपी के 30 फीसदी से अधिक है।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- April 21, 2025 | 9:41 PM IST

करीब छह महीनों में 16वें वित्त आयोग को अपनी रिपोर्ट पेश करनी है। इसकी अनुशंसाएं  1 अप्रैल, 2026 से लेकर आगे के 5 वर्षों की अवधि के लिए लागू होंगी। जैसा कि इस समाचार पत्र में गत सप्ताह प्रकाशित हुआ था, वित्त आयोग ने राजकोषीय संसाधनों के आवंटन को लेकर सरकारों का नजरिया जानने के लिए अधिकांश राज्यों की यात्रा कर ली है। वित्त आयोग का गठन संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत किया गया था ताकि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच कर राजस्व के वितरण को लेकर अनुशंसा की जा सके। खबरों के मुताबिक राज्यों के दौरे के बाद उसे तीन तरह के विचार सुनने को मिले हैं। पहला, भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों समेत अधिकांश राज्य चाहते हैं कि कर राजस्व में उनकी हिस्सेदारी को मौजूदा 41 फीसदी से बढ़ाकर 45-50 फीसदी किया जाए।

दूसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा जो कुछ राज्यों ने उठाया, वह था केंद्र द्वारा उपकर और अधिभार में इजाफा किया जाना। यह सही है कि संविधान केंद्र सरकार को यह शक्ति देता है कि वह उपकर और अधिभार लगाए लेकिन यह संग्रह केंद्र और राज्यों के बीच बंटने वाले पूल का हिस्सा नहीं होता और केवल केंद्र सरकार के पास रहता है। एक तरह से देखा जाए तो उच्च आवंटन और उपकर पर नजरिया आपस में जुड़ा हुआ है। भारत के विकास के मौजूदा चरण में केंद्र और राज्य दोनों ही स्तरों पर बजट को लेकर कई प्रतिस्पर्धी मांग हैं और सरकारें चाहती हैं कि अधिक से अधिक संसाधन उनके पास रहें। ऐसे में राज्य जहां यह चाहते हैं कि विभाज्य पूल में उनका हिस्सा बढ़ाया जाए, वहीं केंद्र सरकार भी उपकर और अधिभार पर अधिक निर्भर हुई है। इस समाचार पत्र द्वारा किया गया एक विश्लेषण बताता है कि चालू वर्ष में सकल कर प्राप्तियों में राज्यों को किया जाने वाला हस्तांतरण केवल 33.3 फीसदी है जो पिछले वर्ष के संशोधित अनुमान से थोड़ा अधिक लेकिन 15वें वित्त आयोग की 41 फीसदी की अनुशंसा से काफी कम है।

इसकी मुख्य वजह यही है कि केंद्र उपकर और अधिभार के जरिये संग्रह बढ़ा रहा है। केंद्र सरकार की उपकर और अधिभार पर निर्भरता कम करने का प्रयास किया जाना चाहिए। वित्त आयोग इस संदर्भ में होने वाली चर्चा को संचालित करके ऐसे तरीके सुझा सकता है जो विभाजन को और अधिक पारदर्शी बनाने में मदद करें।

तीसरा नजरिया तमिलनाडु की ओर से आया। सुझाव दिया गया कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में किसी राज्य के योगदान को ध्यान में रखते हुए कर राजस्व का वितरण किया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह होगा कि बड़े और समृद्ध राज्यों को अधिक फंड मिलेगा। ऐसे राज्यों की अक्सर यह शिकायत रही है कि वे कर राजस्व हासिल करने में पीछे रह जाते हैं। इन मुद्दों पर राज्यों के नजरियों के अलावा वित्त आयोग से यह भी अपेक्षा है कि वह दो अन्य क्षेत्रों में चर्चा को आगे बढ़ाएगा। पहला, मौजूदा केंद्र प्रायोजित योजनाओं को युक्तिसंगत बनाने की जरूरत है। अगर राज्यों को अधिक फंड जारी किए जाएंगे तो बेहतर होगा। इससे उन्हें स्थानीय जरूरतों के मुताबिक व्यय करने में मदद मिलेगी। देश के अलग-अलग राज्यों में विकास का स्तर अलग-अलग है। केंद्र प्रायोजित योजनाओं में संरचनात्मक रूप से कम आवंटन से समय के साथ विभाजन योग्य पूल में इजाफे की गुंजाइश भी बनेगी।

दूसरा कई राज्यों में कर्ज का स्तर बढ़ रहा है जिसे संभालना जरूरी है। जैसा कि अर्थशास्त्री बैरी आइचेनग्रीन और पूनम गुप्ता ने अपने हालिया पत्र में दिखाया कि आधे से अधिक भारतीय राज्यों का कर्ज उनके सकल घरेलू उत्पाद यानी जीएसडीपी के 30 फीसदी से अधिक है।  कई राज्यों में कर्ज का स्तर चिंताजनक हो सकता है। पंजाब में कर्ज जीएसडीपी के 50 फीसदी तक पहुंचने का अनुमान है जबकि चार राज्यों में कर्ज का स्तर 2027-28 के आधारभूत परिदृश्य में 40 फीसदी के स्तर को पार कर सकता है। राज्यों में उच्च कर्ज से वृद्धि और स्थिरता को जोखिम उत्पन्न होगा। कुछ राज्यों में बजट प्रबंधन को समायोजित करना होगा। वित्त आयोग इस प्रक्रिया को प्रोत्साहित कर सकता है।

First Published : April 21, 2025 | 9:41 PM IST