पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रिटेन यात्रा के दौरान दोनों देशों ने व्यापक आर्थिक और व्यापार समझौते को अंतिम रूप दिया और उस पर हस्ताक्षर किए। इसे हाल के वर्षों में भारत द्वारा किया गया सबसे व्यापक व्यापार करार माना जा रहा है। दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौते पर पिछले कुछ वर्षों से चर्चा चल रही थी। इस बारे में जनवरी 2022 में औपचारिक वार्ता शुरू हुई थी और ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने उम्मीद जताई थी कि यह समझौता उसी साल दीपावली तक हो जाएगा। मगर तथ्य यह है कि समझौते पर अनौपचारिक चर्चा 2016 में ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के लिए हुए मतदान से पहले से ही चल रही थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि उस दौरान जो कुछ भी बातचीत हुई थी, उसकी रूपरेखा बदल गई थी। 6 या 7 साल पहले स्थिति यह थी कि जब तक किसी भी समझौते में वीजा या प्रवासियों का बड़ा मुद्दा शामिल न हो, भारत शुल्क कटौती पर चर्चा से इनकार करना चतुराई समझता था।
ऐसी मांगों के कारण 10 डाउनिंग स्ट्रीट में डेविड कैमरन की उत्तराधिकारी टरीसा मे के साथ बातचीत में बाधा आई थी। मगर इस दरमियान ब्रिटेन का राजनीतिक माहौल प्रवासन के खिलाफ हो चुका है। समझौते में महज 1,800 अतिरिक्त पेशेवर वीजा का वादा किया गया है। इस संयम की बुद्धिमत्ता तब स्पष्ट हो गई जब बचत योजनाओं में दोहरे योगदान संबंधी एक अहानिकर प्रावधान भी ब्रिटेन में बड़ा विवाद का कारण बन गया जबकि इस समझौते में अन्य कमियां भी हैं। उदाहरण के लिए निवेश पर अभी भी चर्चा होनी बाकी है। हालांकि यह कहना उचित होगा कि यह एक प्रमुख अर्थव्यवस्था के साथ सबसे व्यापक समझौता है। और यह व्यापार को लेकर भारत की मानसिकता में महत्त्वपूर्ण बदलाव को प्रतिबिंबित करता है।
सवाल यह है कि मानसिकता में इस बदलाव को अब अन्य व्यापारिक भागीदारों, विशेष रूप से यूरोपीय संघ (ईयू) पर कितना और किस तरह लागू किया जा सकता है। भारत-ईयू मुक्त व्यापार समझौता करने की समय-सीमा निर्धारित की गई है और भारत के प्रधानमंत्री और यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने कहा है कि इसे इस साल के अंत तक संपन्न हो जाना चाहिए। भारत ने ब्रिटेन से जो प्रतिबद्धताएं की हैं और रियायतें दी हैं, उनसे देश में बहुत कम या कोई राजनीतिक चिंता नहीं हुई है। इसलिए वार्ताकार यूरोपीय संघ के साथ बातचीत में शुल्क में अधिक कटौती का जोखिम उठा सकते हैं। यूरोपीय संघ के साथ वार्ता में इनमें से कुछ की आवश्यकता पड़ सकती है क्योंकि ईयू को अपने आकार और अफसरशाही ढांचे को देखते हुए अन्य की तुलना में अधिक व्यापक चर्चा और समझौते की आवश्यकता होगी। लेकिन इसके फायदे भी उतने ही व्यापक होंगे। ब्रिटेन के उलट यूरोपीय संघ अभी भी प्रमुख विनिर्माण ताकत है और कई वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के केंद्र में है, जिनमें भारतीय उत्पादकों को प्रवेश करने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। इस दृष्टिकोण से, इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत-यूरोपीय संघ मुक्त व्यापार समझौता आने वाले वर्ष में भारत की आर्थिक संभावनाओं को बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा उठाया जाने वाला सबसे बड़ा परिवर्तनकारी कदम हो सकता है।
इसके अलावा भारत को रक्षात्मक कार्रवाई भी करनी होगी ताकि अमेरिका के साथ भारत की बाजार पहुंच और व्यापार अधिशेष की रक्षा हो सके। अमेरिका में आयात पर ऊंचा शुल्क लगाने की राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की दूसरी समय-सीमा नजदीक आ रही है और जापान जैसे कई देशों ने पहले ही उसके साथ समझौतों की घोषणा कर दी है। हालांकि इनमें से कोई भी समझौता उन देशों के पक्ष में ज्यादा अनुकूल नहीं हैं। ब्रिटेन अमेरिका से आयात की तुलना में कम निर्यात करता है, फिर भी उसे 10 फीसदी बुनियादी शुल्क का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका में जापान के उत्पाद पर 15 फीसदी कर चुकाना पड़ रहा है और उसे घटिया अमेरिकी चावल के खिलाफ सुरक्षा छोड़नी पड़ी है। इस विशेषाधिकार के बदले में उसने अमेरिका में 550 अरब डॉलर का निवेश करने का वादा किया है। भारत को भी इसी तरह की रियायतें देनी पड़ सकती हैं। सवाल यह है कि भारत और अमेरिका किस स्तर का समझौता करेंगे।