संपादकीय

संपादकीय: संस्थानों की शक्ति

किसी देश के सफल या विफल होने से संबंधित प्रश्न के लिए तीन अलग-अलग दृष्टिकोणों का आपसी सामंजस्य जरूरी था ताकि उसे कामयाबी मिल सके।

Published by
बीएस संपादकीय   
Last Updated- October 14, 2024 | 9:27 PM IST

इस वर्ष अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार तीन ऐसे विद्वानों को दिया जा रहा है जिन्हें एक बेहद साधारण प्रश्न करने में विशेषज्ञता हासिल है: देश अमीर कैसे बनते हैं? ये विद्वान पारंपरिक संदर्भों में अकादमिक अर्थशास्त्री नहीं हैं। निश्चित तौर पर डैरन एसमोगलू अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रोफेसरों में से एक हैं।

परंतु साइमन जॉनसन एक बिजनेस स्कूल में उद्यमिता के प्रोफेसर और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री हैं। जेम्स ए रॉबिनसन लंबे समय तक राजनीति विज्ञान और लोक नीति विभागों में रहे हैं। किसी देश के सफल या विफल होने से संबंधित प्रश्न के लिए तीन अलग-अलग दृष्टिकोणों का आपसी सामंजस्य जरूरी था ताकि उसे कामयाबी मिल सके।

प्रोफेसर एसमोगलू, जॉनसन और रॉबिनसन (या एजेआर) ने जिस प्रेरणा के साथ अपनी जांच शुरू की वह एकदम साधारण थी: कुछ देश मध्यकाल में अमीर क्यों थे और आज वे गरीब क्यों हैं जबकि अन्य देश जो उस समय गरीब थे आज अमीर हो चुके हैं? यह ‘भारी उलटफेर’ यूं ही हो गया इसकी कोई ठोस वजह है? इसका उत्तर एकदम सहज था: ‘संस्थान।’

यह शब्द अब बहुत अधिक इस्तेमाल किया जा रहा हे- आंशिक तौर पर ऐसा एजेआर के काम के कारण भी है लेकिन इसका प्रयोग बिना इसे ठीक तरह से समझे किया जा रहा है। संस्थानों से इन विद्वानों का तात्पर्य था शक्ति के प्रयोग पर सीधे और लागू किए जाने लायक प्रतिबंध।

आदर्श स्थिति में देखें तो संस्थानों का उभार विभिन्न समूहों के बीच सत्ता के इस्तेमाल के संतुलन के लिए हुआ ताकि शक्ति का जरूरत से अधिक इस्तेमाल सीमित किया जा सके और यह सुनिश्चित हो सके कि दीर्घावधि में संपत्ति पर अधिकार सरीखे वृद्धि को बढ़ावा देने वाले उपायों का संरक्षण होगा। यह निवेश का मार्ग प्रशस्त करता और उद्यमिता और वृद्धि फलते-फूलते।

एजेआर के मूल पर्चे में दो दशक पहले इस प्रभाव को एक चतुराईपूर्ण उपाय के जरिये दर्शाया गया था। प्रश्न यह था कि यह कैसे दर्शाया जाए कि संस्थानों के कारण वृद्धि हुई, न कि संस्थान संपत्ति निर्माण के कारण या उसके समांतर पैदा हुए। यह दिखाने का एक तरीका तो यह होता कि उन संस्थानों की पहचान की जाती जो संपत्ति के अलावा अन्य वजहों से उभरे और उसके बाद यह देखा जाता कि क्या इन संस्थानों वाले देशों का प्रदर्शन बेहतर रहा? वैसा करने के लिए एजेआर-जिसके एक सदस्य तुर्किये के हैं और दो अंग्रेज, ने स्वाभाविक रूप से उपनिवेशवाद का रुख किया।

उन्होंने यह उचित धारणा बनाई कि औपनिवेशिक काल में दौरान जिन स्थानों पर यूरोपीय लोग स्वस्थ रहे वहां अधिक यूरोपीय लोग बसने लगे और यदि किसी उपनिवेश में मूल निवासियों की तुलना में यूरोपियों की तादाद अधिक थी तो उनकी संस्थाओं के शोषक और कम प्रतिनिधित्व वाला होने की संभावना कम थी। उसके बाद उन्होंने इसका इस्तेमाल यह दिखाने के लिए किया कि जिन जगहों पर यूरोपीय लोग बसे उनका प्रदर्शन समय के साथ बेहतर रहा।

वास्तव में शताब्दियों पहले जब एक बार ‘यूरोपीय मृत्यु दर में अंतर’ को नियंत्रित कर लिया गया तो ‘अफ्रीका या भूमध्य रेखा के करीब के देशों में आय कम नहीं रही।’ जैसा कि उन्होंने कहा, ‘तुलनात्मक विकास की औपनिवेशिक उत्पत्ति’ संस्थागत ताकत की सत्ता में एक उल्लेखनीय अंतदृष्टि की तरह थी।

तब से उन्होंने अपने विश्लेषण को कई क्षेत्रों में विस्तारित किया है। इसमें कृषि स्वामित्व, मताधिकार का विस्तार और विभिन्न पीढ़ियों में कुलीन सत्ता की उपस्थिति शामिल हैं। परंतु एजेआर का मुख्य तर्क बरकरार रहा है कि भाग्य या जीन नहीं बल्कि संस्थागत चयन आर्थिक सफलता के लिए जिम्मेदार हैं। यह दुनिया को लेकर आशावादी नजरिया है और भारत में इसकी सावधानी से पड़ताल होनी चाहिए।

उदार आर्थिक सुधरों का बुनियादी ढांचा जिसके लिए देश में दशकों से तर्क दिया जा रहा है वह अनिवार्य रूप से संस्थागत बदलाव का है। एक ऐसा राज्य जो उद्यमिता के जोखिम कम करता है, संपत्ति के अधिकारों का बचाव करता है, स्वतंत्र नियामक तैयार करता है और सहजता से न्याय देने के साथ-साथ बचत पर एकाधिकार नहीं करता है, वह दीर्घकालिक समृद्धि सुनिश्चित करता है।

First Published : October 14, 2024 | 9:21 PM IST